रामायण और सुन्दर समाज

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(पांचवी किश्त)
अब कुछ समय बाद महाराज दशरथ के तीनों रानियों से पुत्रों का जन्म हुआ। नवमी तिथि को श्री रामजी का जन्म बड़ी महारानी कौशल्या से, व दसवीं को कैकेई रानी से भरत तथा मझली महारानी सुमित्रा से लक्ष्मण व शत्रुधन उत्पन्न हुआ। इस प्रकार चारों भाईयों में श्रीराम बड़े हुये। चारों भाईयों के समस्त संस्कार साथ-साथ हुये थे।
एक बात बार-बार ध्यान में लाने की है कि श्रीरामचन्द्र मानव रूप में धरती पर रहते हैं। धरती पुत्र बाल्मीकि उनके चरित्र के गायक हैं और धरती को सिर पर धारण करने वाले शेष लक्ष्मण उनके भाई हैं। इस प्रकार श्री रामचन्द्र के सारे संबंध धरती के लोगों से हैं। उनके जीवन में विलक्षण लक्षण प्रकट होकर आये हैं। उनके दैनिक कार्यकलाप धर्म पालन के रूप में प्रकट होता है।
अब चारों भाई बड़े हो गये और चारों के विवाह हो गये यथा दशरथ जी ने बहुत ही निकट से श्रीरामचन्द्र के विविध गुणों का अनुसंधान कर लिया तब उनके मन में श्रीराम को युवराज पद पर अभिषेक करने की उत्कण्ठा हुई। उन्होंने ये प्रस्ताव सभा में रखा जिसे सभा सदों और मंत्रीमंडल ने अनुमोदन करते हुए प्रार्थना की कि आप भगवान विष्णु के समान पराक्रमी समस्त प्राणियों के हित में संलग्न तथा महापुरुषों द्वारा सम्मानित अपने पुत्र श्री रामचन्द्र को युवराज पदाभिषेक शीघ्र सम्पन्न कीजिये।
राजा दशरथ जी ने राम को युवराज पद देने की घोषणा कर दी। जिससे भरत और कैकेयी के अधिकारों पर आघात पहुंचा॥ राजा ने भरत शत्रुधन को पहिले ही ननिहाल भेज दिया था, वे दोनों बहुत समय से ननिहाल में थे। लेकिन कुछ लोग इसमें दशरथ का कुचक्र मानते हैं और उनकी मान्यता का आधार भिन्न -भिन्न रामायणों में वर्णित भिन्न-भिन्न कथाएं हैं। महाराज दशरथ कैकेयी के पिता अश्वपति को उनकी पुत्री के पुत्र को राज्य देने का वचन कर चुके थे। इधर दशरथ जी भरत के आने से पहिले श्रीराम का अभिषेक कर देना चाहते थे।
श्रीराम के राज्य अभिषेक की सूचना कैकेयी और मिथला देशों को भी नहीं भेजी गई, क्योंकि उत्तम महूर्त दूसरे दिन था। सूचना भेजने और आने-जाने में उत्तम महूर्त का समय निकल जाता। कई विद्वानों का तो यहां तक कहना है कि कैकेयी के पिता अश्वपति और भाई युधाजित को यह पता चल गया था कि राजा दशरथ जी उनके भरत को राजा नहीं बनायेंगे इसीलिए भीतर ही भीतर युद्घ की योजना बनाकर दशरथ जी को पराजय करने तथा भरत को राजा बनाने की योजना बना रहे थे। दशरथ जी को इस बात की भनक लग गई थी, इसीलिये वे जल्दी से जल्दी रामचन्द्र को राजा बना देना चाहते थे। लेकिन यह सब कथायें बाहर की हैं। वाल्मीकि रामायण में सूत्र मिल सकते हैं तथा पिता दशरथ जी के मन में की राम को युवराज बनाने के पीछे इतनी भावनायें काम कर रही थी, यह कहना बड़ा कठिन है।
गोस्वामी जी ने लिखा है कि जब गुरू वशिष्टï जी से राजा सुदिन ने पूछा था अर्थात राम के युवराज बनाने का महूर्त पूछा था तो गुरुदेव ने कहा कि ‘सुदिन सुमंगल तवहिं जब रामहोहि युवराज’। वशिष्ठï जी ने न तो महूर्त बताया और न श्रीराम का युवराज होना/ यह कह दिया कि जब राम युवराज होंगे तभी सुदिन व सुमंगल होगा। अत: राम होहि युवराज/ पद देते हैं। ऐसा कह कर जताते हैं कि वे अभी युवराज न होंगे। यह बात तो स्पष्टï है कि महाराज दशरथ के प्रस्ताव व घोषणा कि श्रीराम को युवराज पद दिया जा रहा है के कारण भरत के कैकेयी के अधिकारों का अपहरण हो रहा है था जो कलह व अशांति का कारण है। जहां अधिकार सुरक्षित नहीं रहते हैं वहां सुन्दर समाज नहीं बन सकता है।
