रामायण और सुन्दर समाज

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(चौथी किश्त)
आपने अभी तक पढ़ा है कि व्यक्ति की सुंदरता सचरित्रता में है और उसी में सुन्दर समाज निहित है। आप विचार करके देखें तो आप को यह स्वष्टï सिद्घ हो जावेगा कि आप बड़े ही सुन्दर हैं। आपका अर्थ आपका शरीर या अहंभाव नहीं है बल्कि आप में छिपी हुई मानवता अथवा आपकी साधना है। आपकी साधना का जो समूह है उसी का नाम मानवता है और उसी का फल कल्याण है। तो कल्याण का अर्थ यह हुआ कि जिसकी मांग प्रभु को हो और जिसकी मांग संसार का भी हो, जो इतनी प्यारी वस्तु हो कि जिसके लिये संसार तरसता हो और जिसको अपनाये बिना भगवान भी न रह सकें।
आप विचार करें कि भगवान ने अनेक बार यह नहीं कहा कि मेरी शरण में आओ, यथा: सर्वधर्मापवरित्यज्यं मामेकं शरण ब्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षथिष्यामि मा शुच: (गीता 18:66) तथा कोटि विप्रवध कागहिं जाहिं। आधेसरणं तजहिं नही ताही॥
जो सभी आवा सरनाई। राखहूं ताहि प्रान की नाई । (मानस)
अत: शरणागत भी साधन है और संसार भी आपके सामने कहता है कि मेरे अधिकारों की रक्षा करो, अंतर केवल इतना है कि संसार को तुम्हारी अपनी कामना पूर्ति के लिये है और भगवान को तुम्हारे कल्याण के लिये है। कारण कि वे स्वभाव से ही प्राधि के परम सुहृदय हैं। सरनागत बल्सक भगवाना, भगवत प्रेम के बिना कल्याण नहीं बन सकता। यदि आप आस्तिक दृष्टिïकोण से विचार करें तो यह आपको मानना ही होगा कि भगवान को आपकी प्रीति की मांग है। आपकी प्रीति भगवान को अभीष्टï है और आपके सदाचार, आपके साधना आपकी सेवा की आवश्यकता संसार को है। इन दोनों दृष्टिïयों को सामने रख कर ही आप कह सकेंगे कि सदाचार युक्त जीवन ही संसार को अभीष्ट है।
आप और हम जो शरीर को अपना अस्तित्व मानते हैं तो हमारा आपका अविवेक है। शरीर हमारा अस्तित्व नहीं है। हमारी साधना है, हमारा सदाचरण है वही हमारा अस्तित्व है। शरीर के न रहने पर भी आपका आचरण, आपकी साधना एवं विचारधारा बनी रहती है और समाज में विधान के रूप में आदर पाती है।
अगर यह प्रश्न करें कि आपके कल्याण का अर्थ क्या है तो कहना होगा कि भगवान के अधिकारों की रक्षा, जगत के अधिकारों की रक्षा से जगत से मुक्ति और भगवान के अधिकार की रक्षा से भगवत की प्राप्ति।
यदि आप गंभीरतापूर्वक विचार करें तो यह स्पष्टï हो जाता है कि व्यक्ति का अस्तित्व समाज के अधिकारों का समूह है। व्यक्ति का जीवन क्या है तो कहना होगा कि जिस जीवन से सभी के अधिकार सुरक्षित हों। उसी का नाम वास्तव में मानव जीवन है। मानवता इतना महत्वपूर्ण तत्व है कि जिसकी मांग सदैव सभी का रहती है। आपकी साधन युक्त जीवन ही आपका अस्तित्व है। इस अस्तित्व को सुरक्षित रखने के लिए आप अपने को मानव मानके और छिपी हुई मानवता को विकसित कर अपने को सुन्दर बनावे। अपने को सुन्दर बनाने में हर भाई-बहिन स्वतंत्र है तभी समाज सुंदर बनेगा।
