मीर तकी मीर का जन्म सन्ï 1724 में आगरा में हुआ। मीर मोहम्मद तकी इनका नाम और मीर तख्ल्लुस था। मीर के पिता का नाम मीर अब्बदुल्ला था। कुछ लोगों ने इनका नाम अली मुत्तकी बताया है। मीर की तालीम और तर्बियत में इनके पिता और पिता के मुरीद सै. अमान उल्ला का बड़ा हिस्सा रहा। मीर तकी मीर अमान उल्ला को चचा कहते थे। दस साल की उम्र में मीर के पिता का देहांत हो गया, पिता के देहांत के बाद मीर के सौतेले बड़े भाई हाफिज मोहम्मद हसन ने उनके साथ बहुत दुव्र्यवहार और निर्दयता का व्यवहार किया जिससे तंग आकर वो दिल्ली चले आये और उन्हीं बड़े भाई के मौसा सिराजउद्दीन अली खाँ आरजू् के यहां ठहरे। खान आरजृू ने भी मीर के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया। मीर दुखी दिल के साथ आगरा वापस चले गये। कुछ समय वहां रहने के बाद फिर वापस दिल्ली चले आये। दिल्ली में मीर की जि़न्दगी बड़े रंजो गम एवं परेशानियों में गुजऱी। एक तो उनकी ज़ाती परेशानियां ऊपर से दिल्ली जिसे वो अपना वतन समझते थे और जिससे उन्हें भावनात्मक लगाव था उसकी तबाही व बर्बादी उन्होंने अपनी आंखों से देखी। दिल्ली की यह तबाही उनको हमेशा परेशान करती रही। दिल्ली के उजडऩे के बाद मीर लखनऊ चले गए। वहां नवाब आसिफुद्दौला ने इनका बड़ा आदर और सत्कार किया। लेकिन दिल्ली की मोहब्बत और वहां गुजारे दिनों की याद उनके दिल से कभी दूर न हुई। मीर ने उम्र का बाकी हिस्सा लखनऊ में ही गुजारा और सन्ï 1810 में देहांत के बाद उनको वहीं दफन किया गया।
वो एक वास्तविक शायर और फने शायरी के पूर्णरूपेण उस्ताद शायर थे। उनके जमाने से लेकर आज तक बड़े-बड़ेे शायरों और आलोचकों ने उनकी महानता को स्वीकार किया। सौदा, जौक और ग़ालिब जैसे बड़े उस्तादों ने उन्हें बधाई प्रस्तुत की। मीर बहुत ज्यादा कहने वाले और कलाम पर कु़दरत रखने वाले शायर थे। उर्दूू में उनके छै: दीवान हैं इनके अलावा उन्होंने जिक्रे मीर के नाम से पारसी में अपनी आपबीती भी लिखी और नुकातुल शोअरा के नाम से उर्दू शायरों की जीवनी भी लिखी जो संयोग से उर्दू शायरों की सबसे पहली जीवनी मानी जाती है।
मीर ने काव्य की हर विधा में तबियत को आजमाया है, लेकिन उनका अस्ल मैदान गजल है। इनकी वास्तविक महानता और लोकप्रियता का कारण इनकी गजलिया शायरी है । मीर की गजलें इनकी जि़न्दगी और उनके काल का ख़ाक़ा खींचती हैं। उन्होंने अपनी जिन्दगी और अपने माहौल का मातम दर्दो गम अपनी गजलों में समो दिया है। वो कहते हैं,,,,,,,,,,,,,,
मुझको शायर न कहो मीर के साहब मैंने
दर्दों गम कितने किये जमा तो दीवान किया।
ये दर्दो ग़म मीर की जि़न्दगी की नाकामियों के भी थे और दिल्ली की तबाही और बर्बादी के भी। यही वजह है कि मीर की शायरी को दिल और दिल्ली के मरसिये कहा गया है। मीर के शेरों में जो जलाने व पिघलाने का असर एवं प्रभाव है वो किसी दूसरे शायर के यहां नजर नहीं आता। उनकी बात दिल से निकलती है और दिल की गहराईयों में उतर जाती है। इसी स्थिति के कारण उनके अशआर को नश्तर कहा जाता है। दिली जज़्बात व महसूसात को उन्होंने सीधी-साधी जबान और आम बोलचाल के लहजे में इस फनकारी के साथ बयान किया है कि उनकी आपबीती जगबीतीऔर उनका गम जमाने भर का गम मालूम होता है। सादगी में बेमिसाल और फनकारी की बदौलत उनके गजलें जनसाधारण एवं विशेष दोनों में एक जैसी लोकप्रिय हैं।
मीर तकी मीर की गजलें
पत्ता पत्ता, बूटा बूटा हाल हमारा जाने है
जाने न जाने गुल ही न जाने बाग़ तो सारा जाने है
चार: गरी1 बीमारिये-दिल की, रस्मे-शहरे-हुस्न2 नहीं
वरना दिलबरे बरे-नादॉ भी, इस दर्द का चारा जाने है
महर-ओ-वफा-ओ लुत्फ-ओ-इनायत3 एक ये वा$िकफ इन में नहीं
और तो सब कुछ तंज-ओ-किनाया4 रम्ज-ओ-इशारा5 जाने है
क्या क्या फ्रि़तने सर पार उसके लाता है माशूक़ अपना
जिस बेदिल, बेताब-ओ-तवाँ को6, इश्क का मारा जाने है।
शब्दार्थ:- 1- इलाज, 2- सौंदर्य के शहर की रीत, 3-महरबानी, मुहब्बत, खुशी, दया, 4- व्यंग्य, 5- इशारे, 6- निर्बल, कमजोर।
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फकीराना आए, सदा कर चले
मियॉ खुश रहो, हम दुआ कर चले
दिखाई दिये यूँ कि बेखुद किया
हमें आप से भी जुदा कर चले
जो तुझ बिन न जीने को कहते थे हम
सो इस अहद को अब $फा कर चले
जबीं सज्द: करते ही करते गई
हक़े- बन्दगी हम अदा कर चले
परस्तिश की याँ तक कि ऐ बुत तुझे
नजर में सभों की खुदा कर चले
बहुत आरजू़ थी गली की तिरी
सो याँ से लहू में नहा कर चले
कहें क्या जो पूछे कोई हम से ‘मीरÓ
जहां में तुम आए थे, क्या कर चले
अशआर
उलटी हो गईं सब तदबीरें कुछ न दवा ने काम किया।
देखा इस बीमरी-ए-दिल ने आखिर काम तमाम किया॥
अहदे जवानी रो-रो काटा पीरी में लीं आंखें मूंद।
यानी रात बहुत थे जागे, सुबह हुई आराम किया।