जब गुरू द्वारा श्रीराम को सूचना दी गई व महाराज वशिष्ठï ने श्रीराम को शिक्षा दी तब गोस्वामी जी ने लिखा कि गुरू जी ने कहाकि
राम करहू सब संयम आज। जो विधि कुसल निवाहे काजू॥
जब गुरू जी शिक्षा देकर चले गये तब श्रीराम को बड़ा आश्चर्य हुआ कि गोस्वामी जी ने लिखा है कि –
गुरु सिख देइ रामपहिं गयऊ। राम हृदय अस विसमय भयऊ॥
उपजे एक संग सब भाई। भोजन सयान केलि खरकाई।
करनबेध बपवीति विवाह संग संग सब भयऊ उछाहा।
विगल वसं यह अनुचित एक। वंधु विहाई बेड़ेहि अभिषेकू॥
प्रभु सप्रेम पछितानि सुहईि। हरहू भगत मन के कुटिलाई॥
श्रीराम ने कहा कि विमल वंश में यह अनुचित हो रहा है कि भाई को छोड़ कर मुझे (बड़े) को राज्य दिया जा रहा है। वे चाहते हैं कि जो सुख सुविधा मुझे दी जा रही है वे पहिले मेरे छोटे भाईयों को दी जावे तो मुझे प्रसन्नता होगी। परंतु भाईयों को उससे वंचित रख कर केवल मुझे युवराज पद दिया जा रहा है इस पर श्रीराम को पछतावा हो रहा है।
मेरे प्रेमी पाठक, $जरा विचारो, यदि बड़ा भाई यह कहता है कि जो सुख भोग मुझे दिये जा रहे है वह मुझे न देकर मेरे छोटे भाईयों को दिये जावें तो भवन और समाज की सुन्दरता में चार चांद लग जायेंगे तथा छोटे भाई कभी भी बड़े भाई के विरोध में नहीं जावेंगे। बड़ा भाई को पिता का दर्जा होता है। जब भरी सभा में रावण ने अपने छोटे भाई विभीषण का लात का प्रहार कर अपमानित किया गया तो विभीषण ने कहा था कि-
तुम्ह पितु सरिस भरनेहिं मोहि मारा।
राम भजे हित नाथ तुम्हारा॥
बन्धु बिहाई बड़ेहिं अभिषेकू से स्पष्टï है कि श्रीराम को जानकारी थ्ी कि भरत को राजगद्दी दी जानी थी। तथा हरउ, भगत मन की कुटिलाई से स्पष्टï प्रतीत होता है कि महाराज दशरथ को भरत शत्रुधन को ननिहाल भेज कर श्रीरामचन्द्र को अभिषेक करना राजनीतिक कुटियाली है। जैसे ही यह खबर मंथरा ने कैकेयी को बताई व मंथरा ने जो कुपाठ पढ़ाया उससे कैकेयी ने अपने और भरत के अधिकारों का मुद्दा उठाया तथा अपने अधिकारों की मांग पर डटी रही और उसने श्रीराम को चौदह वर्ष का वनवास तथा भरत का राज्य देने की मांग कर अपने और भरत के अधिकार सुरक्षित कर लिये व जब कैकेयी ने महाराज दशरथ से कहाकि-
होत प्रात मुनिवेष धरि जो राम वन जाहि।
मोर भरत राउर अथस नृप उस समुझिये मन माहिं॥
इसलिये राजा ने श्रीराम को वन जाने की आज्ञा दे दी। इसका परिणाम यह हुआ कि महारानी कौशल्या व श्रीरामचन्द्र के अधिकारों पर आघात हो गया व इन अधिकारों के झगड़े के कारण राजपरिवार में कलह और अशांति ने पैर जमा लिये। महाराज दशरथ अचेत हो गये, जब श्रीराम को कैकेयी द्वारा यह पता चला कि पिता जी ने मुझे वनवास दिया है तब प्रसन्न हुये व पिता की आज्ञा का पालन करना धर्म माना और अपने अधिकारों का परित्याग करके मां कैकेयी और भरत के अधिकारों की रक्षा की, जब श्रीराम द्वारा माता कौश्ल्या को अपने बेटे के वन जाने का पता चला तब राजमाता ने अपने अधिकारों की ओर ध्यान देकर एक बार अपने बेटे को आदेश देते हुए कहाकि-
जो केवल पितु आय सुताता। जनुआहु जानि बड़ी माता॥
किंतु पिता से दस गुना मान्य माता को है और माता ये दस गुना विमाता मान्य है।
पितु दशगुणा माता गोरवाणि न रचियते। दशगुणा मान्या विमाता धर्म भीकृपा॥ क्रमश: