उच्चवर्ग, मध्यवर्ग या निम्नवर्ग के किसी भी घर मेंï झांक कर देखेï तो अलग-अलग स्वरूपोïं मेंï एक ही तस्वीर देखने मेंï आएगी। भले ही महिला अशिक्षित हो, शिक्षित हो, गृहणी हो या फिर कामकाजी, उस पर आधिपत्य घर के पुरुष का ही चलता है। उसके जीवन, उसके सपने, उसकी उपलब्धियां और उसके नजरिये पर पिता या फिर उसके पति का ही निर्देश चलता है। उसकी अन्य सीमाएं और आचार व्यवहार के अलिखित नियम बनाने का काम जो अन्य पुरुष करते हैïं वे हंैï भाई, ससुर और जीवन के उतराद्र्ध मेंï पुत्र।
यह भी सही है कि महिलाओंï का एक बहुत छोटा वर्ग सही मायने मेंï नारी स्वतंत्रता का उपभोग भी कर रहा है। वे न सिर्फ आत्मनिर्भर हैï, बल्कि आर्थिक रूप से स्वतंत्र भी हैï। फिर भी बहुसंख्यक महिलाएं इस पितृात्मक समाज मेïं पुरुषोïं के बनाए नियम कानूनोïं के साये तले जीवन बिताने को मजबूर हंैï। भारतीय समाज की इसी अवधारण का प्रतीक है कि पुरुषोïं को शासक और महिलाओंï को उनकी बांदी के तौर पर देखा जाता है। इसका असर आज की महिलाओïं के भी जीवन पर पड़ रहा है।
वैसे अगर हम इक्कीसवींï सदी मेंï भी इतिहास के पन्ने पलटेï तो महिलाओंï के जीवन पर इस वास्तविकता और इसके प्रभाव पर पहले भी गंभीर चर्चा होती रही है। न सिर्फ रेडियो, बल्कि टेलीविजन और प्रिंट मीडिया भी इस बहस को उठाता आया है। यही नहींï विश्वविद्यालयोïं द्वारा आयोजित किए जाने वाले सेमिनार और सरकार द्वारा बनाई जाने वाली रणनीतियोंï को भी मीडिया ने प्रमुखता से स्थान दिया है।
खासकर पिछले दिनोïं संपन्न लोकसभा चुनाव मेंï भी इस मुद्दे को लगभग सभी राजनीतिक पार्टियोंï ने प्रमुखता से उठाया। उन्होïंने अपने प्रचार अभियान मेïं महिलाओïं पर हावी पुरुषोïं वाली तस्वीरेंï दिखाईं और वादा किया कि अगर उनकी पार्टी सत्ता मेंï आती हैं तो वह महिलाओïं की नियति मेंï बदलाव लाने की पुरजोर कोशिश करेंïगे। कुछ ने राजनीति मेंï महिलाओïं की भागीदारी बढ़ाने का आश्वासन दिया तो कुछ ने शिक्षा, स्वास्थ्य और आधारभूत सेवाओंï समेत और अवसर जुटाने की बात कही। इस बाबत जनहित मेंï जारी विज्ञापनोंï मेंï से एक मेïं स्वयं सुपर स्टार अमिताभ बच्चन कन्या भ्रूण हत्याओïं पर रोक लगाने की अपील करते नजर आए। उन्होïंने जोर देकर कहा कि एक घर मेïं कन्या के बिना परिवार पूरा नहीïं हो सकता है। इसलिए हरेक को एक लड़की का स्वागत करने के लिए तैयार रहना चाहिए।
इस अभियान और राजनीतिक पार्टियोï के चुनावी वादोंï को देख एक स्वाभाविक प्रश्न उठता है कि आखिर भारत मेïं महिलाओïं को अनचाहे नागरिक के तौर पर देखे जाने की प्रवृत्ति पर इतना हो हल्ला क्योïं? इसका जवाब ढूंढऩे के लिए भारत मेंï पुत्री रत्न पर जारी यूनीसेफ की हालिया रिपोर्ट पर देखने की जरूरत है। यह रिपोर्ट बताती है कि भारत मेंï जन्म लेने वाली लड़की पैदा होते ही अपने जीने का अधिकार खो देती है, क्योïंकि उसे लगभग हर परिवार मेंï एक अभिशाप के तौर पर देखा जाता है। उसके जन्म लेने का मतलब होता है दहेज की समस्या या घर परिवार की बदनामी। खासकर अगर वह वयस्क होने पर अपने प्रेमी संग भाग जाए या फिर घरवालोïं की मर्जी के बगैर शादी कर ले। विद्यमान गरीबी और अशिक्षा के कारण लड़कियोंï को न तो बराबरी का अधिकार है और न सम्मान व गौरव। दूसरे, भारत मेंï पितृात्मक समाज होने के कारण लड़कियोïं को जन्म से ही पुरुषोïं के अधीनस्थ ही माना जाता है। लड़की के जन्म लेते ही उसे गृहणी और वंश को आगे बढ़ाने वाली वस्तु