(छठी किश्त)
इस प्रकार कौशल्या ने अपने अधिकारों का परित्याग करके, महाराज दशरथ, कैकेयी और भरत के अधिकारों की रक्षा करते हुए अपने और दशरथ के धर्म और श्रीराम के धर्म की रक्षा की। श्रीरामचन्द्र का धर्म केवल यज्ञ शाला में ही सम्पन्न नहीं होता, रास्ते में चलते फिरते होता है। लोगों से मिलते-जुलते होता है और घर में व्यौहार करते भी होता है उनकी भक्ति केवल मंदिर में ही नहीं बाजार में भी होती है। भीड़-भाड़ में भी होती है। उनका योग गुफाओं में ही नहीं सब लोगों के बीच में होता है। उनका ज्ञान सीमित नहीं है। जीवन के कण-कण व क्षण-क्षण में है। वे विग्रह वान धर्म हैं। श्रीराम ने पिता की आज्ञा को सर्वोपरि धर्म मान कर वन जाना स्वीकार कर लिया। इस प्रकार भरत के अधिकारों को सुरक्षित कर दिया।
श्रीराम, लक्ष्मण तथा सीता के वन चले जाने के बाद महाराज दशरथ का निधन हो गया तथा अयोध्या शोकमग्न हो गई। वशिष्ठï जी ने ननिहाल से भरत जी को बुलाने रथ भेजा गया तथा भरत के आने पर महाराज दशरथ का दाह संस्कार और तेरहवें दिन की क्रिया सम्पन्न करनेबाद चौदहवें दिन वशिष्ठï जी ने मंत्रियों ने सभा में राजा की आज्ञा का उल्लेख करते हुए सभी की ओर से भरत जी से राज्याभिषेक कराकर राज्य ग्रहण करने का प्रस्ताव रखा व सभी ने भरत जी से निवेदन किया। यह प्रस्ताव सुनने के बाद भरत जी ने अपनी आंखों में आंसु भर कर रुंधे गले से कहा कि गुरुदेव यह राज्य और मैं दोनों श्रीरामचन्द्र के हैं। इसलिये आपको इस सभा में धर्म सम्मत प्रस्ताव ही उपस्थित करना चाहिए। आदि कहते हुए अपने अधिकारों का परित्याग कर दिया और श्रीराम को लौटाने जाने तथा जहां मिलेंगे वहीं राज्याभिषेक करेंगे की घोषणा कर दी। व दूसरे दिन तिलक का सामान सेना आदि लेकर प्रजा, सभासदों को साथ लेकर वन को चल दिये और चित्रकूट पहुंच गये। वहां परिजनों व माताओं से भेंट हुई तथा अपने-अपने स्थानों पर ठहर गये। अपने दुखी परिवार व परिजनों की हालत देख कर श्रीराम को भी दुख हुआ। श्रीराम को लौटाने के लिये सभायें होने लगीं। श्रीराम अयोध्या लौट चले्र भरत ने एक प्रस्ताव सभा में रख दिया कि-
सानुज पठिइय मोहि वन, कीजिये सवहिं सनाथ।
नतरू फेरहहि बंधु दोऊ नाथ चलो में साथ।
नतरू जाहिं वन तीनऊ भाई। बहुरिअ सीय सहित रघुराई॥
भरत ने कहाकि आप लक्ष्मण सीता अयोध्या वापिस जावे व मुझे और शत्रुधन को वन जाने दिया जावे यदि ऐसा न हो तो लक्ष्मण और शत्रुधन को अयोध्या भेज दिया जावे और मैं आपके साथ वन चलूं। यदि यह भी स्वीकार न हो तो तीनों भाई वन को जावें और आप सीता सहित अयोध्या को लौट चलेें। जिस प्रकार प्रभु का मन प्रसन्न हो करुणासागर वही कीजिए श्री भरत लाल के प्रस्ताव सुन कर श्रीराम चुपचाप हो गये व संकोच में पड़ गये तथा श्रीराम की दशा को देख कर सभा भी सोच में पड़ गई। इस प्रकार से विचार हो रहा था कि दूतों से पता चला कि महाराज जनक आ रहे हैं। सब ने महाराज जनक का अभिवादन किया। निरहुज नरेश के आने पर अयोध्या वासियों को प्रसन्नता हुई। किन्तु जो स्थिति थी उसे देख कर दोनों राज समाज शोक विकल हो गये। ज्ञान न रहा, न धीरज रहा, न लाज रही। गोस्वामी जी ने लिखा है-
सोक विकल दोउ राज समाजा रहा न ग्यानु न धीरज लाज।
सोक मगन सब सभा खमारू। मनहूं कमल बने परेउ तुसारू॥
भरत के भाषण को सुन कर सब असमंजस में पड़ गये। महाराज जनक को गुप्तचरों द्वारा सभी जानकारी हो गई थी। अवध पति दशरथ के न हरने के कारण वे चारों भाईयों के पिता तुल्य थे। मगर वे भरत के प्रस्ताव पर करते क्या, महाराज जनक दो भाई तो थे ही और उनके आठ सौतेले भाई भी थे वे सब चित्रकूट आये थे। महाराज सीरज ध्वज जनक के दो बेटियां थीं, सीता व उर्मिला तथा सीता जी श्रीराम को विवाही थी व उर्मिला लक्ष्मण को ब्याही थीं, तथा उनके दोनों दामाद व पुत्री सीता वन के दुख झेल रही थी। अपनी पुत्री सीता को वहनकल वस्त्र धारण किये देख मिथलेश परिवार की छाती फटती थी जनक के छोटे भाई का नाम कुशध्वज था उनके दो बेटियों थी एक माण्डवी दूसरी श्रुति कीर्ति थी। माण्डवी का विवाह भरत से तथा श्रुति कीर्ति का विवाह शत्रुधन से हुआ था।
