रामचरित मानस में भ्रष्टाचार और आतंकवाद का निवारण

0
351

दूसरी किश्त:-
प्राकृतिक विधान के अनुसार कहो या प्रभु की कृपा कहो प्रत्येक मानव को तीन प्रकार के बल प्राप्त हैं- विद्याबल, धनबल और शरीरबल।
शास्त्र का कथन है कि-
विद्या विवादाय धनम् मदत्य शक्ति परेशाम् पर परिणाय।
स्वास्थ्य विपरीत में साधू ज्ञाताय् दावाय च रक्षणाय।।
अर्थात्- जो विद्या को विवाद में, धन को मद में व शरीर बल को दूसरे की पीड़ा पहुंचाने में लगाते हैं वे खल हैं असुर हैं। इसके विपरीत जो विद्या को ज्ञानार्जन में धन को दान में और शरीर को निर्बलों की रक्षा में लगाते हैं वे साधु हैं मानव हैं।
मानस में भी कहा है यथा-
राजनीति विनु धन बिन धर्मा। हरहिं समरपे बिनु सतकर्मा।
विद्या विनु्र विवेक उपजाये। श्रम फल किये अरू पाये।।
अर्थात् नीति के बिना राज्य और धर्म के बिना धर्म प्राप्त करने से, भगवान को समर्पण किये बिना उत्तम कर्म करने से और विवेक उत्पन किये बिना विद्या पढऩे से परिणाम में श्रम ही हाथ लगता है।
विद्या का अर्थ होता है ‘विदन्ति वयंयथा स विद्याÓ अर्थात् जिससे वेद के तत्व को जाना जाय उसे विद्या कहते हैं। प्रत्येक भाई बहिन यदि प्राप्त तीनों बलों का सदुपयोग करने में लग जाये तो विद्या का सदुपयोग करने से समाज में ज्ञान का प्रसार, धन के दान से निर्धनता मिट जायेंगी। तथा शरीर बल से निर्बलों की रक्षा करने से समाज को बल प्राप्त होगा जो समाज से भ्रष्टाचार और आतंक मिटाने में सहायक होंगे।
मानवता के इस दृष्टिकोण को अपना लेने से अपना कल्याण व सुन्दर समाज का निर्माण निहित है। असुर कौन है उनकी आकृति या रूप रंग अलग नहीं है। ‘असुर प्राणेषु इन्द्रियेषु इति असुराÓ जो अपनी इन्द्रियां भोगो में रत रखता है उसे असुर कहते हैं जो अपने अत: करण को ठीक-ठीक सभाले, संसार का ज्ञान करने वाली इन्द्रियों में फल जाये इसी का नाम असुर होता है। दसों इन्द्रियों से भोगों में रत रहने के कारण रावण को दस मुख कहा गया है। इसके विपरीत जो दसों इन्द्रियों को अपने अधिकार में रख कर साधनों में रत रहकर साध्य की प्राप्ति हेतु चलता है उसका नाम दशरथ होता है। पाठकों ने इससे पूर्व अंक में पढ़ा होगा कि समाज को चलाने वाले गुरू, नेता और शासक हैं गुरू ज्ञान के द्वारा, नेता विधान के द्वारा तथा शासक बल प्रयोग कर निर्दोष और निर्मल जीवन बनाने की प्रेरणा देते हैं उनकी किसी से शत्रुता नहीं होती।
रामायण काल में भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के तात्कालिक सरकार ने दण्ड संहिता में संशोधन किया था। विद्वानों ने बताया था कि याज्ञयबलिक संहिता में कहा गया है कि यदि कोई स्त्री बलात्कार से पर पुरूष संग्रहण में रत हो तो उसके नाक कान काट दिये जायें। यदि बलात्कार से कोई पुरूष पर स्त्री संग्रहण में रत हो तो मृत्यु दण्ड दिया जाये इस अन्तराल रावण की बहिन सूर्पनखा को तथा किष्कन्धा के अधिपति बाली को दण्ड दिया