रमजान उल मुबारक के 30 दिनों तक पाबंदी से रखा जाने वाला रोजा फारसी भाषा का शब्द है। कुरआन में इसके लिए ’’सोम‘‘ शब्द प्रयोग किया गया है। सोम का शाब्दिक अर्थ है कि रूकना। इसका कर्ता कारक ’’साइम‘‘ है जिसका अर्थ है रूकने वाला। रोजेदार रोजे में खाने- पीने और सहवास से रूक जाता है इसीलिए उसे साइम कहते हैं।
रोजे की धार्मिक हैसियत
परिभाषिक शब्द रोजा नाम है पौ फटने से सूर्यास्त तक खाना-पीना और सहवास छोड़ देने का। इस्लाम में रोजे की हैसियत स्तम्भ की है। रसूलुल्लाह सल्ल. ने फरमाया ’’इस्लाम की बुनियाद पांच बातों पर रखी गई हैं। (1) इस बात की गवाही देना कि अल्लाह के अतिरिक्त कोई पूज्य नहीं और मुहम्मद (सल्ल.) उसके बंदे और रसूल हैं (2) नमाज कायम करना (3) जकात देना (4) हज करना और (5) रमजान के रोजे रखना।
इस हदीस के अनुसार उपरोक्त पांच बाते स्तम्भ की हैसियत रखती है। जिस तरह इमारत कुछ स्तम्भों पर खड़ी होती है उसी तरह इस्लामी जीवन पांच अराकान (स्तम्भ) पर कायम होती है। यदि कोई व्यक्ति रोजा न रखे तो वह इस्लामी जीवन की इमारत को एक स्तम्भ उठाएं बिना बनाना चाहता हैं। स्पष्ट है कि यह इमारत कमजोर होगी।
सहरी ः पौ फटने से कुछ पहले रोजा रखने वाला नाश्ते के रूप में जो खाता- पीता है उसे सहरी कहते हैं।
इफ्तार ः सूर्यास्त के साथ रोजेदार कुछ खा पीकर रोजा खोलता है। इस खाने-पीने को इफ्तार कहते हैं।
तरावीह ः प्रत्येक मुसलमान पर चैबीस घंटे में पांच बार की नमाज फर्ज है। रमजान के महीने में आखिरी नमाज इशा के साथ रोजेदार जमाअत में मस्जिदों में प्रतिदिन बीस अधिक रकअतें हाफिज इमाम के पीछे पढ़ते हैं। इस नमाज को तरावीह में हाफिज इमाम आरंभ से अंत तक पूरा कुरआन पढ़ कर सुनाता है।
शब-ए-कद्र ः रमजान के महीने की 21 वीं, 23 वीं, 25 वीं और 29 वीं रातों में से कोई एक रात शब-ए-कद्र को कुरआन दुनिया के आसमान पर अवतरित किया गया और 23 वर्ष तक जरूरत के अनुसार रसूलुल्लाह (सल्ल.) पर अवतरित होता रहा।
कुरआन का सम्बोधन ः कुरआन केवल मुसलमानों की किताब नहीं है। कुरआन बिना किसी पक्षपात के संसार के समस्त इंसानों को सम्बोधित करता है चाहे वे किसी देश, किसी नस्ल, किसी जाति और किसी रंग का हो तथा कोई भाषा या बोली-बोलता हो।
कुरआन का आव्हान ः कुरआन दुनिया के समस्त इंसानों को तौहीद (एकेश्वरवाद) का आव्हान करता है। उसका कहना है कि समस्त इंसान अल्लाह को अपना सृष्टा, स्वामी और पूज्य और शासक मान कर उसकी इबादत और केवल उसका आज्ञापालन करें। वह चाहता है कि सम्पूर्ण जीवन में केवल खुदा का हुक्म चले ताकि मानव जीवन के समस्त पहलू इससे प्रकाशित हो जाएं अर्थात पूरा जीवन इबादत बन जाए, यह एक कठिन काम है। इसे आसान करने के लिए इबादतें फर्ज की गई हैं। इनमें से एक इबादत रोजा भी है। रोजे के बहुत से आध्यात्मिक और भौतिक लाभ हैं। रोजा रखने से खुदा का भय और उच्च नैतिक चरित्र पैदा होता है। आत्म संयम का अभ्यास होता है। यदि रोजा विवेकपूर्वक रखा जाए और जिन बातों से रोजेदारों को रोका गया है उनसे रूक जाए तो एक महीने के प्रशिक्षण से बड़ा आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त हो सकती है।
रोजे से असंख्य नैतिक और आध्यात्मिक लाभों में से एक यह है कि वह इंसान में आत्म संयम की शक्ति पैदा करता है। इस बात को पूरी तरह समझने के लिए जरूरी है कि पहले हम आत्म संयम का अर्थ समझ लें, फिर यह जानें कि इस्लाम किस प्रकार आत्म संयम चाहता है और इसके बाद यह देखें कि रोजा किस प्रकार यह शक्ति पैदा करता है।
आत्म संयम से अभिप्रायः यह है कि वह व्यक्ति का स्व. (खुदी) शरीर और उसकी शक्तियां पर अच्छी तरह अधिकार रखता हो और मन की इच्छाओं एवं भावनाओं पर उसकी पकड़ इतनी दृढ़ हो कि वे उसके फैसलों के अधीन होकर रहें। इंसान के अस्तित्व में स्व का स्थान वही है जो एक राज्य में शासक का होता है। शरीर और उसके अंग स्व के साधन है। सभी शारीरिक और मानसिक शक्तियां स्व की सेवा के लिए हैं। मन (नफ्स) की हैसियत इसके अतिरिक्त और कुछ नहीं है कि वह स्व के समक्ष अपनी इच्छाओं को प्रार्थना के रूप में पेश करे। फैसला स्व के अधिकार में है वह इन साधनों और शक्तियों को किस आशय के लिए प्रयोग करे और मन की प्रार्थनाओं में से किसको स्वीकार करे और किसे रद्द करे। यदि कोई स्व इतना निर्बल हो कि शरीर रूपी साम्राज्य में वह अपनी आज्ञा अपनी इच्छानुसार चला सके और उसके लिए मन की इच्छाएं, मांगों और आदेशों का दर्जा रखती हों तो वह एक पराधीन और विवश स्व है। इसका उदाहरण उस वार का सा है जो अपने घोड़े के वश में हो गया हो। ऐसे निर्बल इंसान दुनिया में किसी प्रकार का सफल जीवन जी नहीं सकते। मानव इतिहास में जिन लोगों ने अपना कोई चिन्ह छोड़ा है वे वही लोग थे जिन्होंने अपने अस्तित्व की शक्तियों को बलपूर्वक अपने अधीन बना रखा है। जो इच्छाओं के दास और भावनाओं के बंदी बन कर नहीं बल्कि उनके स्वामी बन कर रहे हैं, जिनके निश्चय दृढ़ और संकल्प परिपक्व रहे हैं।
किन्तु अंतर और बहुत बड़ा अंतर है उस स्व में जो स्वयं खुदा बन जाए और उस स्व आसाधीन में जो खुदा के आज्ञाधीन बन कर कार्य करें। सफल जीवन के लिए स्व का अधिकार युक्त होना तो हर हाल में जरूरी है। किन्तु स्वयं अपने सृष्टा से स्वतंत्र और संसार-स्वामी से बेपरवा हो, जो किसी ईश्वरीय कानून का पाबंद न हो, जिसको किसी हिसाब लेने वाले की जांच पड़ताल का भय न हो वह यदि अपने शरीर और मन की शक्तियों पर अधिकार कर के एक उच्छश्रृंखल स्व बन जाए तो वह संसार में फिरऔन और नमरूद, हिटलर और मुसोलिनी जैसे बड़े- बड़े उपद्रवी ही पैदा कर सकती है। ऐसा आत्म संयम न प्रशंसनीय है न वह इस्लाम को अभीष्ट है। इस्लाम जिस आत्म संयम का पक्षधर है वह यह है कि पहले इंसान को स्व अपने खुदा के आगे नतमस्तक हो, उसकी प्रसन्नता का इच्छुक और इसके कानून के पालन को अपना आचरण बना ले, उसके समक्ष स्वयं को उत्तरदायी समझ ले, फिर इस मुस्लिम और मोमिन (आज्ञाकारी और आस्तिक) स्व को अपने शरीर और उसकी शक्तियों पर शासन सत्ता और अपने मन और उसकी इच्छाओं पर दृढ़ अधिकार प्राप्त हो ताकि वह दुनिया में एक सुधारक शक्ति बन सके।
यह है इस्लामी दृष्टिकोण से आत्म- संयम की वास्तवकिता। आईये अब हम देखें कि रोजा किस तरह इंसान में यह शक्ति पैदा करता है। यदि आप शरीर एवं मन की मांगों का जाइजा लें तो आपको मालूम होगा कि इनमें तीन मांगे मूलाधार की श्रेणी में आती हैं और वही सबसे अधिक शक्तिशाली मांगे हैं। एक भोजन की मांग जिस पर जीवन का अस्तित्व आधारित है, दूसरी यौन-सम्बंध की मांग जो मानव जाति के अस्तित्व का आधार हैं, तीसरी आराम की मांग जो कार्यशक्ति की बहाली के लिए जरूरी है। ये तीनों मांगे अपनी सीमा के अंदर तो ठीक प्राकृतिक के अनुकूल हैं। लेकिन शरीर और मन के पास यही तीन फन्दे ऐसे हैं कि थोड़ी सी ढील पाते ही वे फांस कर व्यक्ति के स्व को उलटा अपना दास बना लेती हैं। इन में प्रत्येक मांग बढ़ कर मांगों की एक सूची बन जाती है और प्रत्येक जोर लगाती है के इंसान अपना जीवनोद्देश्य, अपने सिद्धांत और अपने अंतःकरण के आदेशों को भूल कर इस उसी की आवश्यकताओं को पूरा करने में लगा रहे। एक निर्बल स्व जब इन मांगों से पराजित हो जाता है तो भोजन की मांग उसे पेट का बंदा बना देती है। सहवास की भावना उसे पशुत्व की निम्नतम श्रेणी में पहुंचा देती है और शरीर कही विश्रामेच्छा उसके अंदर संकल्प शक्ति बाकी नहीं रहने देती। फिर एक निर्बल स्व शरीर एवं मन का शासक नहीं बल्कि शासित बन कर रहता है और उसका काम बस यह रह जाता है कि उनके आदेशों का भले या बुरे और जाइज या नाजाइज सभी रीतियों से पालन करता रहे।
रोजा मन की इन्हीं तीन इच्छाओं का नियमबद्ध करता है और स्व को उन पर अधिकार करने का अभ्यास कराता है। वह उस स्व को जो खुदा पर ईमान ला चुका है यह सूचना देता है कि तेरे खुदा ने आज दिन भर के लिए तुझ पर पानी हराम कर दिया है, इस अवधि के अंदर तेरे स्वामी ने आज तेरी यौन इच्छाओं पर भी पाबंदी लगा दी है, पौ फटने से सूर्यास्त तक तेरे लिए हलाल रीति से भी इच्छाओं को पूरा करना हराम है। वह उसे यह सूचना भी देता है कि तेरे रब की प्रसन्नता इसी में है कि दिन भी भूख प्यास के बाद जब तू व्रत खोले तो निढाल होकर लेट न जाये बल्कि उठकर साधारण दिनों से अधिक उसकी इबादत कर। वह उसको यह भी आदेश पहुंचाता है के नमाज की लम्बी रकआतों से निवृत्त होकर जब तू प्रातःकाल तक मदोन्मत्त होकर न पड़ जा बल्कि परम्परा के विरूद्ध सहरी के लिए उठ और प्रातः से पूर्व अपने शरीर को भोजन दे। ये सब आदेश पहुंचा देने के बाद वह इनके पालन की बात स्वयं उस पर छोड़ देता है। उसके पीछे कोई पुलिस, कोई सीआईडी कोई वाहय दबाव डालने वाली शक्ति नहीं लगाई जाती है। वह छिप कर खाए, पिए या यौन संबंधी इच्छाएं पूरी कर ले तो खुदा के अतिरिक्त कोई उसे देखने वाला नहीं है। वह तरावीह से बचने के लिए कोई धार्मिक बहाना बना ले तो कोई सांसारिक शक्ति उसकी पकड़ नहीं कर सकती।सब कुछ उसके अपने ऊपर निर्भर है। यदि मोमिन का स्व वास्तव में खुदा के अधीन हो चुका है और उसके संकल्प में इतना बल है कि मन पर काबू पा सके तो वह स्वयं ही भोजन की मांग को, सहवास की इच्छा को और विश्राम की चाहत को उसे नियम में कस देगा जो आज सामान्य के विरूद्ध उसके लिए निश्चित कर दिया गया है।
यह सम्पूर्ण अभ्यास मात्र इस उद्देश्य के लिए नहीं है कि मोमिन का स्व केवल अपनी भूख, प्यास, सहवास और विश्राम की इच्छाओं पर काबू पा ले बल्कि रमजान के बाद शेष 11 महीनों में भी खुदा के हुक्म का पालन करता रहे।
कुरआन और हदीस दोनों में इस बात को पूरी तरह से स्पष्ट कर दिया गया है। कुरआन में फरमाया गया कि रोजे तुम पर इसलिए फर्ज किए गए हैं कि तुम्हारे अंदर परहेजगारी का गुण पैदा हो। हदीस में नबी सल्ल. ने फरमाया है कि जिसने झूठ बोला और झूठ पर अमल करना न छोड़ा उसका पानी और खाना छुड़वा देने की खुदा कोे कोई आवश्यकता नहीं तथा हुजूर सल्ल. ने फरमाया बहुत से रोजेदार ऐसे हैं जो रोजे से भूख-प्यास के अतिरिक्त कुछ नहीं पाते।
0 डाॅ. औसाफ शाहमीरी खुर्रम