विवेकयुक्त जीवन ही वास्तव में मानवता है। उसी के आधार पर जब हम अपने को सुन्दर बनाते हैं तो वही वास्तव में व्यक्ति वाद है, और जब अपने चरित्र द्वारा मानवता का प्रसार समाज में किया जाता है तो वास्तव में समाजवाद है, उस मानवता को विधान का रूप देकर जब बल प्रयोग द्वारा समाज में प्रसार करने का प्रयास किया जाता है तो वही वास्तव में राष्टï्रभाव है।
जिस घर में समाज में देव में अधिकारों का हनन होता है जहां एक दूसरे के अधिकार सुरक्षित नहीं रहते हैं वहां कलह व अशांति रहती है। आए दिन झगड़े होते हैं तथा निर्भय समाज की कहो या भयमुक्त समाज की स्थापना नहीं हो सकती है। पद लोलुप्ता और अधिकारों के झगड़े में आये दिन हत्यायें होती रहती हैं। कर्तव्य परायणता के बगैर अधिकार सुरक्षित नहीं रह सकते हैं। कर्तव्य परायणता का पाठ सभी व्यक्तियों, कुटुम्ब, वर्गों और दलों को पढऩा है और उसी का अनुसरण करना है। यह पाठ मानवता का पाठ है यह किसी जाति विशेष का नहीं किसी दल या वर्ग विशेष का नहीं, कर्तव्य का पाठ सबको पढऩा है। यदि कोई संदेह करे कि कर्तव्य की बात सदैव निर्बलों को बताई गई है सबल, दबंग, निर्बलों के अधिकारों का अपहरण करते रहें और उन्हें अपनी खुराक बनाते रहें हैं जो आज भी हो रहा है, उसी का भयंकर परिणाम यह हुआ कि दुखी वर्ग का आकर्षण कर्तव्य की अपेक्षा अधिकार की ओर अधिक हो गया, आज कर्तव्य शून्य अधिकार कभी सुरक्षित नहीं रह सकते हैं। कर्तव्य परायणता से ही होने वाले कलहों को झगड़ों को रोका जा सकता है। विचार करें अयोध्यापति महाराज दशरथ के कौशल्या, सुमित्रा आदि रानियां थी। मगर पहिले उनके कोई संतान नहीं थी इसके लिये उन्होंने कैकय नरेश अश्वपति की कन्या कैकई जो बहुत सुंदर भी थी उससे विवाह स्वीकार कर लिया किन्तु कैकई के पिता ने यह शर्त रखी कि मेरी पुत्री की संतान को राजगद्दी दी जावे तो हम विवाह करने को तैयार हैं यथा
कैक्यीमम कन्या मा यस्तु पुत्रो भविष्यतिथ:।
तस्मै राज्यं ददात्वेने गृहाण मम कन्याकाम॥
अलेल समयेनापि विवाहं कुरू भूमिप।
यथा वदसियों विप्र तथैव करवाण्यम॥ सत्रेपखाव 8/13/20
यह बात वशिष्ठï जी को मालूम थी। दशरथ जी ने शर्त की स्वीकार कर कैकई से विवाह कर लिया। महारानी कैकेयी केवल विश्व सुन्दरी ही नहीं थी बल्कि वह युद्घकला में रथ संचालन करने में निपुण थी व वीरांगना भी थी। जब देवासुर संग्राम में असुरों ने दशरथ जी को गिरा दिया तब कैकेयी ने उनकी प्राणों की रक्षा की थी। इससे दशरथ जी कैकेई से बहुत प्रसन्न हो गये और उससे दो वरदानों को मांगने को कहा। इस पर रानी ने उत्तर दिया कि उन वरदानों को अपने पास रखिये फिर जब अवसर आयेगा तब मैं उनको मांग लूंगा। वह रानी इतनी निष्काम थी कि भूल ही गई थी। निष्काम कर्म के बारे में सूर्य गीता में कहा कि
ज्ञानादुशस्ति भक्ति रुकृष्टïा कैमीत्किृष्टïभुवासनात।
इति यो वेद वेदान्ते स एवं पुरुषोत्तम॥
अर्थात – भक्ति ज्ञान से अच्छी है और लालसाहीन कर्म (निष्काम कर्म) भक्ति से अच्छा है जो कोई वेदांत के सिद्घांत को जानता है उसे सर्वश्रेष्ठï मनुष्य जानना चाहिए। क्रमश: