प्रख्यात महिला इस्लामविद्ï श्रीमती अतिया खलील अरब के भोपाल प्रवास पर उनसे रईसा मलिक ने उनके शोध एवं विचारों को लेकर बातचीत की। प्रस्तुत है बातचीत के कुछ अंश:-
प्र.- आपका जन्म कहां हुआ?
उ.- मेरा जन्म सन्ï 1935 में लखनऊ में हुआ था। विभाजन के समय हमारे परिवारजन पाकिस्तान चले गये, जहां हम कराची में रहे।
प्र. आपके परिवार के संंबंध में कुछ बतायें?
उ.- मेरे पूर्वज यमन से संबंध रखते थे। यमन में इमाम मोहम्मद इब्ने अली अशशौकानी थे जो मेरे परदादा के उस्ताद थे। मेरे परिवार के बुजुर्ग काफी नामी लोग थे।
हम 6 बहनें और दो भाई थे। हमारे वालिद जनाब खलील अरब इस्लाम के बहुत अच्छे आलिम थे। मेरे ननिहाल में सैयद अमीरी मलीहाबादी जो साहबे तफसीर के नाम से मशहूर भी हैं ने मुताअला आलमगीरी का फारसी से उर्दू में अनुवाद किया। मेरे दादा शेख मोहम्मद बिन हुसैन अन्सारी अरबी के बहुत बड़े शायर थे। उनके हाथ का लिखा हुआ दीवान दुबई के म्यूजियम में रखा है।
प्र. आपने कहां तक शिक्षा प्राप्त की है?
उ.-मैंने अपनी शुरूआती तालीम घर में ही हासिल की। घर में मुझे तख्ती पर लिखने की प्रेक्टिस करवाई जाती थी। इस वजह से मेरी लिखाई बहुत अच्छी हो गई। मेरे वालिद ने पर्दे में रखते हुए हम सभी बहनों को तालीम दिलाई।
मैंने मैट्रिक से लेकर एम.ए. तक किया टॉप क्लास में 1974 में। मैंने पीएचडी किया, इसके लिए मैं काहिरा, जॉर्डन, सीरिया, इंग्लैण्ड गई हूं।
प्र.आप दोबारा भारत कब आईं?
उ1-मैं दोबारा 1960 में शादी होकर लखनऊ आई। मैंने बहुत चाहा कि यहां मैं कुछ पढ़ाई कर लूं, मगर मेरे शौहर ने मुझे पढऩे नहीं दिया। इसके बाद 1966 में मैं पाकिस्तान चली गई। वहां मेरे वालिद की तबियत खराब होने की वजह से मैं वालिद की खिदमत करने के लिए रूक गई। इसी वजह से मेरी पहली शादी टूट गई। उस वक्त मेरी उम्र 25 साल थी।
प्र. आपने कुरआन शरीफ पर रिसर्च के साथ और क्या-क्या लिखा?
उ.- मैं अरबी और उर्दू में शायरी भी करती हूं और मेरी एक किताब प्रकाशित हो चुकी है। अरबी में शायरी मेरी बड़ी बहन भी करती हैं, मेरे भाई उर्दू में शायरी करते हैं। मैंने कई किताबों का तर्जुमा किया है। रात को दस बजे से सुबह चार बजे तक बैठ कर मैंने 700 पेज लिखे। उस समय मेरी उम्र बहुत कम थी। यह 1955-56 की बात है।
प्र. कुरआन शरीफ के महत्व को बतायें?
उ.- कुरआन शरीफ को पढऩे और सुनने के आदाब हैं, यह कोई आम किताब नहीं है कि कहीं से भी पढ़ा और कहीं भी छोड़ दिया। हमारे मुसलमान भाई, बहन और बच्चे आज भी कुरआन करीम को इज्जत से सीने से लगाते हैं। यह ऐहतराम हमेशा रहेगा। तिलावत का भी सवाब है, मगर कुरआन शरीफ को समझ कर पढऩा चाहिए। हमको दीनी किताबें बहुत समझ कर पढऩा चाहिए, चाहे वह कुरआन शरीफ हो चाहे हदीस की किताब हो।
प्र. भोपाल आपको कैसा लगा?
