रामायण और सुन्दर समाज

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(इृसरी किश्त)
जब तक हम अपना सुधार न करेंगे तब तक सुन्दर समाज का निर्माण नहीं हो सकेगा। अपनी सुन्दरता में सुन्दर समाज निहित है चाहे हम अपने की राष्ट्र के रूप में, अन्तर राष्ट्रीय रूप में, समाज के रूप में, व्यक्तिगत जीवन को सामने रखकर अथवा किसी भी दृष्टिकोण से देखें, मानना पड़ेगा कि जब तक हम अपने सुधार में रत न होंगे सुन्दर समाज का निर्माण न होगा। सुन्दर समाज का निर्माण और अपना कल्याण यह दोनों ही मानव के उद्देश्य हैं लक्ष्य हैं।
अब प्रश्र यह होता है कि अपना कल्याण पहले करना होगा अथवा सुन्दर समाज का निर्माण इस विषय में ऐसा जान पड़ता है कि दोनों ही उद़्देश्य भिन्न नहीं है। ज्यों-ज्यों अपना कल्याण होता जाता है त्यौं-त्यौं सुन्दर समाज का निर्माण होता जाता है। कारण कि जीवन एक ही है दो नहीं, समाज और संसार एक ही है दो नहीं जब जीवन एक ही है तो अपना कल्याण और सुन्दर समाज का निर्माण एक ही जीवन के दो पहलू हैं। एक पहलू ठीक होने पर दूसरा पहलू अपने आप ठीक हो जाता है। सुन्दरता का वास्तविक अर्थ यह है कि जहां हम सब अनेक होते हुये भी एक होकर रहें।
आज कल जो सुन्दर समाज का स्वप्र कानून के बल पर देखना चाहते हैं वह यह सोचते हैं कि जब हमारी सरकार सुन्दर बन जायेगी या हम सरकार बन जायेंगे तब हम सुन्दर समाज का निर्माण कर लेंगे, यह अपने को तथा समाज को धोखा देने वाली बात है जो कार्य केवल मानवता से ही हो सकता है उसे कानून द्वारा पूरा करने का प्रयत्न केवल अपनी किसी अन्दर में छिपी हुई वासना की पूर्ति का प्रयास ही मानना चाहिये। हमारा समाज सभी सुन्दर होगा, जब हम कर्तव्य परायण आप सुन्दर मकान उसे कहेंगे जिसके प्रत्येक कमरे अपने-अपने स्थान पर ठीक हों उपुर्यक्त हों। उन्हीं के समूह को आप सुन्दर मकान कहेंगे इसी प्रकार सुन्दर शरीर आप उसे कहेंगे जिसमें प्रत्येक अवयव अपने-अपने स्थान पर सही व स्वस्थ्य हों। सुन्दर समाज उसे कहेंगे जिस का प्रत्येक वर्ग अपने-अपने स्थान पर सही हो ठीक हो, कहने का तात्पर्य यह है कि सुन्दरता का अर्थ अनेक विभिन्नताओं को अपने-अपने स्थान पर यथेष्ट होना है।
रामायणों तथा पुराणों आदि का कहना है कि पहले अपने को सुन्दर बनाओ तथा अपने भवन को सुन्दर बनाओ तो सुन्दर समाज का निर्माण स्वत: हो जावेगा तथा देश सुन्दर बन जावेगा रामायण ने शरीर की सुन्दरता को सुन्दर नहीं माना है बल्कि चरित्र की सुन्दरता को वास्तविक सुन्दरता मान्य है। देह की सुन्दरता को ही वास्तविक सुन्दरता मानवता ही काम को जन्म देना है जो सारे दुखों का कारण है।
हमारी सुन्दरता स्वयं हमारे साथियों को सुन्दर बनाने में समर्थ होगी जिस प्रकार सुगन्धित पुष्प से स्वयं सुगन्ध फैलती है इसी प्रकार सुन्दर जीवन से समाज में सुन्दरता फैलती है। रामायण में अनेक चरित्रों का वर्णन किया गया है उनमें सीता का चरित्र का ऐसा पुष्प है जो केवल पुष्पवाटिका और अशोक वाटिका में ही नहीं बल्कि विश्व वाटिका को सुगन्धित कर रहा है।
बाल्मीकि रामायण में लंका विजय के बाद जब श्री राम ने विभीषण को आज्ञा दी कि मेरे पास सीता को ले जाओ तथा श्री राम की आज्ञानुसार सीता जी के संतान करके वस्त्र आभूषण धारण कर पालकी में बिठाकर श्रीराम की ओर चली और वहां पहुंचने के बाद सीताजी को देखने के लिए बानरों व बचे खुचे लंकावासियों की इतनी भीड़ उमड़ी की उनकों नियंत्रण करने के लिये विभीषण को छड़ी दारों की नियुक्त करनी पड़ी। लेकिन जब श्री रामचन्द्र ने देखा की छड़ीदार बानरों को प्रताडि़त कर रहे हैं तब उन्होंने यह आज्ञा दी की सीता जी को पालकी से उतार दिया जाये जिससे कि सब लोग उनको देख सकें। तथा उन्होंने विभीषण को फटकारते हुए कहा कि तुम क्यों सीता जी के लिये लोगों को कष्ट दे रहे हों यहां जितने लोग सीता को देखने के लिए इक_े हैं सब मेरे आत्मीय हैं इसलिए रोक दी उद्योग जनक कार्य को। यदि तुम्हारा विचार सीता को परदे में रखने का है तो पालकी में बैठना ही पर्दा नहीं है कपड़ा पहनना ही पर्दा नहीं है और घर के भीतर ही पर्दा नहीं है। स्त्री की जो सच्चरिता है वही उसका असली पर्दा है चरित्र में ही पर्दे का निवास है किसी आवरण ढकने वाली वस्तु में नहीं है। तथा
न गृहणित वस्त्राणि न प्रकाशस्तिरस्क्रिया:।
कृशा राजसत्कारा वृसमावण स्त्रिया:।। युद्ध 114/27
एक बात और देखें लंका विजय के बाद हनुमानजी अशोक वाटिका में विजय का सन्देश देने सीताजी के सामने पहुंचे, विजय का संदेश सुनाया। इसके बाद हनुमान जी ने एक अद्भुत प्रस्ताव सीता जी के सामने रख दिया उन्होंने कहा कि माता मैंने आपको यहां अपनी आंखो से कष्ट भोगते हुए देखा है और यह भी देखा कि यह कू्र्रर हृदया राक्षसियां आपको कितरा डरा धमका रही थी। इसलिये आपकी आज्ञा हो तो मैं इनको रोंद दूँ, नोच लूं, इनके बाल उखाड़ लंू अथवा इनका गला घोंट दूं।
यह सुनकर सीता ने कहा कि बेटा हनुमान ऐसी बात मत कहो। यह तुम को शोभा नहीं देता यह राक्षसियां पराधीन थीं आज्ञाकारिणी थी, इसलिए इनको जैसा कहा गया वैसा उन्होंने किया उसमें इनका कोई दोष नहीं है सज्जन लोग पाप के बदले पाप नहीं करते क्योंकि सदाचार ही उनका आभूषण है।
‘सत्तर धारित भूषणÓ भले ही कोई पापी हो अथवा वध करने योग्य ही क्यों न हो लेकिन श्रेष्ठ पुरूषों को चाहिए कि उस पर क्या करें। संसार में ऐसा कोई नहीं है जिससे कुछ न कुछ अपराध नहीं हुआ हो-यथा
पापना: वा दुभाना वा वधाहीणा मयापि वा।
कोर्य कारूण्यमसर्नण न कश्चिन्ना पराष्धयति।। य. 113/44
सीताजी का रूश्चिआपसूच्यति कहने का तात्पर्य यही था अपराध किससे नहीं होते। अपराध तो स्वयं मुझसे भी हुये हैं क्योंकि श्री रामचन्द्र जी जब मायामृग वेषधारी मारीच के पीछे चले गये तब मैंने लक्ष्मण के प्रति बड़े-बड़े दुर्वचनों का प्रयोग किया और उनको ब्लात वहां से चले जाने को विवश किया।
कहें कटुवचन रेख लाघी में तात छमा सो कीजै।
उसके पश्चात् मैं रावण द्वारा अपनी प्रशंसा सुनती रही स्वयं तुमने जब लंका का दहन किया तब क्या तुम्हारे द्वारा निरपराधियों को कष्ट नहीं पहुंचा। मेरी अपनी बातें छोड़ो, अपराध एक ऐसी किया है जो ब्रह्मा, विष्णु, महेश से भी हो जाती है। इसीलिए आर्य पुरूषों को चाहिए कि वे अपराधों पर ध्यान दें। ध्यान देना है तो गुणों पर ध्यान दें और करूणा करते रहे। इस प्रकार सीता जी के वचन सुनकर हनुमानजी चरणों पर गिर पड़े और बोले माता आप धन्य हैं। क्रमश: