(तीसरी किश्त)
अपनी प्रतिज्ञा के तो श्रीराम इतने प्रेमी थे कि एक बार प्रतिज्ञा कर लेने के बाद फिर कभी छोड़ते नहीं थे। श्रीराम को बनवास ‘तापस वेस वर्ष उदासी, के रूप में दिया गया था किन्तु वे धनुष वाण लिये चल रहे थे। जब सीता जी ने उनसेÓ कहा कि धनुष उठाकर रख दो और मुनियों का सा जीवन व्यतीत करों तब श्रीरामचन्द्र ने उनसे कहा कि सोते में अपना जीवन छोड़ सकता हूँ। तुम्हें छोड़ सकता हूँ लक्ष्मण को छोड़ सकता है, परन्तु मैंने मुनियों के सामने उनको कष्ट पहुंचाने वाले दुष्टों को दमन करने की जो प्रतिज्ञा की है उसका परित्याग नहीं कर सकता।
इसलिए हमारे प्रशंसकों को चाहिए कि वे जनता के सामने जो प्रतिज्ञा करते हैं उनका पालन करें। आजकल के नेता लोग चुनाव के समय में जो वायदे करते हैं, उनको कुर्सी मिलते भूल जाते हैं। वे वायदा करते समय तो बड़े उदार मालूम पड़ते हैं, लेकिन जब उन वायदों को पूरा करने का समय आता है तो तब पिछड़ जाते हैं किसी भी नेता या प्रशासन को यह उचित नहीं है। इससे जनता में उनके प्रति अश्रृद्धा उत्पन्न हो जाती है।
अब मैं श्रीरामचन्द्र के प्रजा अनुराग के प्रसंग में घटित एक घटना की ओर आपका ध्यान आकर्षित करता हूँ। श्रीराम को एक गुप्चर से सीता अपवाद का पता चला तब वे स्वयं उसी रात में वेश बदलकर भ्रमण किया तथा उनको सीता अपवाद करने वाले लोग मिल गये व श्रीराम ने इस हंसी को गम्भीरता से लिया तथा दूसरे दिन लक्ष्मण को कठोर आज्ञा दी व सीता जी को बाल्मीकि आश्रम के पास वन में छुड़वा दिया।
लक्ष्मण रास्ते में तो कुछ विशेष नहीं बोले किन्तु जब गंगापार करने के बाद बाल्मीकि आश्रम निकट आया तब उन्होंने शोक सन्तप्त होकर कहा कि आज रामचन्द्र ने मुझे ऐसा कार्य सौंपा है। जिस के कारण मेरी बड़ी लोक निन्दा होगी मैं आपको यहां छोड़ जाने को आया हूँ। यद्यपि आप मेरे सामने निर्दोष सिद्ध हो चुकी हैं, फिर भी श्रीराम ने जनमत में फैले हुए लोक अपवाद के कारण आपका परित्याग कर दिया है।
यथा :
सात्वंव्ता वृयदिना निर्दोशा मम संनिधी। उ 47/13
यह सुनकर सीता जी अवाक रह गई, उनके दुख का ठिकाना न रहा वे रोती हुई बोलीं लक्ष्मण विधाता ने मुझे केवल दुख भोगने के लिये ही बनाया है। इसके बाद विषाब्द ग्रस्त लक्ष्मण अयोध्या लौट गये।
इधर जब ऋषि बालकों से बाल्मीकि जी को पता चला तो वे स्वयं सीता जी के पास गये और उनकी दशा देखकर उनके हृदय में अतिशय करूणा का उदय हो गया। उन्होंने बड़े स्नेह से कहा कि देखो सीते श्रीरामचन्द्र ने तुमको छोड़ दिया तो क्या हुआ मैं अपने तपोबल से तीनों लोगों की बात जानता हूँ। और इसीलिये कहता हूँ कि तुम नितान्त पवित्र हो। मैं प्रतिज्ञा पूर्वक कहता हूँ कि तुम्हारी पवित्रता में किंचित भी दोष हो तो मेरा सारा तपोबल नष्ट हो जाये।
