डा असलम शेख साहब पिछले दिनों भोपाल आये, इस मौके पर रईसा मलिक ने उनका साक्षात्कार लिया। प्रस्तुत है उनसे बातचीत-
सवाल- असलम शेख साहब आप अपने बारे में कुछ बताईये?
जवाब- मैं तालीम (शिक्षा) और तरबियत (प्रशिक्षण) से जुड़ा रहा हूं। मेरी तालीम मोहम्मद हाजी साबू सिद्दीक स्कूल से हुई जो कि अंजुमन इस्लाम मुम्बई की एक शाख है। मैंने इंजीनिरिंग भी वहीं से की। मेरे वालिद (पिता) भी एक तालीम से जुड़े हुए शख्स (व्यक्ति) थे। मेरे वालिद ने असिस्टेंट प्रिंसिपल और प्रिसिंपल के तौर पर काम किया। तालीम (शिक्षा) मुकम्मल (पूर्ण) करने के बाद मैंने बतौर सब इंजीनियर BEST में काम किया, इसके बाद में नगर निगम मुम्बई में सब इंजीनियर रहा। इसके बाद में एक इलेक्ट्रिकल प्रोजेक्ट के लिए सऊदी अरब चला गया लेकिन मुझे वहां के हालात पसंद नहीं आये, और मैं वहां से तीन महीने में ही वापस लौट आया।
इसके बाद जिस कॉलेज से मैंने पढ़ाई की थी तो मैं वहां गया तो वहां मेरी मुलाकात प्रिंसपल के. हुसैन साहब और सुपरवाइज़र मरहूम अब्दुल कय्यूम साहब से हुई। उन्होंने पूछा कि आजकल क्या कर रहे हो, तब मैंने उनसे बताया कि मैं अपनी सरकारी नौकरी छोड़कर अरब चला गया था और अब वहां से लौटकर आ गया हूं। तब उन्होंने मुझसे कहा कि तुम एक इंजीनियर हो क्यों न हमारे कॉलेज में ही बच्चों को पढ़ाना शुरू कर दो। चूंकि मेरे वालिद भी तालीम से जुड़े थे तो मुझे लगा कि मैं भी इस काम से जुड़ जाऊं। 1984 में मैं कॉलेज में लेक्चरर बन गया। मेरे पढ़ाये हुये बच्चे आज इंजीनियर बनकर दुनिया के कोने-कोने में पहुंच चुके हैं।
14 साल लेक्चरर रहने के बाद मुझे प्रिंसपल की पोस्ट (पद) संभालने का मौक़ा मिला। उस वक्त के हमारे कॉलेज की सोसायटी के प्रेसीडेंट थे इश्हाक जमखाना वाला साहब जो मंत्री और एक मशहूर (प्रसिद्ध) शख्सियत (व्यक्ति) भी थे। उनकी सरपरस्ती (मार्गदर्शन) में अंजुमन इस्लाम ने बहुत तरक्क़ी की। साबू सिद्दीक अंजुमन इस्लाम में मेरी 36 साल खिदमात (सेवाएं) रहीं। इस दौरान अवॉर्ड याफता पद्मश्री डॉ ज़हीर क़ाज़ी साहब के साथ 15 साल बतौर प्रिंसिपल अंजुमन इस्लाम में काम किया। उस दौरान टेक्रिकल फील्ड (तकनीकि क्षेत्र) में होने की वजह से अदबी (साहित्य) मैदान (क्षेत्र) में अपनी खिदमात (सेवाएं) नहीं पेश कर सका।
रिटायरमेंट के करीब मेरे ताल्लुकात (संबंध) कुछ उर्दू दां लोगों से हुए जिनमें डॉ. अलाउद्दीन साहब थे जो एक अखबार निकालते थे ‘अवामी राय’, मैंने उनके अखबार को आगे बढ़ाने के लिए उनकी बहुत मदद की। इसके बाद हमारे एक दोस्त सरफराज़ साहब जो कि ‘हिन्दुस्तान अखबार के थे उनसे बातचीत हुई। फारूक सैय्यद साहब जो कि बच्चों का रिसाला (पत्रिका) ‘गुल-बूटे’ निकालते थे। इन सब लोगों के साथ मैं जुड़ा, इसके बाद उर्दू मरकज़ के साथ जुड़ा। ये सभी लोग मुम्बई में उर्दू अदब के मैदान में बहुत नाम रखते हैं। मैं इस्लाम जिम खाने में जाने लगा। अंजुमन इस्लाम में होने वाले उर्दू प्रोग्रामों में मैं शामिल होने लगा। तो मुझे उर्दू से बहुत लगाव हो गया। ‘उर्दू आंगन’ रिसाले (पत्रिका) के एडिटर (संपादक) इम्तियाज़ गोरखपुरी साहब थे और ये रिसाला बहुत मकबूल (लोकप्रिय) हुआ, इसकी शोहरत (प्रसिद्धि) आलमी सतह (अंतर्राष्ट्रीय स्तर) तक पहुंची। इन सब चीज़ों से जुड़कर तो मुझे उर्दू अदब से बहुत लगाव हो गया, और मैं उर्दू दोस्त बन गया और मुझे ऐसा लगा कि जु़बान और अदब की ख़िदमत करना चाहिए।
सवाल-आपकी 36 साला ख़िदमात को देखते हुए आपको हाल ही में एजाज़ी डॉक्टरेट की डिग्री से नवाज़ा गया। इसके बारे में आप क्या कहना चाहेंगे?
