भोपाल राज्य में स्वाधीनता आंदोलन

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पुराने भोपाल में नवाबी शासन था। इसके बावजूद भोपाल की जनता अपना नाम स्वाधीनता संग्राम आंदोलन में सम्मानजनक रूप से अंकित कराने में सफलता प्राप्त की है। इससे ज्यादा सांप्रदायिक एकता आपसी सदभाव की मिसाल क्या होगी कि भारत के स्वाधीनता आंदोलन बगावत में हिन्दू-मुसलमान ने एक साथ भाग लिया और अपने खून पसीने से संग्राम जेहाद की नींव को भोपाल में मजबूत किया।
भोपाल राज्य के स्वाधीनता आंदोलन को मुख्यत: तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है:-
1, प्रथम स्वाधीनता संग्राम 1857 से 1900 तक।
2. राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन 1901 से 1947 से एवं
3. 1 जून 1949 तक। संभवत: इस तथ्य को स्वीकार करने में कोई आपत्ति नहीं होना चाहिए कि भोपाल राज्य की जनता ने जिस जोश खरोश के साथ प्रथम स्वाधीनता संग्राम और भोपाल के विलीनीकरण आंदोलन में भाग लिया, उस हिम्मत के साथ देश के स्वतंत्रता आंदोलन में भाग नहीं लिया।
भोपाल राज्य के राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन (1901-1947) के मध्य एक भी ऐसी घटना दिखाई नहीं पड़ती है, जिसे याद किया जा सके अथवा उल्लेखनीय कहा जा सके। मध्यप्रदेश के अन्य भाग सागर, छतरपुर, टीकमगढ़, दमोह, जबलपुर, रायपुर, बिलासपुर, खंडवा, राजनांदगांव, बैतूल, नरसिंहपुर, सिवनी, मंडला, धार, इंदौर, रीवा, उज्जैन, शिवपुरी, ग्वालियर, झाबुआ, सतना आदि राष्ट्रीय आंदोलन की शपथ सत्याग्रह एवं शहादत की कई घटनाओं में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि भोपाल की जनता, भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन (1901-1947) से जुड़ी नहीं थी। भोपाल की जनता ने कभी भी अंग्रेज परस्ती को स्वीकार नहीं किया।
राष्ट्रीय असहयोग आंदोलन, नमक सत्याग्रह, भारत छोड़ो आंदोलन में भोपाल राज्य की जनता ने अपनी सक्रिय भूमिका निभायी। कई नेताओं ने अपनी गिरफ्तारियों दीं और उन्होंने एक-एक वर्ष तक की जेल की सजा काटी। भोपाल में नवाबी शासन होने के कारण अधिकांश गतिविधियां गुपचुप अर्थात भूमिगत की जाती रहीं।
सामूहिक आंदोलन भोपाल राज्य में कम हुये हैं। अन्यों के अतिरिक्त भोपाल के मुस्लिम नेताओं, सक्रिय कार्यकतार्ओं ने अंग्रेजी शासन के विरूद्ध अपनी जोरदार आवाज उठाई और संघर्ष किया। भोपाल के नवाब हमीदउल्ला खां ने स्वतंत्रता संबंधी हर राजनैतिक गतिविधियों को कुचलने में सूझबूझ के साथ प्रयास किये, जिससे सांप भी मर जाये और लाठी भी न टूटे। भोपाल राज्य की जनता ने 1949 के भोपाल विलीनीकरण आंदोलन और 1955 के गोवा मुक्ति सत्याग्रह में बढ़-चढ़ के भाग लिया और अपना नाम रोशन करने में सफलता प्राप्त की।
भोपाल के नवाब नज़ीर मोहम्मद खां ने सन 1918 में ईस्ट इंडिया कंपनी ब्रिटिश शासन से हुई संधि के अनुसार भोपाल की फौज को सीहोर में रखने का निर्णय लिया। भोपाल की फौज का नियंत्रण ब्रिटिश सरकार के राजनैतिक प्रतिनिधि के हाथ में था। संधि के शर्तों के अनुसार सीहोर में अंग्रेज प्रतिनिधि के अंतर्गत भोपाल नवाब की फौज के एक हजार सैनिक 600 घुड़सवार और 400 सैनिक रखना निश्चित हुआ। सीहोर में स्थित भोपाल बटालियन के माध्यम से नवाब भोपाल की विधिवत फौज की एक प्रकार से यह शुरूआत थी। इस भोपाल बटालियन ने 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम में अपनी महत्वूपर्ण भूमिका निभाई।
1857 के गदर के नाम से प्रसिद्ध स्वाधीनता संग्राम में देश के अन्य भागों के समान भोपाल राज्य में भी आजाद की चिंगारियां भड़कीं और सैनिक विद्रोह का बिगुल बजा। भोपाल राज्य की सीहोर छावनी में सैनिकों को मुंह से कारतूसों को खोलकर चलाने के लिए उतारना पड़ते थे। सीहोर छावनी के सैनिक भी इस प्रक्रिया के कारण भड़क उठे थे। सीहोर छावनी के सैनिकों को बराबर अन्य स्थानों पर हुये विद्रोह की जानकारी, सूचनाएं प्राप्त रहती थीं। मई 1857 में जब देश के बड़े हिस्से में देश पे्रेमी सैनिक विद्रोहियों ने अंग्रेज सरकार को झकझोरा। तब सीहोर की भोपाल बटालियन के एक हजार में से 866 सैनिकों, जिनमें 600 सैनिक, 206 घुड़सवार और 60 तोपची थे, ने अपने हथियार पटक दिये और अंगे्रेज सरकार के आदेशों को मानने से इंकार कर दिया।
1 जुलाई 1857 को इंदौर में आजादी का बिगुल बजने पर उसे दबाने के लिये कर्नल डयूरण्ड ने सीहोर स्थित भोपाल बटालियन की तोपें, प्यादे, सैनिकों की दो कंपनी और घुड़सवारों की दो टुकडिय़ों की तत्काल मांग की। भोपाल कांटिनजेंट का कमांडेट टेवर्स उस समय आश्चर्य जनक ढंग से भौंचक्का रह गया, जब आदेशों के बावजूद केवल 6 सैनिक इंदौर के स्वतंत्रता संग्राम के दबाने के लिये आगे आये और शेष ने स्पष्ट रूप से इंकार कर दिया। अंग्रेजों को भोपाल कांटिनजेंट के सैनिकों में असंतोष की फैलती हुई आग की भनक लग चुकी थी। इन सैनिकों का रूख आक्रामक था। देशभक्ति की जो आंधी सारे देश में चल रही थी। वे बहुत अधिक उससे प्रभावित थे।
कर्नल डूरंड इंदौर से 16 अन्य अंग्रेज अफसर और महिला, बच्चों सहित 4 जुलाई, 1857 को सीहोर पहुंच गया। इधर सीहोर में सैनिक विद्रोह से भयभीत होकर पोलटिकल एजेण्ड मेजर रिचर्डस अपने बीस सैनिकों के साथ भाग खड़ा हुआ। जाते-जाते उसने सेना की कमान भोपाल की बेगम सिकंदर जहां के हाथों में सौंप दी। सीहोर में सैनिकों ने विद्रोह कर पूरी छावनी पर कब्जा कर लिया और अंगे्रेज सरकार का झंडा उतारकर जला डाला। भोपाल बेगम ने इस विद्रोह को दबाने के लिये फौज भेजी, लेकिन फौज खजाने और बचे हुये अंग्रेजों को होशंगाबाद सुरक्षित पहुंंचने के अलावा विशेष कुछ नहीं कर सकी। यह परिवार होशंगाबाद के रास्ते से बंबई चले गए।
मेजर रिचडर््स के पलायन से भोपाल कांटिनजेंट के सैनिकों का हौसला बढ़ गया। देश के अन्य स्थानों पर होने वाली घटनाओं की सूचना उन्हें बराबर मिल रही थी। सुजात खां पिंडारी के नेतृत्व में उन्होंने सीहोर को अंग्रेजों के शिकंजे से बिलकुल मुक्त कराने का फैसला किया। शुजात खां ने सीहोर केटीमेंट में लगा अंग्रेजों का झंडा उतारकर फेंक दिया। उसके नेतृत्व में भोपाल कांटिनजेंट के देशभक्त सैनिकों ने केेंटोंनमेंट क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। पोस्ट आफिस तथा अंग्रेजों के चर्च पर कब्जा कर सीहोर में आजादी की घोषणा कर दी। शुजात खां ने बेरछा स्थित अंग्रेज कंपनी के खजाने को लूट लिया और वहां के एक अंग्रेज अधिकारी को मौत के घाट उतार दिया। भोपाल राज्य के कुछ अन्य स्थानों पर भी उपद्रव हुए।
तत्कालीन शासन नवाब सिकंदर जहां बेगम ने सीहोर स्थित अपनी फौजों को शुजात खां और भोपाल कांटिनजेंट को खत्म करने का हुक्म दिया। इसके पहले कि नवाब भोपाल कुछ कर सकतीं, घुड़सवार टुकड़ी के रिसालदार ने 6 अगस्त, 1857 को खुल्लम खुल्ला विद्रोह कर वहां आजादी का झंडा सीहोर सैनिक छावनी पर फहरा दिया। शुजात खंा और उसके 20 साथियों को भोपाल से भेजी गई फौज का नैतिक समर्थन प्राप्त था।
जुलाई, 1857 से नवम्बर 1857 तक सीहोर केेंटोंनमेंट छावनी स्वतंत्र और अंग्रेज विहीन रही। आजादी के दीवाने सैनिकों की संख्या सीमित थी और उनमें से कई नाना साहब को आजादी की लड़ाई में मदद देने के लिये चले गये थे। दिसम्बर, 1857 में जनरल ह्यूरोज को विद्रोह दबाने का चार्ज मिला। कमान संभालते ही जनरल ह्यूरोज 8 फरवरी, 1958 को इंदौर से सीहोर के लिये रवाना हुआ। वह 15 जनवरी को सीहोर पहुंचा। भोपाल नवाब की फौज काफी संख्या में पहले ही पहुंचकर आजादी के दीवाने सैनिक को पकड़ चुकी थी। पकड़ा-धकड़ी का शेष कार्य जनरल ह्यूरोज ने पूरा किया। उसने निर्दयतापूर्वक कार्यवाही की और 149 सैनिकों को एक लाइन में खड़ाकर गोली से उड़ा दिया।
सीहोर के ठाकुर गोवर्धन सिंह और राव रणजीत सिंह भी अंग्रेजों की गोली के शिकार बने और शहीद हुये। सैनिक जमादार इनायत हुसैन खां को तोप के मुंह से बांधकर उड़ा दिया गया। पिंडारी जाति और शुजात खां के विद्रोह के बाद फौजदार मोहम्मद खां और भोपाल राज्य के प्रसिद्ध जागीरदार और अमीर मोहम्मद खां ने रोहिला जाति की सहायता से अंग्रेजों के विरूद्ध लडऩे का निश्चय किया। अमीर मोहम्मद खां की जागीर अंगेे्रज सरकार द्वारा छीन लेने के आदेश जारी कर दिये गये। भोपाल बेगम भी इससे सहमत थीं और शाािमल थीं।
ग्राम कालिया खेड़ी भोपाल नगर से 12 किलोमीटर दूर एक गुमनाम गांव था। ग्राम कलियाखेड़ी में अमीर मोहम्मद खां की सैनिक टुकडिय़ों ने अंग्रेजों एवं भोपाल राज्य की सेना के विरूद्ध मोर्चा बनाया एवं बगावत की। भोपाल की सेना का नेतृत्व अमीर मोहम्मद खां कर रहे थे, जबकि ब्रिटिश सेना, जो सीहोर छावनी से कैप्टन कलन्गिहम के नेतृत्व में विद्रोह को दबाने के लिये रवाना हुई थी, दोनों के मध्य घमासान युद्ध हुआ और स्वतंत्रता के दीवाने अमीर मोहम्मद खां युद्ध में मारे गये। उनके दो पुत्र शेर मोहम्मद खां लगभग 200 रोहिलों के साथ गिरफ्तार कर लिया गया। बाद में यह गोली से उड़ा दिये गये।
भोपाल नगर में भी भोपाल कांटिनजेंट के दो अधिकारियों रिसालदार वलीशाह और महवीरा कोठा ने दो झंडे ÓÓनिशाने मुहमदीÓÓ और ÓÓनिशाने महावीरीÓÓ गाड़कर 6 अगस्त 1857 को स्वतंत्रता संग्राम का बिगुल बजा दिया। इन लोगों ने अपने साथियों सहित सिपाही बहादुर नाम की सरकार बनाने में सफलता प्राप्त की। वलीशाह उसके भाई आरिफ शाह, महावीर, रज्जूलाल आदि खुलकर अंग्रेजी सरकार के विरूद्ध आ गये और ईस्ट इंडिया कंपनी के विरूद्ध ÓÓजेहादÓÓ की घोषणा की। इन लोगों ने सिपाही बहादुर नाम की जो आजाद सरकार की स्थापना की थी। वह भारत की सर्वप्रथम स्वतंत्रता के सरकार रूप में स्थापित हुई अंग्रेजों ने भारतीय ध्वज तिरंगा फहराने के आरोप में महावीर और रज्जूलाल को गोलियों से भून डाला। बाद में अन्य विद्रोही भी मारे गये।
भोपाल की तत्कालीन शासक सिकंदर जहां बेगम ने स्थिति पर नियंत्रण पाने के लिए भरसक कोशिश की। लेकिन उन्हें स्थाई सफलता प्राप्त नहीं हुई। भोपाल राज्य में छोटी-बड़ी घटना निरंतर होती रहीं। सन् 1859 में गढ़ी अम्बापानी के मशहूर जागीरदार फाजिल मोहम्मद खां जो नवाब सिकन्दर जहां बेगम के परिवारजनों में थे, एकमात्र ऐसे स्वतंत्रता संग्रामी हैं, जो गढ़ी अम्बापानी (भोपाल-सागर मार्ग) क्षेत्र में अंग्रेजों के विरूद्ध युद्ध भड़काने के आरोप में फांसी के फंदे पर लटका दिये गये थे। फाजिल मोहम्मद खंा को पकडऩे के लिए अंग्रेेज फौज को पसीना आ गया। कुछ जानकारों का कहना है कि फाजिल मोहम्मद खां को राहतगढ़ के किले के मुख्य द्वार पर आम जनता के सामने फांसी प्रदान की गई। वह लड़ते वहां तक पहुंच गये थे। इनके साथ कई लोग थे।
सन् 1857 के गदर के जमाने में भोपाल बेगम सिकंदर जहां ने अंग्रेजों की काफी मदद की और सैनिक विद्रोाह को दबाने के लिये अपनी फोैज के माध्यम से कई आजादी के दीवानों को गोली से उड़ा दिया। यह निश्चत है कि सिकंदर जहां बेगम दिल दिमाग से पूरी तरह अंग्रेजों के साथ थीं। उन्होंने तन,मन,धन से ईस्ट इंडिया कंपनी की सेवा की। सिकन्दर जहां बेगम की नवाबी, अंगे्रज भक्ति की कृपा पर भोपाल का शासन प्रबंध चलता रहा। भोपाल की सेना अपने क्षेत्र के अतिरिक्त अंग्रेजों के साथ-साथ कई अन्य स्थानों पर भी सैनिक विद्रोह अथवा अन्य आंदोलनों को दबाने के लिये भेजी गई। भोपाल की फौज ने निर्दयतापूर्वक बगावत को कुचलने में कुछ स्थानों पर सफलता प्राप्त की, जिसमें सागर, राहतगढ़ (बुन्देलखंड) प्रमुख स्थान हैं। अंग्रेज सरकार ने बागवत को दबाने और विद्रोह को कुचलने के संबंध में भोपाल बेगम सिकंदर जहां का सम्मान किया और प्रसन्न होकर उन्हें बैरसिया का क्षेत्र उपहार में प्रदान कर दिया। सीहोर छावनी भी उन्हें दे दी गई।
