हर इंसान में गुण एवं उसकी प्रतिभाओं का एक विशेष स्त्रोत होता है। जैसे इस जमीन के पेट में पत्थर से लेकर रत्न तक भरे पडे हैं। यह कहा जाता है कि सोने की खानों के पास रत्नों की खानों और अन्य जीवनदायी खनिजों के भन्डार प्रायः नहीं पाये जाते हैं। वैसे ही अनेक गुणों और प्रतिभाओं का संगम भी दुर्लभ होता है। आम तौर से यह कहा जाता है कि अगर कोई संगीतकार है तो काव्य कला से वंचित रह जाता है। संगीत और काव्य कला के यदि दोनों ही उसमें हो तो शौर्य नहीं मिलेगा। कोई एक भाषा में पारंगत है तो वह दूसरी भाषा में कम ही विशेष प्रभाव रखता है। और ऐसा बहुत की कम होता है कि किसी एक मानव से यह सारी प्रतिभाएं साथ हो ओर अगर होती है तो वह अवश्य ही एक विशेष एवं विलक्षण विभूति हैं। ऐसी ही एक विभूति थे अमीर खुसरो जो खडी बोली के आदि कवि थे। आप फारसी, उर्दू एवं तुर्की के विशेष ज्ञाता थे इसके बाद हिन्दी में रचनायें की वह एक सच्चे भारतीय थे। वह संगीत और वाद्य विद्या के धनी थे। इसके अरबी फारसी के प्रतिभा सम्पन्न कलमकार अमीर खुसरो एक राजनीतिज्ञ, शूरवीर, इतिहासकार भी थे। अगर किसी एक व्यक्ति में एक नहीं अनेक प्रतिभाओं एवं कलाओं का संगम देखना हो तो अमीर खुसरो का नाम ही इतिहास में बार-बार सामने था अगर तुम मुझ से कुछ पूछना चाहते हो तो हिन्दी में पूछो उन्होंने यहां की लोक भाषा को अपना कर उसे आज की हिन्दी का रूप दिया। आपने लोगो की भावनाओं को सामने रखते हुए ताकि आम जनता का मनोरंजन हो जन भाषा में साहित्य की रचना की। वह महान संगीतज्ञ थे आपने अनेक राग रागनियों कव्वालियों को जन्म दिया और न जाने कितने वाद्य यन्त्रों को इजाद किया। अमीर खुसरो ग्यारह बादशाहों के राज दरबारों में रहे, उन्होंने अनेक तख्तोताजो को बदलते उलटते-पलटते देखा पर न तो राजा न उनका दरबार या राजमहल उनको पलट पाये न ही प्रभाव डाल सके। उन्होंने जीवन को बहुत करीब से परखा और देखा जिन्दगी की सच्चाई को वह पहचानते और जानते थे उन्होंने धर्म बंधन कभी नहीं माना वह केवल एक व्यक्ति से प्रभावित थे वह थे एक महान संत और सूफी हजरत निजामुद्दीन औलिया , और इसी प्रभाव के कारण अमीर खुसरो ने भी एक महानसंत और सूफी के तोर पर ख्याति प्राप्त की। उन पर इन्द्रधनुषी प्रतिभा जो एक महान संगीतकार, महान दार्शकि, कवि, भारत के अनुरागी के तौर पर ख्याति प्राप्त की।
अमीर खुसरो के बचपन का नाम अबुल हसन यमीनउद्दीन था सुलतानी एवं तुर्क उनके उपनाम थे। जो बादशाहों ने उनकी पदवियां प्रदान की थीं उनमें थीं तूती-ए-हिन्द, अमीर, मलिकुश्शैरा, पर साहित्य और जनता के बीच वह खुसरो के नाम से ही अधिक जाने जाते थे। आपके पिता का नाम अमीर सैफउद्दीन महमूद था, जो तुर्की या चीनी कबीले के सरदार थे। जो भारत आने से पहले बलख के आसपास रहा करते थे। उच्च एवं प्रतिभाशाली व्यक्ति थे। चंगेजी आमनविकता, एवं पाशविक्ता से तंग आकर 13 वीं सदी में भारत आये थे यहां पर शमसुद्दीन अलतमश का राज्य था। यह दिल्ली के निकट एटा जिले के पदयोली ग्राम में बस गये और बादशाह के यहां नौकरी की और जल्द ही अपने कार्य कौशल से बादशाह का दिल जीत लिया और इस कारण बादशाह ने जागीर दे दी और आप जागीदार बन गये।
खुसरो की मां एक विशिष्ट हिन्दू परिवार की सदस्यता थी जो पहले ही इस्लाम धर्म स्वीकार कर चुकी थी इन की मात्रभाषा हिन्दी थी। इनके नाना का नाम रावेल इमादिल मुल्क था जो दिल्ली के नवाब और सिद्ध पुरूष माने जाते थे। वह बलवन के राज्य में युद्ध मंत्री थे। घर अधिकतर रस्म रिवाज हिन्दू संस्कृति के ही थे पल कर बडी हुई थीं इसलिये अपनी मां से हिन्दू संस्कारी थे। इसमें इनके पिता को कोई ऐतराज नहीं था। खुसरो में कवि प्रतिभा जन्मजात थीं वह प्राकृति से ही कवि थे। उन्होंने अपनी एक किताब में लिखा है कि उनके पिता उनको मदरसा भेजा करते थे पर मैं रदीफ और काफियों के चक्कर में ही रहता था। मेरे उस्ताद जो काजी के नाम से मशहूर थे मुझे खुशनवीसी सीखने की कोशिश करते रहे पर मैं शहजबीनों के खत की तारीफ कैसे कहता रहा था। यह बातें उन्होंने ’तौहफस्सूफर‘ में लिखी हैं।