जवाब- मैं बहुत शुक्रगुज़ार हूं भोपाल की अवाम का जो मुझे यहां पर इतना बड़ा सम्मान मिला। भोपाल शहर तो अदब का गहवारा माना जाता है। इस भोपाल में मुझे इस सम्मान से नवाज़ा गया और मेरी तालीमी ख़िदमात को देखते हुए मेरे सोशल और कल्चरल मैदान में काम को लेकर मुझे जो एजाज़ी डॉक्टरेट दी गई उसके लिए मैँ सभी का शुक्रिया अदा करता हूं।
मैं मुम्बई की ‘लाइफ केयर फाउंडेशन’ का जनरल सेक्रेट्री हूं जिसके ज़रिये हम लोगों की भलाई के लिए काम कर रहे हैं। मैं एक केंसर फाउंडेशन से भी जुड़ा हूं। यही सब वजह है कि मुझे इस एजाज़ (उपाधि) से नवाज़ा गया।
सवाल- उर्दू अदब की खिदमत के लिए आप आगे और क्या करना चाहते हैं?
जवाब- फिरोज़ कमाल साहब जबलपुर में ‘कमाल पब्लिकेशन’ चलाते हैं, उनके साथ में भोपाल आया। इम्तियाज़ गोरखपुरी साहब जो कि ‘उर्दू आंगन’ के एडिटर हैं उसके ‘इकबाल नम्बर’ का इजरा (विमोचन) भोपाल में किया गया। कौसर सिद्दीकी साहब ने परचम तराना बनाया, उस कार्यक्रम में रूमी जाफरी साहब भी मौजूद थे। इस तरह मैं यहां के लोगों से जुड़ा।
ये मेरा शौक और ज़ौक़ था जो मुझको यहां तक लेकर आया। आपके चैनल और मैग्ज़ीन के ज़रिये मैं यह कहना चाहूंगा कि हमको जब उर्दू का शौक़ और ज़ौक हुआ तब हमने ‘याराने उर्दू मुम्बई’ एक संस्था बनाई और इस संस्था का मकसद उर्दू अदब को आगे बढ़ाने के लिए काम करना है। शायरों और अदीबों की हौसला अफ़ज़ाई करना, उर्दू अदब को बढ़ावा देने के लिए इतना मज़बूत काम करना है कि जो भी मुश्किलेंं उर्दू अदब से जुड़े हुये शायरों या सहाफियों (पत्रकारों) को पेश आती हैं उसमें हम उनकी मदद कर सकें। ये मेरी कोशिश है कि मैं इल्मो अदब की दुनियां में चार चांद लगा दूं और मैं वो काम करूं जो कि कुछ अलग हट कर हो। इस काम को करने के लिए नेक-नियती का होना बहुत ज़रूरी है। देखने में आया हैं कि कुछ लोग सिर्फ नाम के लिए मुशायरा, किताबों का इजरा (विमोचन) या प्रोग्राम (कार्यक्रम) कर देते हैं, इससे उनकी कोशिशें वहीं तक मेहदूद (सीमित) हो जाती हैं। इससे उर्दू अदब को आगे बढ़ाने का काम नहीं हो सकता।
कुछ लोगों को ऐसा भी लगता है कि उर्दू उनकी वजह से जि़न्दा है, लेकिन ऐसा नहीं है। उर्दू अपनी अन्दर की ताकत से जि़न्दा है। उर्दू ज़बान में ऐसी मिठास है जो हर इन्सान की जि़न्दगी का हिस्सा बन गई है। उर्दू को आज रोज़गार से जोड़ा जा रहा है। मैं ये कह सकता हूं कि उर्दू मर नहीं सकती, मिट नहीं सकती। मुशायरे और मकाले (लेख) उर्दू ज़बान को जि़न्दा रखते हैं। जो लोग उर्दू अदब की खिदमत (सेवा) कर रहे हैं उनको मैं सलाम करता हूं। उर्दू के लिए लोगों में एहसास जगाने की ज़रूरत है। आज उर्दू ज़बान सिमट रही है हाशिये पर आ रही है लेकिन उर्दू ज़बान कभी खत्म नहीं हो सकती। हमको उन इलाकों को देखना है जहां उर्दू हाशिये पर जा रही है और कोशिश करना है कि उन इलाकों में भी हम उर्दू को बढ़ावा दें।
सवाल- हमारे नई पीढ़ी के बच्चों को उर्दू पढ़ाई जाए ऐसी कोशिश उनके वालदेन को करनी चाहिए इस बारे में आप कुछ कहना चाहेंगे?