बैरसिया का क्षेत्र पहले ग्वालियर राज्य के अंतर्गत आता था, इधर सिकंदर जहां बेगम को विद्रोह दबाने के सम्मान में उपहार मिला, उधर झांसी रानी महारानी लक्ष्मीबाई ने भोपाल बेगम को चेतावनी दे दी कि ÓÓअंग्रेजों से निपटने के बाद तुम्हारी अंग्रेज परस्ती को मैं देख लूंगी और तुम्हारा नाश करूंगी।ÓÓ इस धमकी के जवाब में जवाब में सिकन्दर जहां बेगम ने रानी झांसी को कहला भेजा कि ÓÓतुम जहां चाहो, वहां आकर मुझसे लड़ सकती हो।ÓÓ लेकिन वह अवसर नहीं आया। झांसी की रानी मारी गई। अंग्रेज सरकार पूरी तरह से सिकन्दर जहां के साथ थी। ब्रिटिश सरकार ने उपहार के अतिरिक्त एक और काम किया कि सिकन्दर जहां बेगम को ÓÓस्टार आफ इण्डियाÓÓ की पदवी से विभूषित कर डाला। इतिहास का यह अजीब पहलू है कि सिकन्दर जहां बेगम की एकमात्र पुत्री नवाब शाहजहां बेगम, अपनी मां की मृत्यु के पश्चात भोपाल के सिंहासन पर आसनी हुई और उनके संबंध ब्रिटिश शासन से कभी भी ठीक नहीं रहे। जितना सिकन्दर जहां बेगम ने कमाया था, उससे अधिक शाहजहां बेगम ने खो डाला।
शाहजहां बेगम का पूरा कायज़्काल, भोपाल राज्य के इतिहास के दृष्टिकोण से, एक स्वणज़्युग के रूप में स्थापित हुआ है। शाहजहां बेगम के समय में जहां भोपाल राज्य की अनेक क्षेत्रों में प्रगति हुई वहीं सारा काल उत्तेजना एवं अनिश्चितता से युक्त रहा। शाहजहां बेगम के हमेशा उत्तेजित रहने का कारण यह था कि ब्रिटिश सरकार उनके प्रत्येक कायज़् में अनावश्यक रूप से हस्तक्षेप करती थी, जो उन्हें जरा भी पसंद नहीं थी। शाहजहां बेगम यह सिद्ध करती थीं कि वह भोपाल की बेगम हैं और अंग्रेेज सरकार यह मानती थी कि उसने उन्हें मेहरबानी के कारण भोपाल की नवाबी बख्शीश दी है।
जब शाहजहां बेगम ने विधवा के रूप में अपना दूसरा विवाह मौलवी सिद्दीक हसन से किया तो ब्रिटिश शासन से उनके संबंध और तनावपूणज़् हो गए। ब्रिटिश शासन ये नहीं चाहता था ािक शाहजहां बेगम का विवाह मौलवी सिद्दीक हसन के साथ संपन्न हो। मौलवी सिद्दीक हसन ÓÓपान इस्लामिक मूवमेंट के कट्टर समथज़्क थे। वह भोपाल राज्य के प्रधानमंत्री के दामाद थे, लेकिन उनकी प्रथम पत्नी की मृत्यु हो चुकी थी। वह विधुर थे। उत्तरप्रदेश के नगर बरेली से मौलवी सिद्दीक हसन का पारिवारिक संबंध था। सिद्दीक हसन खां अहमद सईद द्वारा सीमांत प्रांत में ब्रिटिश सेना, उपनिवेेशवाद के विरूद्ध भड़के जन आंदोलन में अगुवा थे जो बाद में बाहवी, आंदोलन के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