उ.- भोपाल मुझे पसंद है। इस सरजमीन पर बहुत ही कशिश है। यहां के लोगों में मिलनसारी, हुस्ने अखलाक, शराफत, मे$जबानी, मुरव्वत बहुत पाई जाती है। मैं जब 1948 में यहां से गई थी, पर आज इतने साल बाद भी मुझे यहां वैसी ही मुहब्बत मिली।
प्र. आज के दौर में औरतों की हालत आपको कैसी लगती है?
उ.-औरतों की हालत में बहुत बदलाव आया है। यहां लड़कियां बहुत तेजी से तालीम हासिल कर रही हैं। यहां तो औरतें कार के अलावा मोटर साइकिल और स्कूटर तक चला रही हैं। आज पढ़ी-लिखी लड़कियां अपने घरबार के फर्ज भी उसी तरह से अंजाम देती हैं जैसे बाहर के काम करती हैं। औरत में हिम्मत और हौसला मर्दों के मुकाबले ज्यादा होता है। अगर औरत ठान ले तो वह बड़े से बड़ा काम भी कर सकती है। औरतों को अपने अमल पर गौर करना चाहिए। तुम्हारा बर्ताव कैसा है। हक मांगना तो सभी जानते हैं, हक देना कौन जानता है।
प्र. बेटियों के लिए आपका क्या संदेश है?
उ.-मेरा यह मानना है कि बेटियों के नाम आगे बाप का नाम जोड़ा जाना चाहिए। शादी के बाद औरतें अपने नाम के साथ शौहर का नाम जोडऩे के बजाये वालिद का नाम जोड़ें। हुजुर सल्ल. ने अपनी बीवियों के नाम के आगे उनके वालिद का नाम ही रहने दिया और अपना नाम कभी भी नहीं जोड़ा।
प्र. भारत से जुड़ी कोई याद जो आज भी आपको याद हो?
उ.- 1981 में मुझे इन्दिरा गांधी ने पन्द्रहवीं सदी हिजरी की तकऱीबात में वाहिद इस्लामी महिला स्कॉलर के रूप में बुलाया था। यह जलसा मौलाना अली मियां की सदारत में हो रहा था। वहां पर मौलाना अली मियां नदवी को प्रोग्राम से जल्दी उठ कर कहीं जाना था इसलिए उन्होंने कहा कि मैं अपनी तकरीर पहले करके चला जाऊंगा। जब वह जाने लगे तो उनकी नजर मुझ पर पड़ी, मैंने उनको सलाम किया। मुझे देख कर वह बोले अरे अतिया बहन आप यहां। मुझे देख कर वह वहां रुक गये और कहा कि अब तो तुम्हारी तकरीर सुन कर ही जाऊंगा।
जब मैंने हाथ में माइक लिया तो किसी ने पूछा कि मोहतरमा तकरीर करने से पहले यह तो बता दें कि अली मियां जाते-जाते कैसे रुक गये। तब अली मियां ने माइक हाथ में लिया और कहाकि यह मेरे मोहसिन, मेरे उस्ताद अल्लामा खलील अरब की आखिरी साहिबजादी हैं और मैं इनकी बहुत इज्जत करता हूं, क्योंकि यह उनकी यादगार हैँ और उनके बताये रास्ते पर चल रही हैं। इसलिए मुझको वापस आना पड़ा। इन्दिरा गांधी ने मुझे बहुत इज्जत दी और बहुत ऐहतराम से मुझे ठहराया गया।
नोट- 5 जनवरी 2016 को दुबई में उनका इंतकाल हो गया था। अल्लाह उनकी मग्फिरत फरमाए। यह साक्षातकार दस वर्ष पूर्व भोपाल प्रवास पर लिया गया था।