पिता की मृत्यु के बाद खुसरो अपने नाना इमादिल मुल्क के साथ दिल्ली में ही रहने लगे। और इनके नाना हजरत निजामउद्दीन औलिया के परमभक्त संतों मे ंसबसे बडे माने जाते थे। हजरत निजामुद्दीन उस समय सूफी संतों में सबसे बडे माने जाते थे। नाना के ही साथ खुसरों का भी हजरत के यहां आना जाना हो गया आपके साथ रहकर खुसरो ने बहुत कुछ सीखा और अनेक साधु संतों के साथ रहते और उनकी शिक्षा ग्रहण करने का अवसर प्राप्त हुआ और कई तरह के साहित्य अध्ययन का अवसर भी प्राप्त हुआ और आखिरकार खुसरो ने हजरत निजामउद्दीन औलिया को अपना गुरू बनाया। आज के अनजान आदमियों को जानकारी के लिये बता दें कि दिल्ली का निजामउद्दीन स्टेशन इन्हीं हजरत के नाम पर है और इन्हीं के शिष्य थे खुसरो जहां आज भी सारे भारत क्या विदेशों के लोग उनके आस्ताने पर श्रद्धा के सुमन चढाने आते हैं। खुसरो से हजरत निजामउद्दीन इतना प्यार करते थे कि शायद कोई अपने पुत्र से भी नहीं करता होगा। इनका प्रेम एक दूसरे के प्रति ऐसा था जिसकी मिसाल आज के युग में तो मिल ही नहीं सकती पिछले जमाने के इतिहास में भी मेरी नजर से नहीं गुजरीं। वह कहते थे कि मैं सबसे ऊब जाता हूं पर खुसरो से प्रभावित भी बहुत थे उन्होंने खुसरो के सम्बंध से एक बार कहा इस तुर्क के दिल में जो आग सुलग रही है कयामत के दिन इस से मेरा कर्मलेखा (नाम-ऐ-आमाल) पवित्र हो जायेगा यानी सुधर जायेगा। जबकि औलियाओं के संदेश उनके प्रेम ईश्वर की भक्ति से दूसरों के आमाल बनते हैं यहां हजरत निजामउद्दीन स्वयं खुसरो के सहयोग से अपने नामा-ए-आमाल बनाना चाहते थे। यह थे पीर और मुरीद खुसरो की विद्धता और साधू संतों में उनकी अत्यधिक रूची देखकर हजरत निजामउद्दीन उन्हें दिल से प्रेम करते थे। और प्यार में उन से ’’तुर्क‘‘ कहते थे। हजरत बडे गर्व के साथ कहते थे कि जब परमात्मा उनसे पूछेगा कि तुम मेरे लिये क्या लाये तो सोचें जब हम किसी को कोई तोहफा देते हैं। तो उसके हिसाब से सबसे अच्छी भेंट की जाती है और यहां तो मामला अल्लाह का हैं जो सब का अमीर खुसरो या निजामउद्दीन औलिया का मालिक है। बनाने वाला, दिलों की बात जानने वाला, पैदा करने वाला, रिजक देने वाला, और उसके से निजाम उद्दीन जैसा महान व्यक्ति सूफी सन्त, भेंट में अल्लाह से खुसरो को पेश करने को कहता है इससे ही खुसरो की महानता का ज्ञान होता है। आज तक किसी गुरू ने अपने शिष्य के लिये ऐसा गर्व से नहीं कहा होगा फिर निजाम उद्दीन औलिया के सैकडों हजारों शिष्य थे। उनमें से अनेकों महान सूफी सन्त हुये जिनके आस्तानो पर मांगने वालो की भीड लगी रहती है। पर उन के लिये उन्होंने कभी ऐसा नहीं कहा।
खुसरो के प्रति उनके अतुल्य प्रेम के सम्बंध से एक बात और लिख रहा हूं हजरत ने मरने से पहले अपनी इच्छा इन शब्दों में प्रकट की थी- अगर कब्र में दो व्यक्तियों को दफन किया जा सकता तो मैं चाहता कि मुझे खुसरो के साथ दफन किया जाये गुरू की इस अन्तिम इच्छा के आधार पर खुसरो को उनके निकट भी नहीं दफन किया गया पर खुसरो की कब्र करीब में ही है। इससे सिद्ध होता है कि खुसरो की गुरू भक्तिविलक्षण मेधा और आध्यात्मिकता का द्योतक थी।
अमीर खुसरो जन्मजात कवि थे इसलिये साहित्य साधना ही उनकी जीविका का मुख्य साधन थी। साहित्यकार के साथ-साथ व्यावहारिकता से भी वह परिपूर्ण थे। जीवन की प्रेरक परिस्थितियों के अनुसार वह अपने को ढाल लेते थे। अपनी काव्य प्रतिभा के कारण वह एक बार जिस दरबार से जुडे ही रहे। भले ही उस राज्य दरबार में बादशाह कोई भी रहा हो। यह खुसरो का ही कमाल था कि प्रत्येक बादशाह उन्हें अपने दरबार में रखने पर गौरव महसूस करता था। यह था उनके जीवन का सारांश इस लेख में उनके जीवन के अनेक पहलुओं पर प्रकाश वह डाला गया। जो महत्वपूर्ण और उनका सूफी सन्त होने का प्रमाण था वही प्रस्तुत है। हम हजरत निजामुद्दीन की निगाह या उनके ज्ञान के किसी अंश के बराबर नहींं हो सकते। जब वह किसी से महान रहे तो हमारी इच्छा थी कि इस महान व्यक्ति के व्यक्तित्व को हम आप के सामने प्रस्तुत करते रहें। 0 डाॅ. आई.ए. सैय्यद