के तौर पर देखा जाता है। ये दो ऐसी जिम्मेदारियां हैï जिसका कोई आर्थिक प्रोत्साहन नहींï है। इसके अलावा समाज उन पर जो अपेक्षाएं थोपता है उससे उनका जीवन स्तर दोयम दर्जे का ही रह जाता है। उसे बेगार मजदूर के तौर पर देखा जाता है, जिसका कर्तव्य परिवार की सेवा करना है। यही नहींï वह जब तक जीवित रहती हैं यह भूमिका ही उसकी नियति बन कर रह जाती है। अपने पूरे जीवन मेंï वह इसके साथ ही टिकी रहती हैं, क्योïंकि उसकी परवरिश ही कुछ इस तरह से होती है कि वह पुरुषोïं को सर्वअधिकार संपन्न मानती हैं और उसकी हर सही गलत इच्छा के आगे आत्मसमर्पण करना अपना नियति। पिछले 55 वर्षों मेंï यद्यपि शहरी समाज मेïं बदलाव आया है। महिलाओंï को अपने जीवनसाथी समेत कैरियर के चयन की स्वतंत्रता मिली है। इसके बावजूद अधिसंख्य शहरी और ग्रामीण महिलाएं पुरुषोïं के साये मेïं ही रहने को बाध्य हैïं। वे स्वयं को उनके हाथोंï छोड़ देती हैïं, जो उन्हेïं भेड़ बकरियोंï के झुंड समझ मनमाफिक हाँकते हैïं। उनसे अपेक्षा की जाती है कि वह पुरुषोïं की स्वीकृति हासिल करने के लिए उनकी यौन इच्छाओंï की पूर्ति करने के साथ साथ घरेलू कामकाज करेंïगी। तमाम शिक्षित शहरी परिवारोंï मेंï भी महिलाओंï की शिक्षा, आर्थिक स्वतंत्रता, कैरियर चयन और घर व कार्यक्षेत्र की तमाम जिम्मेदारियोïं का चयन पुरुष ही करते हैïं।
यूनीसेफ की रिपोर्ट मेंï कई जनांकिकीय विशेषज्ञोंï, सामाजिक कार्यकर्ताओंï और महिला संगठनोंï ने इस स्थिति मेंï सुधार के लिए तमाम सुझाव और उस क्रम मेंï अपने विचार व्यक्त किए हैï। उनका कहना है कि अगर इन सुझावोंï को सरकारी स्तर पर शैक्षिक संस्थानोïं मेंï लागू किया जाए तो लिंगभेद काफी हद तक दूर किया जा सकता है। इनमेंï से भी प्रमुख हैं प्राइमरी और सेकेïंडरी स्कूल के पाठ्यक्रम मेंï फैमिली साइंस को विषय के रूप मेंï पढ़ाना। इसके तहत बच्चोïं को सिखाया जाना चाहिए कि किस प्रकार से पारिवारिक संबंधोंï को स्वस्थ तरीके से विकसित किया जा सकता है, जिसके बलबूते स्त्री पुरुष परस्पर सौहाद्र्र और सामंजस्य के साथ रह सकते हैïं। बजाय इस मानसिकता के कि पुरुष हमेशा स्त्री पर राज करने के लिए ही पैदा हुआ है। इस विषय के बलबूते बच्चोंï मेंï स्त्री पुरुष संबंधोïं पर एक नया नजरिया विकसित होगा।
इसके साथ ही रिपोर्ट मेंï सुझाव दिया गया है कि बुजुर्गों को भी इस नये विषय के प्रति जागरूक बनाया जा सकता है। ताकि वे सफलता पूर्वक इसे घर पर भी लागू कर सकेïं। विशेषज्ञोï के मुताबिक जब तक रिपोर्ट के इन दो सुझावोïं पर अमल सुनिश्चित नहीïं किया जाता तब तक लिंगभेद के संदर्भ मेंï मनमाफिक परिणाम नहीïं हासिल किए जा सकते हैï। ऐसे मेïं यह बहुत जरूरी है कि प्रत्येक भारतीय बच्चे के अभिभावक इस आवश्यकता को समझेï कि गृहस्थी रूपी गाड़ी के दोनोंï पहियोंï के समग्र प्रयासोंï से विद्यमान असमानता और लिंगभेद रूपी बुराई को समाप्त किया जा सकता है। टीवी, प्रेस और मीडिया से जुड़े अन्य माध्यमोंï पर अभियान चला कर ही कुछ नहींï होने वाला। इसके लिए अभिभावकोंï समेत शिक्षिकोï की भी जिम्मेदारी बनती है कि वह लिंगभेद के प्रति बच्चोïं को जागरूक बना इस दिशा मेïं सकारात्मक पहल करेïं। इसके लिए पुरुषोïं को सर्वप्रथम और सौम्य व सहृदयी बनना होगा तो महिलाओंï को और मजबूत। खासकर यदि हमारा समाज भारत को स्वतंत्र, गौरवशाली, शक्तिशाली और सौम्य राष्टï्र की अंतरराष्टï्रीय पहचान देना चाहता है। – विमला पाटिल