बाल्मीकि जी ने यह भी कहा कि सीते यद्यपि श्री रामचन्द्र ने तुम्हारा परित्याग करके बड़ा कठिन काम किया है तथापि मैं जानता हूँ कि उनके हृदय में तुम्हारे प्रति कितना प्रेम हैं। सच पूछों तो वे प्रेम की मूर्ति हैं और तुमसे असीम प्रेम करते हैं। इसलिए तुम उनके प्रति दुर्भाव न आने दो और तुम यह समझो कि तुम अपने घर में ही हो। इस प्रकार सीता तापसी स्त्रियों के साथ रहने लगी। महर्षि बाल्मीकि ने जब स्वयं सीता जी के चरित्र को देखा और उसे कसौटी पर कसा व देखा कि वे परित्यक्ता हो जाने पर भी श्रीरामचन्द्र के प्रति कितना प्रेेेेेम करती हैं तो उन्होंने स्पष्ट शब्दों में यह घोषणा कर दी है कि मुझे श्रीरामचन्द्र का चरित्र उतना अभीष्ट नहीं था मैंने तो इस ग्रंथ में सीता के उदार चरित्र का ही वर्णन किया है क्योंकि मैंने अपनी आंखों से देखा है कि सीता का चरित्र कितना महान है और उनके हृदय में श्रीरामचन्द्र के प्रति कितना प्रेम है इस प्रकार जब हम बाल्मीकि के दृष्टि कोण को समझ पायेंगे तब पायेंगे कि उनकी रचना में रामचरित्र का नहीं सीता चरित्र का वर्णन है।
दूसरी ओर देखने पर यह प्रतीत होता है कि श्रीरामचन्द्र राजा हैं और उनके चरित्र का झुकाव प्रजा पक्ष की ओर है वे अपने हृदय में प्रजा के लिए इतनी पीड़ा सहते हैं कि महर्षि भव भूमि को अपने उत्तर रामचरित्र में यह लिखना पड़ा कि
अति भिन्नो गंभीरत्वादन्तर्गूढ़घतव्यष:।
पुटपाम प्रतीकाशी रामस्य करूणो रप्त:।। 3.9
्् भवभूती का कहना है कि श्री रामचन्द्र के हृदय खोलता हुआ सोना है और वह सीता जी की वियोग की आग से बराबर खोलता है परन्तु वे उसको पुट में दबाकर रख रहे हैं।
भवभूति ने अपने ग्रंथ के अंक चार में सीता के चरित्र के सम्बन्ध में लिखा है कि सीता के गुण व चरित्र को देखकर जगत पूज्य अरून्धती ने सीता जी से कहा है कि :- छावल्से! शिशर्वा शिष्षावायवसिंममततिष्ठतु तथा विशुद्धरूलर्षस्तमयि तु मम भक्ति जनयति। शिशुत्वस्त्रेणां व भवतुननु वन्द्याषिजगतां गुजा: पूजास्थानं गुणिपुन च चिल्ड्रंनचवय:।।
सीते। मेरे सम्बंध में शिशु हो या शिष्या हो जैसी भी हो किन्तु तुम्हारे चरित्र का उत्कर्ष तुम्हें मेरे लिए वन्दनीय बना रहा है शिशुत्व हो या स्त्रीत्व तुम जगत के लिए पूज्या हो। गुण ही पूजा के स्थान होते हैं उसमें लिंग और अवस्था का भेद नहीं होता।
सीता जी का लोकोत्तर चरित्र भारतीय नारी के जिस महत्तम आदर्श की सृष्टि करता है उसकी कामना ही देश के मनुता और गौरव का प्रतीक है श्रीराम के साथ उनका वन में जाना और लंका की यातना ऐसे स्थलों पर, सोभुज कष्ट की तब असि धोरा, की प्रतिज्ञा करने वाली सीता का असमान्य चरित्र प्रकट हुआ है जो समाज को प्रेरणा दायक है श्री रामचन्द्र का प्रजा के प्रति प्रेम है प्रजा के लिए जो पीड़ा सहन की है सीता का जो वियोग है और श्रीरामचन्द्र के प्रति जो अनुराग हैं उससे पत्थर भी पिघल जाता है इसी प्रकार लक्ष्मण की जो आज्ञाकारिता है वह विलक्षण है।
इस प्रकार सच्चरिता में ही अपना कल्याण व सुन्दर समाज में हित है। क्रमश: