भारत की राजधानी नई दिल्ली के महरौली नामक स्थान पर एक ऐसा लौह-स्तम्भ है, जिसका रहस्य आज तक वैज्ञानिकों की समझ में नहीं आ सका है। यह स्तम्भ चंद्रा नामक राजा की स्मृति में बनवाया गया था।
22 फुट ऊंचे इस स्तम्भ का औसत व्यास 41/2 फुट है। इस लौह स्तम्भ को देखने से ही पता चलता है कि इसे बनाने वाले कितने कुशल धातुकर्मी होंगे। ठोस पिटवां लोहे से बना यह स्तम्भ अपने अलंकृत शीर्ष के कारण अत्यंत विशिष्टï लगता है। इस आकार का स्तम्भ बनाना आधुनिक युग में भी एक कठिनाई भरा काम साबित होगा। विद्वानों का मत है कि इसका निर्माण 5वीं शताब्दी के आस-पास हुआ होगा।
इस स्तम्भ के प्रसिद्घ होने तथा उसके रहस्यमय होने की वजह दूसरी है। शताब्दियों से इस स्तम्भ को वर्षा और वायु का मुकाबला करना पड़ा है लेकिन आज तक इसमें जंग नहीं लगा है।
इस स्तम्भ में जंग न लगने के लिये कई तर्क जुटाए जाते रहे हैं। इनमें सबसे अधिक प्रसिद्घ हैं वे तर्क जो एरिक वॉन डेनिकेन की प्रसिद्घ पुस्तक चैरियट्ïस ऑफ गाड्ïस के आधार पर दिए गए हैं। वॉन डेनिके्रन के अनुसार अंतरिक्ष के ‘सुपर इंटेलीजेंटÓ वासियों की मदद के बिना न मिस्र के पिरामिड बन सकते थे और न ही पाषाण युग की व उसके बाद ही सुमेरी सभ्यता विकसित हो सकती थी। डेनिकेन के सिद्घांत पर विश्वास करने वाले लोगों का कहना है कि यह स्तम्भ भी अंतरिक्षवासियों के योगदान से ही निर्मित हो पाना संभव हुआ है।
जब विज्ञान किसी रहस्य को नहीं खोल पाता, तो इस तरह के तीर और तुक्केनुमा सिद्घांत प्रकाश में आते ही हैं। महरौली के लौह स्तम्भ की धातु का वैज्ञानिक अध्ययन यह बताता है कि उस लोहे में बहुत-सी अशुद्घियां हैं, जिसके कारण उसमें और भी अधिक जंग लगना चाहिए लेकिन स्तम्भ में आज तक जंग नहीं लगा है। धातु-विज्ञानियों को यह नहीं समझ में आ रहा है कि इस स्तम्भ की धातु क्यों इस कदर परिरक्षित और प्रकृति के प्रभाव से मुक्त है?
महरौली के स्थानीय निवासी इस स्तम्भ को बड़े भक्ति-भाव से देखते हैं। अब तो उनके कानों में भी इसमें लगी अद्ïभुत धातु की खबर पहुंच चुकी है। अत: इस स्तम्भ के आस-पास अंधविश्वासों के तानों-बानों की बुनावट प्रारम्भ हो जाना स्वाभाविक है।
पृथ्वी पर अपार्थिव शक्तियों के आगमन के सिद्घांत में जिसके प्रवर्तक वान डेनिकेन थे, उनके सिद्घांत में सैकड़ों कमियां खोज निकाली गई हैं परंतु किसी भी रहस्य को और भी रहस्यमय कर देने की मानव प्रकृति अभी भी उस पर भरोसा कर लेती है। यह सही है कि महरौली के लौह स्तम्भ की धातु की विशिष्टïता का अभी तक पता नहीं चल पाया है लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि वैज्ञानिक विधियों और पुरातात्विक अध्ययन पर से विश्वास हटा कर कपोल-कल्पित सिद्घांतों और व्याख्याओं को अपना लिया जाए। महरौली के लौह स्तम्भ के रहस्य के बारे में भी इसी तरह की धारणा बनने का गम्भीर खतरा मौजूद है। बहरहाल, हमें आशा रखनी चाहिए कि एक न एक दिन धातु वैज्ञानिक इस रहस्य पर पड़ा आवरण अवश्य हटाएंगे। – नबीला मलिक