शाहजहां बेगम ने उपनिवेशवाद विरोधी मुहिम में अपनी क्षमता के अनुसार भरपूर सहयोग प्रदान किया। मौलवी सिद्दीक हसन खां की शाहजहां बेगम से शादी हो जाने के पश्चात भोपाल राज्य की सत्ता का हस्तांतरण कुछ इस प्रकार हुआ कि सिद्दीक हसन खां भोपाल के प्रमुख बन गये।
ब्रिटिश सरकार ने बार-बार सिद्दीक हसन की गतिविधियों की ओर शाहजहां बेगम का ध्यान आकषिज़्त किया और उनकी सत्ता में भागेदारी न करने के प्रति आगाह किया। इसके साथ ही अंग्रेज सरकार में शाहजहां बेगम को यह धमकी भी दे डाली कि यदि शासकीय कार्य में सिद्दीक हसन खां की भागीदारी नहीं रोकी गई तो ब्रिटिश सरकार भोपाल रियासत के राजन्दाज में हस्तक्षेप कर सकती है। अंग्रेजों की इस धमकी का शाहजहां बेगम पर कोई असर नहीं हुआ ओैर सिद्दीक हसन खां भोपाल दरबार शासन का संचालन करते रहे। नवाब सिद्दीक हसन खां की गतिविधियां अतिरक्त रूप से बढ़ जाने के कारण वाइसराय लार्ड डरफन की सरकार के प्रतिनिधि सर लेपिन ग्रफिन भोपाल आये और उन्होंने ब्रिटिश सरकार के एक विशेष आदेश के माध्यम से शाहजहां बेगम को विवश किया कि वह सत्ता पर अपना स्वयं का नियंत्रण रखें। साथ ही यह भी बता दिया कि अन्यथा वैकल्पिक व्यवस्था की जायेगी। जिसके नतीजे में शाहजहां बेगम को सत्ता से विमुक्त कर दिया जायेगा।
इसके साथ ही ब्रिटिश सरकार ने नवाब सिद्दीक हसन की जागीर और नवाबी की पदवी वापस छीन ली। 26 अक्टूबर, 1885 को नवाब सिद्दीक हसन खंा को कारावास की सजा के दौरान नूरमहल में रखा गया। शाहजहां बेगम ने अपने पति नवाब सिद्दीक हसन खां पर लगाये गये सभी आरोपों का खण्डन किया। इसी बीच देश-विदेश के प्रखर स्वतंत्रता संग्रामी भोपाल आते रहे। नवाब सिद्दीक हसन खां द्वारा लिखित उपनिवेशवाद विरोधी पुस्तकें महत्वपूर्ण एवं भारतीय उप महाद्वीप के बड़े नगरों में बंटती रहीं। अफगानिस्तान के स्वतंत्रता संग्रामी जमालउद्दीन अफगानी, बंगाल के ऐशियातिक सोसायटी से सिद्दीक हसन खां ने पूरी तरीके से सहयोग एवं समर्थन प्रदान किया। बाद में बरकतउल्ला भोपाली विदेश में प्रथम भारतीय स्वतंत्र सरकार बनाने में सफल हुये, जिसके वह प्रधानमंत्री और राजा महेंद्र प्रताप राष्ट्रपति/अध्यक्ष थे।
ब्रिटिश सरकार का राजनैतिक विभाग भोपाल राज्य की स्थिति पर बराबर नजर रखे हुये था। ब्रिटिश सरकार के प्रतिनिधि विशेष रूप से शाहजहां बेगम की गतिविधियों को देख रहे थे शाहजहां बेगम पर एक आरोप यह भी था कि उन्होंने सूडान, टर्की आदि देशों के स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों को आर्थिक सहायता प्रदान की है। कारावास की स्थिति में नवाब सिद्दीक हसन खां का फरवरी, 1890 में देहांत हो गया।
शाहजहां बेगम का कार्यकाल जून 1901 तक चला, लेकिन इसके बाद भी उनके संबंध कभी भी अंग्रेजों के साथ अच्छे नहीं रहे। सन् 1881 में सर लेफ्टिग्रेफिन भोपाल में गर्वनर जनरल के एजेण्ट नियुक्त होकर आये थे और उन्होंने चार साल के थोड़े से समय में नवाब सिद्दीक हसन खां को जेल में पहुंचा दिया, उनके नवाबी के सारे हक छिनवाकर एक साधारण जागीरदार बनवा दिया और अपने पति के साथ अंग्रेज सरकार के विरूद्ध होने के आरोप में शाहजहां बेगम को इतना तोड़ दिया कि वह नवाब सिद्दीक हसन खां के विछोह में ज्यादा दिनों तक जीवित नहीं रह सकीं। जून 1901 में शाहजहां बेगम का भी देहावसान हो गया।
सन् 1857 के बाद सन् 1922 में सीहोर कोतवाली के सामने विदेशी फैल्ट केप की होली जली। इसके प्रेरणास्त्रोत एक यायावर साधू स्वामी ज्ञानानंद थे। इस सिलसिले में दो व्यक्तियों नारायण दास भारतिया और जगन्नाथ भारूका को गिरफ्तार किया गया। इसी वर्ष एक मौलवी ने धर्मोपदेश के बीच खिलाफत आंदोलन के पक्ष में एक-एक रूपये के टोकन बेचे और राजनैतिक चेतना का अलख जगाया। मौलवी को शहर बदर कर दिया गया। सन् 1929 में सीहोर छावनी पूर्णत: भोपाल नवाब के हवाले कर दी गई और पोलीटिकल एजेंट का मुख्यालय स्थाई रूप से सीहोर से भोपाल स्थानांतरित हो गया।
देशी राज्यों में अखिल भारतीय कांग्रेस की शाखायें नहीं थीं। सामंतशाही के विरूद्ध तथा लोकतंत्रीय शासन की स्थापना के लिये जन आंदोलन छेडऩे के उद्देश्य से पं. जवाहरलाल नेहरू की अध्यक्षता में अखिल भारतीय देशी राज्य लोक परिषद की स्थापना की गई। तदनुसार भोपाल राज्य प्रजामण्डल की स्थापना सन् 1938 में हुई। मौलाना तरजी मशरिकी सदर और चतुर नारायण मालवीय मंत्री चुने गये। भोपाल में हुये इसके खुले अधिवेशन में नागरिक स्वतंत्रता की मांग का प्रस्ताव पेश हुआ।
श्री नरेंद्र मण्डल के चांसलर भोपाल नवाब हमीदउल्ला खां ने देशी राज्यों के राजाओं, महाराजाओं और नवाबों के हितों की रक्षा में एड़ी-चोटी का जोर लगा दिया। उसका यह दवा था कि ब्रिटिश सार्वभौमिकता और प्रभुसत्ता के समाप्त होने पर देशी राज्यों के शासकों को बिलकुल स्वतंत्र छोड़ देना चाहिये और यह अधिकार होना चाहिये कि वे चाहें तो पाकिस्तान से या हिन्दुस्तान से अपना संबंध स्थापित करें या ब्रिटिश राज्य से अथवा बिल्कुल स्वतंत्र रहें।
सन् 1947 का वर्ष भारत की आजादी का वर्ष था। जहां सारे भारत की जनता आजादी की खुशियां मना रही थी। वहीं भोपाल राज्य की जनता सशंकित सी हवा का रूख भांप रही थी, क्योंकि भोपाल नवाब ने अपनी रियासत को भारत में शामिल करने की स्वीकृति नहीं दी थी। भोपाल राज्य को भारत में विलय करने के लिये जिस आंदोलन का सूत्रपात हुआ। वह भोपाल विलीनीकरण आंदोलन कहा गया। यह एक जन आंदोलन था और इसमें जनता के सभी वर्गों ने तन मन धन से भाग लिया।