अत: त्रिहुत नरेश जनक यदि भरत के प्रस्ताव का समर्थन करते तो जनकपुर के परिवार में भी कलह व अशांति हो जाती वे किसी के पक्ष या विपक्ष में नहीं बोल सके। समस्या की गंभीरता व धर्म संकट था।
इसी बीच एक राज महिला सम्मेलन का आयोजन किया गया। यह आयोजन जनकपाट महिषी सुनयना की ओर से किया गया था तथा उनके साथ जनक के आठों सौतेले भाईयों की रानियां थीं। इस प्रकार अवध और जनकपुर की महिलाओं का सम्मेलन हुआ। सबसे पहिले सुनयना जी ने कहा कि सीय मातृ कहि विधि वुधिवाकी। जो पयकेनु फाई पविटाकी॥
सुनयना जी ने अपने भाषण में कैकेयी पर कटाक्ष किया। परंतु सुमित्रा जी ने उसे विधि गति से कह कर समझा दिया यथा :
सुनिससोच कह देवि सुमित्रा। विधि गति बडि विपरति विचित्रा॥
जो सृजि पालई हरई बहोरी। बाल केलि सम विण्धि मति भोरी॥
अब कौशल्या जी को बोलना था। सब यही सोच रहे थे कि राजामात अगर कहेंगी तो अपने बेटे व बहू को वापिस अयोध्या लौटाने को कहेंगी, परंतु कौशल्या जी ने भाषण देते हुए कहाकि दोष किसी का नहीं, कर्म के विवश सुख-दुख, लाभ-हानि होते हैं। कठिन कर्मगति को विधाता ही जानते हैं। जो सबका शुभ और अशुभ सभी फलों का देने वाला है। ईश्वर की आज्ञा सबके सिर पर है। उन्होंने सुनयना जी को सम्बोधन करते हुए कहाकि देवि: आप मोहवश व्यर्थ सोच करती है, विधाता का मायाजाल ऐसा ही अचल व अनादि है। यह कहते हुए उन्होंने कहाकि-
लखनु राम सिय जाहिं चन भन परिनाम न पोच।
गहवीर हिय कह कोशल मोहि भरत कर सोच॥
अर्थात लक्ष्मण, राम और सीता वन को जावें इसका परिणाम अच्छा है बुरा नहीं है और उन्होंने गदगद हृदय से कहाकि मुझे तो भरत की चिंता है। मुझे पुत्र और पुत्र वधु से कोई शिकायत नहीं है। उनका यश चरित्र गंगा के समान निर्मल व पवित्र करने वाला है। हे देवी माता आप तो विवेक निधि की वल्लभा हैं, स्वयं ज्ञानी हैं। हम आपको उपदेश नहीं कर सकते। आप राजा से अवसर पाकर मेरी ओर से निदान करना कि जिस तरह भरत के प्राणों की रक्षा हो सभा में उन्हीें यत्नों पर विचार किया जावे यथा
रानिरायसन अवसर भाई। आपनि भांति कहब समुझाई।
रखि अहिलखनु भरत त्रहिं। जो यह मत मनाई महपि मन॥
तो भला जतन करब सुविचारी। मोरे सोच भरत कर भारी॥
कौशल्या जी के भाषण को सुन कर दोनों राज समाजों की देवियां दांतों तले उंगली दबा कर रह गईं, उनके भाषण से सभी के अधिकारों की सुरक्षा हो गई, होने वाली वैमनस्यता समाप्त हो गई।
आप विचार करें कि कैकेयी ने जिस कौशल्या के बेटे को चौदह वर्ष वन की ठोकरें खाने को वन में भेजा था, वही कौशल्या जी कैकेयी के बेटे भरत पर प्राण पन से निछावर जा रही हैं। इस पर कैकेयी को अपने कृत्य के लिये पछतावा करना पड़ा।
संभाषण में शिष्टïाचार और व्यौहार करते हुए अपने कर्तव्यों का पालन कर समाज के अधिकारों को सुरक्षित रखने से समाज में सुन्दरता आवेगी और सुन्दर समाज का निर्माण होगा।
श्रीराम का वन जाना सबके लिये हितकर था यदि वे राज्य पद स्वीकार कर अयोध्या के महलों में रहना स्वीकार कर लेते तो उनके जीवन में इतनी चमक न आती और उनके प्रति लोगों का इतना आकर्षण होता। उन्होंने वन में जाकर, वनवासी कोल भीलों से, पर्वतीय लोगों से, वानरों व उनके साथ-साथ उन्हें जो ऋषि, मुनि मिले सत्पुरुष मिले उनके सुख-दुख को समझा।
उनकी समस्याओं को समझा। उनका सुख-दुख समझे बिना यदि रामचन्द्र राजा होकर बैठ जाते तो उन्हें वन्य प्रदेश की समस्याओं का पता ही नहीं चलता उससे वे अपना सुशासन स्थापित नहीं कर पाते और न समाज में सुन्दरता आती। समाप्त