मंजर भोपाली

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मंजर भोपाली का पूरा नाम सैय्यद अली रजा और तखल्लसु मंजर भोपाली है। उनके पिता का नम सैय्यद अब्बास रिजवी है एवं उनका जन्म भोपाल में 29 दिसम्बर 1959 को हुआ था। उन्होंने एम.ए. उर्दू में किया। उन्होंने अपनी शायरी का प्रारंभ सन्ï 1978 से किया था। उनका प्रथम अंतर्राष्टï्रीय मुशायरा कराची पाकिस्तान में हुआ। उनके द्वार लिखी रचनाएं इस प्रकार हैं- ये सदी हमारी है, जिन्दगी (पाकिस्तान से प्रकाशित), लावा (इंडो-पाक), लहू-रंग-मौसम (इंडो-पाक), मंजर एक बलंदी पर, उदास क्यों हो, $जमाने के लिए, हासिल (पाकिस्तान) से प्रकाशित।
उनको मिलने वाले पुरस्कारों में म.प्र. उर्दू अकादमी का शादां इन्दौरी पुरस्कार, हिन्दी-उर्दू अवार्ड कमेटी लखनऊ द्वारा राष्टï्रीय एकता पुरस्कार, प्रयाग साहित्य परषिद द्वारा सारस्वत पुरस्कार, हिन्दी-साहित्य परिषद से कबीर पुरस्कार, निशान-उर्दू अवार्ड (सिडनी), बज़्मे-अदब कनाडा द्वारा मीर अवार्ड, गहवार-ए-अदब न्यूयार्क द्वारा गालिब अवार्ड, गीतांजली हिन्दी साहित्य सम्मान (इंगलैण्ड), उर्दू अवार्ड (नार्वे), सलीम जाफरी अवार्ड (दुबई), आलमी कौंसिज पाकिस्तान द्वार सम्मान, गर्वनर सिंध पाकिस्तान द्वारा सम्मान, मेयर विंडसर कनाडा द्वार सम्मानित।
उन्होंने पाकिस्तान, दुबई, अबुधाबी, यूएई, शारजाह, मसकत, कतर, मलेशिया, आस्ट्रेलिया, ओसलो-नार्वे, एम्सट्रेडम, इंगलैण्ड, कनाडा, अमेरिका, सऊदी अरब की यात्राएं की हैं। उनको अंतर्राष्टï्रीय स्तर पर पुरकशिश आवाज में गजलें पढऩे के लिए पहचाना जाता है और उनके चाहने वाले पूरी दुनिया में मौजूद हैं। उनका तरन्नुम के साथ गजल कहने का अपना तरीका है और इसी कारण उनको लोग बहुत पसंद करते हैं। अंतर्राष्टï्रीय स्तर पर भोपाल की नाम मंज़र भोपाली ने रोशन किया है।
मंजर भोपाली की रचनाएं
जुल्फो-रुख के साये में जि़न्दगी गुज़ारी है।
धूप भी हमाारी है छांव भी हमारी है॥
हमने जिस तरह गुजरी जि़न्दगी गुज़ारी है।
नस्ले-नव के मतवालों अब तुम्हारी बारी है॥
बच के हम किधर जाएं इस सियासी जंगल से।
एक तरफ दरिन्दा है एक तरफ शिकारी है॥
बाप बोझ ढोता था क्या जहेज़ दे पाता।
इस लिए वो श$जादी आज तक कुंआरी है॥
कर्बला नहीं लेकिन झूठ और सदाकत में।
कल भी जंग जारी थी आज भी जारी है॥
कह दे मीर-ओ- गालिब से हम भी शेर कहते हैं।
वो सदी तुम्हारी थी ये सदी हमारी है॥
गांव में मोहब्बत की रस्म है अभी मंजर।
शहर में हमारे तो जो भी हैं मदारी हैं॥
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तुम्हारी बात कहां घाव भरने वाली है।
यही कटार तो दिल में उतरने वाली है॥
हमारी फिल्में, ये टी.वी. बता रहे हैं हमें।
हमारे मुल्क की तहजीब मरने वाली है॥
जो शम्अ जलती है फानूस में दुआओं के।
वो शम्अ कब किसी आंधी से डरने वाली है॥
हर एक हाथ में सामान है तबाही का।
किसी भी लम्हे ये दुनिया बिखरने वाली है॥
वो आग इश्क की दिल में छुपाई है मैंने।
जो आग सारा जहां राख करने वाली है॥
उतर रहे हैं परिन्दे तुम्हारी यादों के।
उजाड़ दिल की हवेली संवरने वाली है॥
खुद अपने आप सुधर जाईए तो बेहतर है।
ये मत समझिए कि दुनिया सुधरने वाली है॥