’’रायसेन वाले बाबा‘‘ एक महान सूफी सन्त -हज़रत शाह फतेह उल्ला चिश्ती

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हमारे मुल्के हिन्दुस्तान जन्नत निशान हमेशा रूहानियत व मार्फत का सर चश्मा और इल्म व इस्फों (ग्यान व ध्यान) का गेहवारा रहा है।
पुराने जाने से यहां के अहले इल्म और दानवर मुजाहिदों रूहानी रियायतों (तपस्याओं) के जरिये तलाश हक से सरगरदान रहे हैं।
हयाते व कायनात के भेदों और इन्सानी जिन्दगी की गरज व गायत और उसकी हिकमतों के समझने में उन्होेंने अपनी उमरे बिता दी हैं।
अक्ल व दानिश और रूजदान के जरिये हकीकत की याफ्त के लिये जो जो कावशी की गयी उनका मसलक तेहरीर परवाने से हमारे मुल्क में 6 फलसफे आलिम वजूद हैं जिसके अन्दर खुदा की मार्फत इन्सान की असलियत और दरयाफ्त हकीकत को असल मीजू करार दिया है।
छटी सदी ई. में जब इस्लाम का सूरज अरब के अफक से तुलू हुआ और अहदे खिलाफत में इसकी शुआएं वजीरह अहब से आगे बढकर बहर हिन्द पर पडने लगी तो पहली सदी हिजरी ही से हमारा मुल्क इस्लाम की रूहानी रोशनियों से मुनव्वर होने लगा।
सच्चे मुसलमान ताजिरों खुदा परस्त दरवेशों के वास्ते से इस्लाम की सदाये हक जो मक्का की पहाडियों से उठी थी वह मदीना की ज्यादियो से निकल कर रोम व ईरान में गूंजी थी इसकी गूंज हमारे मुल्क के साहिली इलाकों मे सुनाई दी जानी लगी। और फिर इस्लाम ने इसी सरजमीन अमन आईन में आहिस्ता-आहिस्ता अपने कदम जमाये। चूंकि हमारे मुल्क में ऋषियों मुनियों साधु सन्तों और सच्चाई के तलबगारों का हमेशा से बोलबाला रहा है और उनके रूहानी करिश्मों (चमत्कारों) ने यहां के अवाम् व खास के दिलों पर मुसब्बित असरात मुरत्तब हुए इबतेदा साहिली मुकामात फिर मुल्क के अन्दरूनी खतों दीन के दाईयों और सच्चे फकीरों और दरवेशों के काफिले यहां उतरते रहे और खुदा के सच्चे आशिक मुहब्बत खुदाबंदी के पैगाम से लोगों के दिलों को रोशन करते रहे।
यहां तक ख्वाजा ख्वाजगा सिलसिला हिस्तीया के मीर कारवां हजरत ख्वाजा मुईनउद्दीन चिश्ती रह. अजमेरी की तशरीफ आवरी ने हक अैर सच्चाई की कुबूलियत की रफ्तार को तेज कर दिया।
ख्वाजा बुजुर्ग के इस मुल्क में मुस्तकबिल कयाम फरमाई और पैगाम खुदाबंदी की कुबुलियत ने इस मुल्क की काया पलट दी,, गौरी के मशहूर आलम हमले से बहुत पहले हजरत ख्वाजा इस मुल्क के बाशिंदों के दिलों को अपनी पाकीजा जिन्दगी और सौज व मिजाज बातनी ले जीत चुके थे।
जुनूबे हिन्द साहिली इलाके जो पहली सदी हिजरी से इस्लाम के दावती मरकस बन चुके थे अब ख्वाजा साहब की सादगी और मुहब्बत और खल्के खुदा के साथ बेपाया शफकत और खिदमत ने शुमाली हिन्द बाशिंदों के दिलों के पट खोल दिये। हजरत ख्वाजा साहब और खुदा के सच्चे आशिक जिनको हम सूफिया इकराम कहते हैं।
यह सब हुजूर पुर नूर सल. की शान रहमतुललिल आलमीन के आईजदार और मखूल के खुदा के सच्चे राम गुसार व खिदमत गुजार थे। इसलिए इस मुल्क के बाशिंदों के इस वक्त के हाल जार को देखकर इनके दिन पिघल गये। आम लोगों की मार्फत इलाही से महरवी और इन्सानों के नाबराबरी के माहौल से मलूलेखातिर और पिसर मुरदह हुए। और इनकी आंखें आंसू बरसाने लगी उन्होंने यहां के पिछडे हुए लोगों को सीने से लगाया। यहां के पढे लिखे और दानिशवर इन्सानों के सामने ईमान व इरफान, ज्ञान व ध्यान की दावत पेश की और अपने खिलफा और मुरीदों को मुख्तलिफ इलाकों में फैला दिया।
फतवेमालवा हजरत शाह फतेहउल्ला चिश्ती रह. का सिलसिला भी ख्वाजा बुजुर्ग से मिलता है। हजरतशाह फतेह उल्ला का नाम नामी और आपके अहबाब गिरा का चर्चा वस्क हिन्द के इलाकों में सदियो से चला आ रहा है। लेकिन शाह साहब का ख्वाजा साहब से ताल्लुक था और किसके खलीफा थे शाह साहब की आमद इस इलाके में कब हुई इस सिलसिले में तारीख खामोश हैं इसलिए मुखतलिफ कयास आराईयां की गईं। बाज लोगों ने इनको हजरत निजामुद्दीन औलिया का खलीफा बताया कि हजरत सुल्तान औलिया ने जब सूबा मालवा में ख्वाजा ग्यासुद्दीन और मौलाना कमालउद्दीन को धार में और ख्वाजा मुगीसउद्दीन को उज्जैन में और ख्वाजा वजीउद्दीन को चंदेरी में भेजा था। तो शाह साहब को इस इलाके में रवाना फरमाया होगा। और कुछ लोगों ने शाह साहब को हजरत ख्वाजा नसीर उद्दीन चिराग देहलवी (खलीफा सुल्तान औलिया के शाह साहब खलीफा है) जब हजरत ख्वाजा सैय्यद मोहब्बत गेसू दराज को दक्खन के लिए नामजद फरमाया तो शाह साहब को मालवा भेज दिया होगा। लेकिन इन दोनों बातों के सिलसिले मे ंयह सवाल पैदा होता है कि इन दोनों बुजुर्गों का जमाना तारीखे इस्लामी का हिन्द का रोशन जमाना है रूहानियत के इन आफताब व मेहताब शख्सियतों के मामूली सितारों का जिक्र भी इस दौर के किताबों में मिल जाता है। लेकिन हजरत शाह फतेहउल्ला का नाम कहीं भी नहीं है। इसलिए मानना पडेगा कि शाह साहब का अहद इन से पहले का अहद है और यह अहद ख्वाजा बुजुर्ग का अहद था जबकि तारीख इस्लामी हिन्द का सूरज उफक पर न चढ सका था और मोरशीन के कदम इन दयार में न बढ सके और न कलम उठ सके।
जिनकी तस्दीक किताबात से होती है और जो दरगाह में मिले हैं अगरचे वह कहते मर मिटे हैं। लेकिन ख्वाजा और मुईन साफ जाइरा हैं। जिसे इस अवामी रिवायत की तस्दीक हो जाती है कि शाह फतेह उल्ला रह. ख्वाजा बुजुर्ग के ख्वाहर आजा थे या भान्जे थे।
बहरहाल सूबा मालवा में भोपाल की सरजमीन की यह खुशनसीबी है कि हजरत ख्वाजा साहब के भान्जे हजरत शाह फतेहउल्ला चिश्ती अजमेर से पुरखतर जंगलों व दुश्वार गुजार रास्तों को तय करते हुए 555 हिजरी में बमुकाम रायसेन पहुंचे और इस तरीखी कस्बा रायसेन से कुछ फासले पर दूर अपना मुसल्ला बिछा दिया।

हजरत शाह फतेहउल्ला साहब का लकब शरफुद्दीन अव्वल है जो कितबा हरूफ मिसबत से मालूम होता है। जब हजरत शाह साहब यहां तश्रीफ फरमा हुए तो जमीन सख्त थी, आस्मां दूर था का किस्सा था।
तौहीदे इलाही की आवाज इस सरजमीन के लिए नई और अजनबी आवाज थी। इसलिए लोगों ने इस पर कान धरा बल्कि आपके मुखालफत पर आगे आए। रायसेन और उसके दरबारियों ने शाह साहब की मुखालफत पर कमर बांध ली थी और शाह साहब और उनके मुखलिस साथियों पर जुल्म के पहाड तोडने शुरू किए। लेकिन हजरत शाह साहब और उनके मुरीद इस्तेकामत की चट्टान बन कर अपनी जगह पर जमे रहे, हजार हा तूफान मुखालफत के उठे लेकिन कोव इस्तेकामत की इस चट्टान से टकरा कर वापिस हो गये।
लेकिन राजा का वलीअहद (राजकुमार) हजरत की करामत व शान इस्तेकामत से इस कदर मुतास्सिर हुआ कि वो शाह साहब के दस्त हक पर बेअद हो गया और फिर शाह साहब की तालीम व तरबियत और फैज मुहब्बत से दरजा वलायत को पहुंच गया और इस तरह कुफ्र व शिर्क और हक नासनाशी के इस फैले हुए समन्दर में हक परस्ती का एक जजीरा उभर आया। शाह साहब की दावत मकबूलियत पर इस इलाके में हलचल मच गई और राजा के मुखालफत का एक मिहाज बना लिया। लेकिन वह मर्द हक खामोशी के साथ अपने काम को आगे बढाता रहा और अपने अखलाक हुस्ना, खिदमत खल्क के जरिए लोगों के दिलों पर अकीदत और मोहब्बत का नक्श बिठाता रहा। चुनांचे कुबूलियत का दायरा वसी होता गया।
हजरत शाह साहब अपने मुरशिद रूहानी ख्वाजा बुजुर्ग के कमालात का आईना और इश्क व मोहब्बत इन्स व मुहब्बत के पैकर और जामली रंग के बुजुर्ग थे, इसलिए वो इन मुखालफतों को खंदा पेशानी के साथ बर्दाश्त करते रहे।
अलबत्ता जबल का सीना ब सीना रिवायत और अवामी हिकायत से मालूम होता है कि हजरत शाह साहब के मजीद खलीफा राजकुमार जनाब पीर मसलेहउद्दीन के लकब से मलकब हो चुके थे। उनको मुखालिफोें के मुकाबले के मैदान जिहाद में उतरना पडा और इर्द-गिर्द के राजाओं और जमींदारों से मुठभेड के मवाके पेश आते रहे। लेकिन वो इन तमाम मरहलों में कामयाब व सुर्खरू होकर निकले। बहरहाल यह मुकाम जहां शाह साहब रहमतउल्ला अलेय ने तरह इकामत डाली। खैराबाद के नाम से मौसूम होकर इस्लामी तालीमात का मरकज बन गया। शाह साहब रह. के मजार का तजकेराह सबसे पहले सुलतान अलतमश के अहद 622 हिजरी में मिलता है। जबकि इसने किला रायसेन पर शाह साहब की करामत से फतेह पाई।
फिर मेहमूद शाह खिलजी जो शान मालवा में बुजुर्ग दीन का अकीदत मंद बादशाह था इसने जिस तरह शाह अब्दुल अहद चिंगाल और राजा भोज का मकबरा तामीर फरमाया। इस तरह दरगाह शरीफ की तामीर में 761 हिजरी में इसका हाथ रहा। फिर गयासउद्दीन खिलजी के वजीर खातिमुल मुल्क ने 761 हिजरी में यहां एक मदरसा तामीर कराया और इसके बाद निजाम शाह सूरी ने 951 हिजरी में दरगाह शरीफ में एक सराय और एक कुंआ तामीर कराया। फिर फर्रूखसियार बादशाह मुगल ने परवाना माफी जागीर व कस्बा 15 जिलहिज 1134 हिजरी में जारी किया। नवाब फैजबहादुर और नवाब सिकन्दर जहां बेगम ने मस्जिद तामीरात कीं।
0 स्व. हजरत मौलाना सैयद आबिद अली वजदी उल हुसैनी,