यासर अराफात अब हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी पार्थिव अनुपस्थिति दुनिया को उनके होने, उनकी महत्ता और उनकी प्रासंगिकता की ओर ज्यादा शिद्दत से याद दिलाती है। यासर अराफात विश्व इतिहास के उन विरल व्यक्तियों में एक हैं, जो अपने जीवन में युद्ध और शांति से एक साथ और साथ ही बेहद संजीदगी से जुड़े रहे। प्रयोजन के प्रति गहरी प्रतिबद्धता, जीवट, जोखिम उठाने का माद्दा और अपराजेय मनोबल यासर अराफात को विश्व इतिहास में उन पांक्तेय- योद्धाओं में प्रतिष्ठित करते हैं, जो सदियों के अंतराल में जन्म लेते हैं।
इसे विडंबना ही कहेंगे कि 75 वर्षीय यासर ने 11 नवंबर 2004 को फिलिस्तीन से सैकड़ों मील दूर फ्रांस की राजधानी पेरिस में आँखें मूंदीं। यही नहीं, पेरिस के एक अस्पताल में कई दिन अचेत रहने के बाद उनकी मृत्यु हुई। अगर्चे यासर का बस चलता तो वे अपने वतन से दूर पेरिस में बिस्तर पर मरने के बजाय लाम पर जूझते हुये अथवा रामल्ला में अपने मुख्यालय में काम करते हुये मरना पसंद करते। यासर की दिली ख्वाहिश थी कि उन्हें फिलिस्तीनी धरती पर शहीद की मौत नसीब हो। ऐसा हो नहीं सका। उन्हें उस शहर (पेरिस) में मौत ने अपने आगोश में लिया, जहां पिछले दशक में उनकी बेटी का जन्म हुआ था। और यासर के शव को रामल्ला में सुपुर्दे खाक के पूर्व उस शहर (काहिरा) में ले जाया गया, जहां उन्होंने आँखें खोली थीं।
अपने जीतेजी किंवदंती बने यासर अराफात का जन्म 4 अगस्त, सन् 1929 को काहिरा में हुआ था। उनके पिता व्यापारी थे और यासर के जन्म से करीब दो साल पहले फिलिस्तीन से पलायन कर मिस्र की राजधानी काहिरा में आकर बस गये थे। यासर अराफात के नाम से चर्चित शख्सियत का पूरा नाम था मोहम्मद अब्दुल रऊफ अराफात अल कुदवा अल हुसैनी। सन् 60 के दशक में वे पहले पहल सुर्खियों में तब आये, जब उन्होंने अल-फतह नामक छापामार संगठन की नींव डाली। यह गुरिल्ला संगठन जल्द ही फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन की धुरी बनकर उभरा। 4 फरवरी, सन् 1969 को अराफात ने फिलिस्तीनी मुक्ति संगठन (पीएलओ) की कमान अपने हाथों में ले ली। स्वतंत्र फिलिस्तीन राष्ट्र की स्थापना के प्रयोजन की पूर्ति के लिये पीएलओ ने इजरायल के खिलाफ अपनी आक्रामक गतिविधियां तेज कर दीं। यासर का धारीदार स्कार्फ देखते ही देखते उनकी पहचान बन गया। वे परिदृश्य में तेजी से उभरे और लाखों फिलिस्तीनियों के दिलोदिमाग पर छा गये। उनकी ख्याति ने सरहदें लांघीं और वे विश्व नेता बन गये। नतीजतन 13 नवंबर 1974 को उन्हें संयुक्त राष्ट्र महासभा को संबोधित करने का गौरवशाली अवसर मिला। इस अवसर का उपयोग उन्होंने अपनी अवधारणा के प्रसार में किया। इसके पूर्व सन् 1972 में म्यूनिख ओलंपिक में इजराायली एथलीटों की हत्या और सन् 73 में सूडान में दो अमरीकी राजनयिकों का कत्ल कर फिलिस्तीनी छापामारों ने चतुर्दिक सनसनी फैला दी थी। पीएलओ की आक्रामक गतिविधियों से समूचा पश्चिम एशिया अशांति और अराजकता की चपेट में आ गया। इजरायल ने फिलिस्तीनी छापामारों के ठिकानों को नष्ट करने के लिये 6 जून, 1982 को लेबनान पर बड़े पैमाने पर धावा बोल दिया। बेरूत पर इजरायली घेरे के दरम्यान अराफात को अपूर्व कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। उन्हें करीब दो माह तलघर में बिताने पड़े, मगर इससे उनके मनोबल पर आँच नहीं आयी। वे मौत को चकमा देते रहे। मौत से आँख मिचौनी का यह दौर लंबा चला। 1 अक्टूबर, 1985 को इजरायली विमानों ने टयुनिस (टयूनीशिया) में पीएलओ मुख्यालय पर जबर्दस्त बमबारी की, अराफात इस हमले में बाल-बाल बचे। एक ओर तो वे इजरायल के खिलाफ छापामार गतिविधियों का कुशलतापूर्वक संचालन करते रहे, दूसरी ओर स्वतंत्र फिलिस्तीनी राष्ट्र की स्थापना के पक्ष में माहौल बनाने के लिये वे राजनयिक स्तर पर खासे सक्रिय रहे। इसके फलस्वरूप अनेक राष्ट्राध्यक्षों और राजनयिकों से उनके घनिष्ठ और अंतरंग संबंध स्थापित हुये। इन संबंधों ने फिलिस्तीन और फिलिस्तीनियों के प्रति विश्वव्यापी सदाशयता निर्मित करने में कारगर भूमिका निभायी।
यासर अराफात विश्व इतिहास में ऐसे बिरले योद्धा के तौर पर याद किये जायेंगे, जिन्होंने युद्ध और शांति की प्रक्रिया में समान रूप से गहरी शिरकत की। एक हाथ में बंदूक और दूसरे हाथ में श्वेत कपोत ने उनकी लासानी छवि निर्मित की। सन् 70 या सन् 80 के दशक में कोई सोच भी नहीं सकता था कि इजरायल के खिलाफ जेहाद को तत्पर इस जांबाज गुरिल्ला योद्धा को शांति का नोबल पुरस्कार भी मिल सकता है। दिलचस्प बात यह है कि अराफात को यह नोबल पुरस्कार सन् 94 में तत्कालीन इजरायली प्रधानमंत्री यित्जाक रॉबिन और विदेश मंत्री सिमोन पेरेस के साथ संयुक्त रूप से मिला। वस्तुत: सन् 80 के दशक का उत्तराद्र्ध यासर की सोच में आधारभूत विचलन का सबब बना। सन् 1988 में दिनांक 12 दिसंबर को यासर ने इजरायल के अस्तित्व के अधिकार को मान्यता दी और इसी रोज आतंकवाद को छोडऩे का ऐलान किया। इससे यासर की छवि को नया आयाम मिला और अपने अभीष्ट की सिद्धि में सहायता भी मिली। यासर की छवि में तब और परिवर्तन आया, जब 13 सितंबर, 1994 को वाश्ंिागटन में फिलिस्तीन की स्वायत्तता के मसविदे पर इजरायल और पीएलओ ने दस्तखत किये। इसके पूर्व 1 जुलाई, 94 को यासर के जीवन में वह ऐतिहासिक मर्मस्पर्शी क्षण आ चुका था, जब उन्होंने 26 सालों के निर्वासित जीवन के उपरांत फिलिस्तीन की धरती पर पाँव धरे थे। अपनी सोच में परिवर्तन और आचार में उदारता से वे हमास और कट्टरपंथी फिलिस्तीनियों की आँखों की किरकिरी भी बने, लेकिन इतिहास की अंर्तधारा को बखूबी बूझ चुके यासर ने इन तत्वों की ज्यादा चिंता नहीं की। नवंबर 91 में उन्होंने अपनी 28 वर्षीय सेक्रेट्री सूहा से टयूनिस में शादी की। बाद के वर्षों में वे शांति और राजनय के जरिये स्वतंत्र फिलिस्तीन की स्थापना को सचेष्ट रहे। अमरीकी राष्ट्रपति बिल क्लिंटन के काल में उन्होंने इस ओर तेजी से डग भरे। सन् 2000 में वह क्षण नजदीक था, जब उनका फिलिस्तीन राष्ट्र का सपना साकार हो सकता था। बिल क्लिंटन की मध्यस्थता में संपन्न शिखरवार्ता में इरुजरायली प्रधानमंत्री एहुद बराक ने उनके सम्मुख अधिकांश पश्चिमी तट और गाजापट्टी देने की पेशकश की। यासर इस क्षेत्र का कोई भी हिस्सा इजरायल को देने को तैयार नहीं थे। इस पर बराक ने नरमी बरतते हुये संपूर्ण गाजा और 97 फीसदी पश्चिमी तट देने का प्रस्ताव रखा। इस प्रस्ताव पर सहमति के आसार बन ही रहे थे कि क्लिंटन और बराक की विदाई हो गयी। नतीजतन स्थायी शांति का सपना अधूरा रह गया।
यासर अराफात का इसके बाद का समय कठिनाइयों में बीता। हथियारबंद फिलिस्तीनी गुटों पर उनका नियंत्रण शनै: शनै: शिथिल होता गया। आत्मघाती फिलिस्तीनी दस्तों की कार्रवाई से इजरायल थर्रा उठा। यासर जब लगाम खींचने में विफल रहे तो इजरायल ने जवाबी कार्रवाई कर अधिकांश फिलिस्तीनी क्षेत्र पर कब्जा कर लिया। फलत: अराफात रामल्ला में अपने मुख्यालय में फँस गये। अब वे इजरायल के रहमोकरम पर थे। अप्रैल, 2003 में अराफात के सहायक महमूद अब्बास के फिलिस्तीन का प्रधानमंत्री बनने के बाद जून में जब अमरीकी राष्ट्रपति बुल्ला और इजरायली नेता एरियल ल्लोरोन ने पश्चिम एशिया में शांति का ‘रोडमैपÓ प्रस्तुत किया, तो अराफात से वार्ता करने के बजाय अब्बास से चर्चा करना पसंद किया। अराफात की हैसियत रामल्ला में अब पिंजड़े में कैद बूढ़े शेर सरीखी थी। उनका सपना अभी भी अधूरा था। अक्टूबर में उनकी तबियत बिगड़ती गयी। यद्यपि वे रामल्ला छोडऩा नहीं चाहते थे, किन्तु हालत बेहद नाजुक होने पर 29 अक्टूबर को उन्हें उपचार के लिये पेरिस ले जाया गया। यहां वे प्राय: मूच्र्छा में रहे और अंतत: 10 नवंबर को अपने वतन से दूर वतन और आजादी का सपना आँखों में सँजोये इस जाँबाज योद्धा ने आखरी साँस ली। यासर अराफात लाखों फिलिस्तीनियों और स्वातंपयचेताजनों के लिये ध्रुवतारा बने रहेंगे। – सुधीर सक्सेना