जवाब- इस बारे में मैं ये कहूंगा कि पहले के ज़माने में उर्दू जो इतनी मज़बूत थी उसकी एक वजह उर्दू मीडियम स्कूलों का होना था। हम लोगों ने उस ज़माने में उर्दू मीडियम में ही तालीम हासिल की है। हम लोगों ने उर्दू लिट्रेचर (साहित्य) में बी.ए., एम.ए. नहीं किया। उस दौर में हमारे साथ पढ़ने वाले कई साथी आज बड़े-बड़े मशहूर डॉॅॅॅॅॅॅक्टर्स, इंजीनियर, और बड़े ओहदों (पदों) पर हैं, इन सभी ने उर्दू मीडियम में ही बुनियादी तालीम हासिल की थी। इसलिए हम यह नहीं कह सकते कि उर्दू की वजह से लोगों का मुस्तक़बिल (भविष्य) खतरे में है। लेकिन आजकल के माँ-बाप का सोचना है कि उर्दू ज़बान से बच्चों को कामयाबी नहीं मिलेगी। इसी सोच की वजह से आज उर्दू मीडियम स्कूल खत्म होते जा रहे हैं। यह हम सबकी जि़म्मेदारी बनती है कि हम अपने बच्चों को उर्दू की बुनियादी तालीम दें। इस सिलसले में हमने एक कोशिश की है कि उर्दू मीडियम स्कूलों में बाकी सभी सब्जेक्ट (विषय) भले ही इंग्लिश मीडियम में पढ़ाये जायें, लेकिन उर्दू एक सब्जेक्ट (विषय) के तौर पर ज़रूर बच्चे पढ़ें। अगर ऐसा होता है तो उूर्द ज़बान उसकी मादरी ज़बान (मातृभाषा) होने के नाते उनके बीच बनी रहेगी और उनके बोलचाल, रहन-सहन में एक अलग ही कशिश (आकर्षण) होगी।
मैं मां-बाप से गुज़ारिश करता हूं कि वो घर में बच्चों से उर्दू जु़बान में ही बातचीत करें। घरों में उर्दू अखबार मंगायें ताकि बच्चे पढ़ें और उनका ताल्लुक उर्दू से बना रहे। मोहल्लों में लायब्रेरियों में उर्दू की किताबें पढ़ने को मिल सकें। मैं सभी लोगों से गुज़ारिश करूंगा कि अपने बच्चों की बुनियादी तालीम उर्दू में करवायें।
सवाल- आगे आने वाले वक्त के लिए आपने क्या प्लानिंग (योजना) बनाई हैं?
जवाब- हम लोगों ने जो संस्था याराने उर्दू मुम्बई बनाई उसके ज़रिये हम एक मैग्ज़ीन (पत्रिका) निकालेंगे, जिसके एडिटर (संपादक) जनाब इम्तियाज़ गोरखपुरी साहब होंगे। इस मैग्ज़ीन में हम और भी अच्छे लोगों को जोड़ेंगे। हमने भोपाल में कौसर सिद्दीकी साहब से उर्दू अदब के बारे में काफी बातचीत की वो भी हमारी टीम का हिस्सा रहेंगे। हम चाहते हैं कि एक ऐसी अच्छी मैग्ज़ीन निकालें जो लोगों तक पहुंचे और उनको इससे फायदा हो।
हमारी यह मैग्ज़ीन हम सिर्फ उर्दू अदब (साहित्य) को फरोग (बढ़ावा) देने के लिए निकाल रहे हैं और इसमें हम किसी से कोई मदद नहीं ले रहे हैं। हम सब मिल कर उसको निकालेंगे। हम स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों को भी ये मैग्ज़ीन मुफ्त में देंगे ताकि वो पढ़ें और उर्दू को बढ़ावा मिल सके।