मुंबई फिल्म इंडस्ट्री में भी कुछ फिल्में ऐसी बनी हैं, जो अपने समय में भले हिट न हो पाई हों, मगर उनमें भविष्य के संकेत दिखाई पड़े हैं। इन फिल्मों में राम मुखर्जी की ‘लीडर भी है, जिसमें भविष्य की राजनीति कौन-सा चेहरा लेकर आएगी, इसकी साफ झलक दिखाई गई थी। सबसे आश्चर्य की बात तो यह है कि इस फिल्म को लिखा था ट्रेजडी किंग दिलीप कुमार ने।
फिल्मालय स्टूडियो में एक पेड़ के नीचे बैठकर ‘लीडर की पटकथा को उन्होंने अंजाम दिया था। पूरी कहानी वोट की राजनीति और उद्योगपति-राजनीतिज्ञों के संबंधों की थी। यह तब की बात है, जब देश को आजाद हुए डेढ़ दशक हुए थे। वह पंडित नेहरू का स्वप्रकाल था।
राजनीति का आज जो स्वरूप है, वह उसी समय से गंदलाने लगा था। लेकिन तब भी कुछ ऐसे नेता थे, जो गांधी और समाजवाद के आदर्शों पर चल रहे थे। फिल्म में आचार्य जी (मोतीलाल)वैसे ही राजनीतिक किरदार थे, जो जनता के प्रति समर्पित थे। ईमानदारी और सेवा की राजनीति करते थे और जनता को भी उसी रास्ते पर ले जाना चाहते थे।
वे जनता को भी आदर्शों की राह पर ले जाना चाहते थे और चुनाव में वोटों को बेचने को अपनी जमीर बेचने के बराबर समझते थे, मगर दूसरी तरफ काले धंधे करने वाले उद्योगपति दीवान महेन्द्रनाथ (जयंत) थे, जो आचार्य जी के विचारों को खतरनाक मानते थे।
उन्हें रुपये की ताकत पर भरोसा था और वह वोटों को खरीदने के हिमायती थे। दीवान महेन्द्रनाथ अंतत: आचार्यजी के सबसे बड़े दुश्मन के रूप में सामने आते हैं। इस बीच विजय खन्ना (दिलीप कुमार), जो एक अखबार ‘यंग लीडरÓ का संपादक है, ने श्यामगढ़ रियासत की राजकुमारी सुनीता (वैजयंती माला)का एक अर्धनग्र फोटो छाप दिया।
उस पर काफी बवाल हो जाता है। सुनीता, आचार्यजी की पार्टी में सक्रिय है। वह आचार्यजी के सामने अपनी व्यथा सुनाती है और साफ-साफ कहती है कि वह उसकी तस्वीर है ही नहीं। उसमें जालसाजी की गई है। सुनीता का छोटा भाई विजय खन्ना के साथ काम करता है।
विजय खन्ना चुलबुला और दिलफेंक आदमी है। वह सुनीता को पसंद करता है। एक दिन सुनीता ने विजय खन्ना को फोन किया और उस तस्वीर के मुतल्लिक खूब डांट पिलाई, मगर कॉमेडी अंदाज में विजय खन्ना ने अपने प्यार का इजहार कर दिया। सुनीता की खूबसूरती और संपत्ति को देखकर श्यामगढ़ का जनरल भी उस पर फिदा था और उससे शादी करना चाहता था।
एक ऐसा वाकया हुआ कि सुनीता भी विजय खन्ना की तरफ आकर्षित हो गई। आचार्यजी एक चुनावी सभा को संबोधित कर रहे थे। वह जनता को वोटों का महत्व बता रहे थे, साथ ही आगाह भी कर रहे थे कि पैसे के बल पर वोट खरीदने वालों से बचें। इस बीच सभा को तितर-बितर करने के लिए दीवान महेन्द्रनाथ के गुंडों ने बम फोड़ दिया। लोग चीखते-चिल्लाते भागने लगे।
आचार्यजी की अपील का कोई असर नहीं हो रहा था। तब अचानक वहां विजय खन्ना का प्रवेश होता है। वह नेताई-मुद्रा में माइक संभालते हुए लच्छेदार भाषण देने लगता है कि कहां भाग रहे हो? इसी बुजदिली ने देश को गुलाम बना दिया था। डरपोक चेहरे हिंदुस्तानी नहीं हो सकते। विजय खन्ना के भाषण का असर सुनीता पर भी हुआ।
विजय खन्ना यही चाहता था। विजय खन्ना और सुनीता के बीच प्यार पनपने लगता है। एक दिन विजय खन्ना पहुंच जाता है आचार्यजी के पास सुनीता का हाथ मांगने। काफी सोच-विचार के बाद वह शादी की इजाजत दे देते हैं।
दीवान महेन्द्रनाथ ने साजिश कर आचार्यजी को गोली मरवा दी। उनकी मौत हो गई। चूंकि कत्ल के वक्त वहां सिर्फ विजय खन्ना उपस्थित था, इसलिए मुकदमा विजय पर हुआ। पुलिस से बचने के लिए विजय खन्ना भागा-भागा फिर रहा है।
सुनीता को विश्वास है कि यह खून विजय खन्ना ने नहीं किया। पुलिस तो विजय खन्ना को खोज ही रही है, दीवान के गुंडे भी उसके पीछे लगे हैं। जब एक मंडी में सुनीता से विजय की मुलाकात होती है तो विजय अपनी परेशानी बताता है – ‘दिन भर कातिलों का डर लगा रहता है और रात होती है तो फांसी के सपने आते रहते हैं।
सुनीता उसे छिपते-छिपाते श्यामगढ़ ले आती है, ताकि वह महल में सुरक्षित रह सके। विजय को वह अपने पिता से मिलवाती है, मगर गलत नाम से। पिता विजय को दीवान महेन्द्रनाथ का बेटा समझ लेते हैं। विजय का पता लगते ही दीवान भी श्यामगढ़ पहुंच जाता है। वहीं दोनों की मुलाकात हो जाती है। काफी परेशानियों के बाद विजय खन्ना को दीवान महेन्द्रनाथ की करतूतों का पता चल जाता है।
एक टेप हाथ लगता है, जिसमें हत्या का जिक्र था। पुलिस विजय की एक बात भी नहीं सुनती है। इस बीच सुनीता का अपहरण कर लिया जाता है। मामला अदालत में पहुंचता है और विजय खन्ना बरी हो जाता है। इस फिल्म में दिलीप कुमार ने अभिनय के कई रंग दिखाए – कामेडी, ट्रेजडी, चुलबुला, गंभीर, प्यार करने वाला। दिलीप कुमार को इस फिल्म के लिए सर्वश्रेष्ठï अभिनेता का फिल्मफेयर अवार्ड भी मिला था।
यह फिल्म हालांकि बाक्स ऑफिस पर कमाल नहीं कर पाई, मगर इसके गीत-संगीत काफी हिट हुए थे। वे गीत आज भी उतने ही ताजा लगते हैं।
‘हमीं से मुहब्बत हमीं से लड़ाई, अरे मार डाला दुहाई दुहाई…, ‘दईया रे दईया लाज मोहे लागे…, ‘एक शहंशाह ने बनवा के हसीं ताजमहल…, ‘तेरे हुस्न की क्या तारीफ करूं…, ‘मुझे दुनिया वालो शराबी न समझो… के साथ ही एक और गाना था – ‘अपनी आजादी को हम हरगिज मिटा सकते नहीं, सर कटा सकते हैं लेकिन सर झुका सकते नहीं…।
इस गाने को लिखा था शकील बदायूंनी ने तथा मो. रफी ने एक बार इसे पंडित जवाहरलाल नेहरू के समक्ष गाया था। दरअसल, जिस समय ‘लीडर का बनना शुरू हुआ था, उस समय भारत-चीन का युद्घ हो रहा था। युद्ध को ध्यान में रखते हुए नौशाद ने शकील बदायूंनी से एक गीत लिखने के लिए कहा।
गीत तैयार हुआ, मगर इसे फिल्म में रखने की उस समय कोई तैयारी नहीं थी। गीत को सुनकर सबने तय किया कि इसके लिए कोई सिचुएशन निकाली जाए और वही हुआ। जहां तक फिल्म में गाने का सवाल है, पहले गीतकार के रूप में साहिर लुधियानवी को लेने की बात चली थी। एस मुखर्जी के कई बुलावे के बाद जब साहिर मिलने नहीं आए तो यह जिम्मा शकील बदायूंनी को दिया गया।
यह फिल्म पहले छोटे बजट से शुरू हुई थी तथा ब्लैक एंड व्हाइट में ही बनाने का फैसला किया गया था। बाद में निर्माता-निर्देशक ने अपना विचार बदल लिया। जितने शूट हुए थे, उसे जला दिया गया। कहानी को भी बदल दिया गया। नायिका चूंकि राजघराने की थी, इसलिए उसे ध्यान में रखकर भव्य सेट बनाए गए। इसके एक गाने ‘एक शहंशाह ने बनवा के हसीं ताजमहल… की श्ूाटिंग आगरा में ताजमहल में पूरी की गई।
श्ूाटिंग के दौरान इतनी भीड़ जुटी और हंगामा हुआ कि पुलिस को लाठी चार्ज करना पड़ा। ताजमहल परिसर को काफी नुकसान पहुंचा। प्रशासन ने उसकी भरपाई निर्माता से करवाई। कहते हैं, फिल्म को उस समय काफी घाटा उठाना पड़ा था, मगर फिल्म की चर्चा खूब हुई थी। इसी फिल्म से अमजद खान ने फिल्मों में प्रवेश किया बतौर सहायक निर्देशक के रूप में।
दिलीप कुमार तथा जयंत के कहने पर राम मुखर्जी ने चौथे सहायक के रूप में अजमद खान को ट्रैंड होने का मौका दिया था। अमजद के पिता जयंत की खलनायकी वाली भूमिका को आज भी श्रेष्ठï भूमिका के रूप में गिना जाता है। फिल्म के अन्य प्रमुख कलाकार थे – सप्रू, हीरालाल, जानकीदास, नाजिर हुसैन, जगदीश सेठी और लीला मिश्रा।