उसके पास सब कुछ है। सुख-सुविधा उपलब्ध कराने वाले समस्त साधन। बस एक ही अभाव उसे हर समय खटकता है- मानसिक शांति का अभाव। मानसिक शांति पाने के लिए उसने न जाने कितने प्रयास किए। किंतु हर प्रयास व्यर्थ सिद्ध हुआ।
वर्षों पहले मैंïनेेएक कहानी पढ़ी थी। उसे देखता हूँ तो याद आ जाती है। एक बार उसके जैसा कोई अतिसम्पन्न व्यक्ति किसी महात्मा के घर पहुँचा। महात्मा उस समय ध्यान मग्न थे। वह उनके सामने चुपचाप बैठ गया। महात्मा के चेहरे पर अद्भुत कांति और शांति विराज रही थी। वह एकटक उन्हेंï देखने लगा। उनके मन मेंï एक प्रश्न उठा- ”फूस की कुटिया मेंï रहने वाले इन सर्वत्यागी को ऐसी कौन सी वस्तु मिल गई है, जिससे यह पूर्ण संतुष्ट, पूर्ण शांत और पूर्ण निर्विकार दिखाई देते हैं? इनमेïं ऐसा क्या है, जिसका आकर्षण लोगोंï को यहाँ तक खीïंच लाता है?ÓÓ महात्मा ने पलकेï खोलीï। आगंतुक पर दृष्टि पड़ते ही उनके होठोंï पर एक सरल मुस्कान उभर आई। उन्होंïने आगंतुक से उसका परिचय और आने का प्रयोजन पूछा। व्यक्ति बोला- ”महात्मा जी! मैंï अपार धन-संपत्ति का स्वामी हूँ। ईश्वर की कृपा से मुझे किसी चीज की कमी नहीïं है, लेकिन मेरा मन हमेशा अशांत रहता है। मंैï मानसिक शांति का मार्ग जानने के लिए आपके पास आया हूँ।ÓÓ महात्मा हँस पड़े। बोले- ”यह मार्ग तुम भी जानते हो। तुमने उस पर चलने की कभी चेष्टा ही नहीïं की।ÓÓ व्यक्ति उलझन में पड़ गया। उसने आश्चर्य से पूछा- ”आखिर वह कौन सा मार्ग है, जिसे जानते हुए भी मैंï उसकी खोज मेंï भटक रहा हूँ?ÓÓ महात्मा ने कहा- ”तुम्हारी आँखोïं का लोभ, स्वार्थ, मोह, संचय की प्रवृत्ति और झूठी शान, प्रतिष्ठïा का दिखावा करने की भावना का पर्दा पड़ा हुआ है। जब तक वह हटेगा नहींï, तब तक तुम्हेंï शांति का मार्ग नहीï दिखाई पड़ सकता।ÓÓ व्यक्ति को महात्मा के शब्दोंï ने जैसे झकझोर दिया। उन्होंïने एक और प्रश्न किया- ”अच्छा यह बताओ, यदि एक ही भोजन पत्तल मेंï और सोने-चाँदी के बर्तनोï मेïं परोसा जाए तो क्या उसका स्वाद बदल जाएगा? क्या इससे किसी असाधारण सम्मान या सामाजिक प्रतिष्ठïा की उपलब्धि होती है? जरा सोचो, यह सब करके, क्या तुमने धन का दुुरुपयोग नहीïं किया है? क्या इससे तुम्हेंï मानसिक शांति मिल पाई है?ÓÓ उस व्यक्ति का सिर झुक गया। वह निरुत्तर था। महात्मा बोले- ”भौतिक सुख शरीर के लिए होते हैïं और मानसिक सुख आत्मा के लिए। शरीर की भाँति आत्मा की भी क्षुधा है। क्षुधित आत्मा भोग से नहींï, त्याग से तृप्त होती है। उसकी तृप्ति ही शांति है और अतृप्ति अशांति।
सत्प्रवृत्तियोïं को अपनाओ, स्वार्थ से मुक्त होकर, परमार्थ का चिंतन करो, दूसरोंï की भलाई के लिए त्याग करना सीखो, परोपकार को अपना ध्येय बनाओ, दूसरे के कष्टï मेïं हिस्सेदार बनों, धन का दुुरुपयोग बंद करो, तभी तुम अपने शरीर के अलौकिक, शांति, सुख और संतोष का अनुभव कर सकोगे।ÓÓ महात्मा उसके चेहरे पर उभरते भावोïं को ध्यानपूर्वक पढ़ रहे थे। उन्होंïने अपनी बात जारी रखते हुए कहा- ”जीवन का उद्देश्य केवल धन कमाना, और ऐश करना नहीïं होना चाहिए। धन की तृष्णा मृग मरीचिका की भाँति तुम्हेïं जीवन भर भटकाती रहेगी।ÓÓ
– सैफ मलिक