मोहम्मद अलवी अहमदाबाद के रहने वाले हैं। आधुनिक कवियों में वो अपने अंदा$ज और शैली से अलग पहचान रखते हैं। इनको गजल एवं नज़्म दोनों पर समान अधिकार है। इनकी गं्रथावली भी प्रकाशित हो चुकी है। वो साधारणत: छोटी बहरों में शेर कहते हैं। इनकी भाषा नर्म, सादा और समझने योग्य होती है, लेकिन इनके अशआर में जिंदगी के अनुभवों का कोई अनोखा पहलू सामने आता है। इनकी अधिकांश नज़्मों में गुजररात के मध्यम वर्ग की घरेलू फि$जा और रोजमर्रा की जिन्दगी का अक्स मिलता है। कहीं-कहीं तो वो आशाओं को पलट देते हैं और विस्मय का वातावरण पैदा कर देते हैं। आधुनिक शायरी के परिदृश्य पर वो अपने नर्म और धीमे अशआरों से अलग पहचाने जाते हैं। – सैफ मलिक
मोहम्मद अलवी की नज़्म
कभी दिल के अंधे कुएं में
पड़ा चीखता
कभी दौड़ते खून में
तैरता – डूबता
कभी हड्डिïयों की सुरंगों में बत्ती जला कर
यूं ही घूमता है
कभी कान में आके
चुपके से कहता है, तू अब तलक जी रहा है
बड़ा बे हया है . . .
मेरे जिस्म में कौन है यह
जो मुझसे खफ़़ा है।