मिर्जा गालिब के दादा मुगल बादशाही के आखिरी जमाने में ईरान से भारत आए। उनके खानदान को इस मुल्क में मुनासिब मर्तबा मिला। गालिब सन् 1797 में आगरा में पैदा हुए। दादा, बाप और फिर चचा की मौत की वजह से गालिब बचपन में ही बडी हद तक तन्हा रह गए। इनके नाना ने इनकी परवरिश की। 13 साल की आयु में इनका विवाह दिल्ली के एक प्रतिष्ठित नवाबी परिवार में हो गया। विवाह के कुछ समय बाद गालिब आगरा से दिल्ली आ गए और फिर जीवन की अंतिम सांसों तक वहीं रहे। गालिब के अंतिम दिन लम्बी बीमारी के कारण तकलीफ में बीते, परंतु इनके मिजाज की शोखी और मन की ताजगी अंतिम समय तक बरकरार रही।
गालिब को आमतौर पर उर्दू का सबसे बडा शायर कहा जाता है। फारसी शायरी में भी गालिब का मर्तवा बहुत बुलंद हैं जिंदगी के एक बडे हिस्से में गालिब ने उर्दू में बहुत कम कहा। फिर जवानी और लडकपन का बहुत सा उर्दू कलाम उन्होंने अपने दीवान में शामिल भी नहीं किया लेकिन आज दुनियां जिस गालिब को उर्दू का सबसे बडा शायर मानती हे वो इसी छोटे से दीवान में जलवागर है।
गालिब की शायरी के बारे मे दो बातें बहुत मशहूर हैं। एक तो यह कि वह फलसफी शायर थे और दूसरी यह की उनका कलाम बहुत मुश्किल है। परंतु इन बातों को पूरी तरह सच समझने से गालिब के बारे में बहुत सी गलत फहमियां पैदा हो सकती हैं। गालिब इस मायने में फलसफियाना (दार्शनिक) शायर जरूर है कि इनके कलाम में जिन्दगी और कायनात की बहुत सी नाजुक और बारीक बातों की तरफ इशारे मिलते हैं। यह भी सही है कि गालिब यहां फिक्र का पहलू ज्यादा नुमायां है और जज्बात का काम उनकी शायरी एक हस्सास और सोचने वाले जहन के विभिन्न अनुभवों का प्रतिबिम्ब है।
यह भी सही है कि गालिब का कलाम खासा मुश्किल है और उनका शुरू का कलाम ज्यादा ही मुश्किल है। गालिब का कलाम दरअसल इसलिये मुश्किल लगता है कि इनके यहां मानों (शब्दार्थ) की कसरत (बहुतायत) है। अगरचे गालिब ने उर्दू शायरी में एक ऐसे तर्ज की बुनियाद डाली जो अपने जमाने में नया था अैर आज भी नया मालूम होता है। लेकिन जबान को बरतने का तरीका उन्होंने बहुत हद तक मीर से सीखा। 15 फरवरी 1869 को गालिब इस फानी दुनिया से विदा हो गए और अपने पीछे शायरी का शानदार और यादगार खजाना छोड गए।
उर्दू अदब में गालिब वो अकेले व्यक्ति हैं जिन्हें नज्म (काव्य) और नसर (पद्य) दोनों में समान महारत हासिल थी। गालिब ने अपने खतों में इल्मी (शैक्षिक) और अदबी (संदिपिका) मामलात पर बहुत ही साफ और रवां जबान में इजहारे ख्याल किया है।
गालिब ने 1849 के आसपास उर्दू में खत लिखना शुरू कियां कुछ ही दिनों में इनकी शैली की धूम मच गई और आखिर आखिर में इनके खतों के दो मजमुए (संकलन) उनकी जिन्दगी में ही प्रकाशित हो गए। उस वक्त से लेकर आज तक गालिब के खत उर्दू साहित्य मे आला शाहकारों की सूची में शामिल हैं।
0 सैफ मलिक
मिर्जा गालिब की दो गजलें
(1)
आह को चाहिए एक उम्र असर होने तक
कौन जीता है तिरी जुल्फ के सर1 होने तक
दाम2 हर मौज में है, हल्कः-ए-सदकामे-नहंग3
देखें क्या गुजरे है कतरे4 पे गुहर5 होने तक
आशिकी सब्र-तलब6 और तमन्नः बेताब
दिल का क्या रंग करूं, खूने-जिगर होने तक
हमने माना कि तगाफुल7 न करोगे लेकिन
खाक हो जाएंगे हम तुमको खबर होने तक
गमे-हस्ती8 को ’असद‘ किससे हो जुज-मर्ग-इलाज9
शम्अ हर रंग में जलती है सहर होने तक
शब्दार्थ ः 1-सुलझने तक, 2-जाल, 3- मुंह खोले हुए मगरमच्छ, 4-पानी की बूंद, 5-मोती, 6-धीरज मांगना, 7-आना-कानी, 8-जिन्दगी के गम, 9-इलाज सिवा मौत
(2)
फिर मुझे दीदः-ए-तर1 याद आया
दिल जिगर तिश्नः-ए-फरियाद2 आया
जिन्दगी यूं भी गुजर ही जाती
क्यों तिरा राहगुजर याद आया
फिर तिरे कूचे को जाता है खयाल
दिले-गुमगश्तः3 मगर याद आया
कोई वीरानी सी वीरानी है
दश्त4 को देखके घर याद आया
दम लिया था न कयामत ने हनोज5
फिर तिरा वक्ते सफर याद आया
क्या ही रिजवां6 से लडाई होगी
घर तिरा खुल्द7 में गर याद आया
मैंने मजनूं पे लडकपन8 में ’असद‘
संग9 उठाया था कि सर याद आया
शब्दार्थ ः 1-भीगी हुई आंखें, 2-प्यास की पुकार, 3-खोया हुआ दिल, 4- वीराना, 5-अभी तक, 6-चैकीदार, 7-स्वर्ग, 8-बचपन, 9-पत्थर