गया था जिससे भ्रष्टाचार पर अंकुश लग गया था। एक बात और विचारणीय है आज छेडख़ानी व चरित्र हीनता की घटनायें सुनने और पढऩे को मिल रही है उसका कारण पाश्चात्य सभ्यता का उड़ाव पहनाव है आप विचार करें और सोचें कि हम कपड़े क्यों पहनते हैं, कपड़ा पहनना कोई फैशन नहीं है चाहे फैशनेबिल पहने या सादा या कीमती कोई हानि नहीं, पर हित में क्या है प्रश्र तो यह है कि यदि कोई बगैर कपड़े के नग्न निकलता है तो आप कहते हैं कि इसको नंगे फिरते लाज नहीं आती है, यही आपके प्रश्न का अन्तर है कि कपड़ा पहनना फैशन नहीं है बल्कि लाज बचाना है, उन गुप्त अंगों को ढकना है जिनके देखने से लाज जाती है। आज जो उड़ावा पहिनावा है वह पाश्चात्य सभ्यता का है कि कपड़ा पहने हुये भी लाज जा रही है। देश की जलवायु के अनुसार ऐसा पहनावा होना चाहिये कि अंग ढंके रहे पर ध्यान रहे कि देह की सुन्दरता को वास्तविक सुन्दर मान लेना ही काम की जननी है जो चरित्र हीनता को जनम देती है देह की नश्वरता का ज्ञान ही काम की मृत्यु है।
अब जरा आतंकवाद पर विचार करें। रामायण काल में लंका पति रावण विश्व विजेता था तथा उसने विश्व को अपने बल से बस में करके किसी को स्वतंत्र नहीं रहने दिया था-यथा-
भुज बल विश्व वस्य करि रारिवसि कोऊ न सुतंत्र।
मण्डलीकि मनि रावन राजकरई निज मंत्र।।
रावण के व उनके अनुचरों द्वारा हो रहे अत्याचार का प्रभाव पूरे विश्व पर था उस काल में तीन महापु्ररूष और थे महाराज जनक, विश्व के महानुतम योद्धा परशुराम तथा राजर्षि से ब्रह्म ऋषि हुये महर्षि विश्वामित्र थे। जो आतंकवाद समाप्त करने में प्रयत्न शील थे पर सफल नहीं हुये, महाराज जनक ज्ञानी थे वे ज्ञान के द्वारा समाज की समस्याओं का सामधान करते थे मानस में कहा है कि-
चौ- जासु ग्यान रवि भव निसि नासा।
वचन किस पुनि कमल विकासा।। (मानस)
इनका सिद्धान्त था की ज्ञान के प्रसार प्रचार से ही समाधान हो जायेगा, मगर वे असफल रहे। महाराज परशुराम तत्कालीन समय के सबसे बड़े योद्धा थे अपने काल के अद्वितीय, जिन्होंने इक्कीस बार पृथ्वी को जीत कर ब्राह्मïणों को दान कर दी थी। उस समय रावण को जीतने वाले दो थे- एक वाली दूसरा सहस्त्रवाहृ अर्जुन। आप सब जानते हैं रावण ने वाली से मित्रता कर ली थी तथा सिविल संधि कर ली थी व दोनों एक दूसरे के सहयोगी हो गये थे। सहस्त्रवाहु अजऱ्ुन को रावण को बन्दी बना लिया था जिसे पुलस्त ऋषि ने छ़ुड़ाया था जिस सहस्त्रवाहू ने रावण को जीता था उसे परशुराम ने मार दिया। परन्तु उनके सामने रावण, कुम्भकरण और मेद्यनाद की समस्या बनी रही। परशुराम जी ने आतंकवाद मिटाने के लिये यह घोषणा की कि यदि किसी जाति का एक व्यक्ति अपराध करेगा तो उस जाति के सभी लोगों को मार दिया जायेगा किन्तु वे क्षत्रीय जाति तक सीमित रहे निरापराध लोग मारे जाने लगे तो विरोध भी हुआ। परशुराम जी आतंकवाद मिटाने में सफल नहीं हुये। क्रमश: – नर्बदा प्रसाद वर्मा, रामायणी, ललितपुर