(इृसरी किश्त)
फिर रामचन्द्र के गुणों की प्रशंसा करने लगे। मतदाता मतदान करने में कितना निर्भीक व स्वतंत्र था। राजा दशरथ से तो कहते हैं कि आप जियऊ जमतपति बरसकरारी, पर श्रीराम को युवराज पद्मश्री दे दो यह मेरी विनती है। कितनी निर्भीकता थी उस समय, स्वयं राम कहते हैं कि- जो अनीति कछु भाषो भाई। तो मोहि वरजऊॅ भय बिसराई।। (मानस) श्रीमद्भागवत में श्री राम के जीवन का जो संक्षिप्त वर्णन आया है उसमें दो विशेषण लगाये गये हैं। उदा. सितलोकाय, और उपशिक्षितात्मते। उपासितलोकाय का अर्थ है, उपासितलोकोयन अर्थात् श्रीरामचन्द्र लोगों की उपासना करते हैं वे ईश्वर ब्रह्मï या आत्मा की उपासना नहीं करते लोक की जनता की उपासना करते हैं। जहां देखो वहां श्रीराम प्रजा के साथ बैठे हुए हैं तथा उनके सुख-दुख का भाव अभाव का और उसकी सम्पन्नता विपन्नता को जानते समझते हैं जो जिसकी उपासना करता है उसमें तन्मय हो जाता है। श्रीरामचन्द्र अपनी प्रजा के साथ तन्मय हो गये हैं।
इसी तरह उपशिक्षतात्मते का अर्थ है कि उन्होंने अपने मन को शिक्षा देकर अपना शिष्य बना लिया है। जो उनके अनुशासन में चलता है पर आज उल्टा है हमारा मन हमारी सत्ता बनी रहे है इसकी उपासना करते हैं। मन के अनुसार मनमाना करते हैं। दूसरों को उपदेश देते हैं और स्वयं उपदेश पर नहीं चलते हैं।
भगवान ऋषभदेव ने जिस प्रकार अपने पुत्रों की शिक्षा दीक्षा का सुप्रबन्ध किया उसी प्रकार अपनी प्रजा की शिक्षा दीक्षा का सुप्रबन्ध किया, उनकी दृष्टि में प्रजा और पुत्र में कोई भेद नहीं है। संस्कृत भाषा में पुत्र को प्रजा व प्रजा को पुत्र कहते हैं। इसलिए ऋषभदेव जी अपनी सारी प्रजा को औरस पुत्र के समान मानते थे। उन्होंने अपने पुत्रों को अपनी प्रजा के सामने उपदेश दिया।
नायं देहि देहभांजा नृलोके कष्टान रामानर्हे विङभुजायें।
तपो दिव्यं पुत्र कायेन सत्वं शुद्धयें यस्माद् ब्रह्मïसौव्यं त्वनन्तम।।(भागवत)
अर्थात् मेरे प्यारे नन्हें मुन्ने बच्चों मेरी बात ध्यान से सुनो। यह शरीर कामनाओं में फंसकर व्यर्थ गवाने के लिए नहीं है। भोग की प्राप्ति तो गुबरैलों को भी, भिष्ठा के कीड़ों को भी हो जाती है और वे उसमें खुश भी रहते हैं। यदि तुमने मनुष्य होकर भारतवर्ष में जन्म लेकर भी वही भोग प्राप्त किये तो तुमने अपने जीवन में क्या पाया? तुम्हारी जन्मभूमि भोग भूमि नहीं, धर्म भूमि है इसमें अपनी इन्द्रियों को संयमित और विषय भोगों को मर्यादित करना चाहिए। जिसके जीवन में मर्यादा नहीं, संयम नहीं वह मनुष्य कहलाने योग्य नहीं है।
जिस प्रकार आजकल निर्वाचित सदस्य और मंत्रीमण्डल के गठन होने के उपरान्त शपथग्रहण होता है उसी प्रकार पूर्व में भी शपथग्रहण होता था प्रत्येक सभासद मंत्री यह शपथ लेता था कि
आपदवामियचक्षसां मित्रवयं च सूर्याय व्यचिष्ते बहुउपाये स्वराज्यते आहिते महिं।
अर्थात. मैं ईश्वर को साक्षी करके यह शपथ करता हूँ कि इस भू मण्डल पर स्वराज्य स्थापित करने के लिए सूर्य की तरह निश्चल बनकर अर्थात् समस्त प्रकार के भेदभाव पक्षपात से विरक्त होकर जिसका पालन बहुमत या बहुतों द्वारा होता है की स्थापना के लिए शपथ लेता हूँ ईश्वर मुझे सामथ्र्य दे।
आज जो शपथग्रहण होता है वह वेदानुकूल है पर अब केवल शपथग्रहण एक औपचारिकता है। बाद में शपथकर्ता को यह ध्यान में ही नहीं रहता है कि हमने क्या शपथ की थी तथा दलगत, जातिगत, देशगत किसी न किसी प्रकार पक्षपात होता रहता है। स्वराज्य शासन व लोकतंत्र शासन जनता द्वारा निर्वाचित नेताओं द्वारा चलाया जाता है। वैसे तो आज गांव-गांव, गली-गली व दलों में नेता हैं और सभी नेता बनना चाहते हैं पर नेता कैसा होता है उसका स्वरूप क्या है इस पर विचार करें। नि,घात में ता प्रत्यय जोडऩे से नेता, त्र जोडऩे, से नेत्र तथा पा जोडऩे से नृपाल बनता है। अर्थात् उक्त प्रत्यय जोडऩे पर नेता, नेत्र, नृपाल या तृप बनता है। जिसका अर्थ होता है ले चलने वाला। प्रश्र होता है कहां ले चले तो कहा कि- कुपथ निवारी सुपंथ चलावा। गुन प्रकटई अवगुनहि दुरावा। (मानस)
अर्थात् बुरे मार्ग को छोड़कर सद्मार्ग पर चलाना है। अब प्रश्र उठता है किसे चलायें जनता का या समाज का स्वरूप क्या है तो कहा कि-
गनीं गरीब ग्रामनर नागर। पंडित मूढ़ मलीन उजागर।।
सुकवि, कुकवि निज मति अनुहारी। नृपहि सराहत सब नर नारी।। (मानस)
अर्थात् अमीर-गरीब, देहाती व नागर (शहर के रहने वाले) पण्डित व मूर्ख, मलीन व्यक्ति व उजागर, सुकवि अैर कुकवि यह दस प्रकार की जनता है। इनको ले चलना है। आप विचारें सभी वर्ग एक दूसरे के विपरीत हैं और नेता, नृपाल को इन सभी को ले चलना है विचार करें तो वर्ग एक दूसरे के विपरीत हैं उन्हें सनमार्ग पर चलाने के लिए नेता अथवा नृपाल में क्या गुण आवश्यक हैं उसका उत्तर देते हुए मानस में कहा है कि नेता में पांच गुण होना आवश्यक है। वे हैं
साधु सुजान सुशील नृपाला। ईश अंश भव परम कृपाला।
साधु गुण से अमीर और गरीब को, सुजान गुण से ग्रामीण व शहर वासी को, सुशील गुण से पण्डित व मूढ़ को, मलीन जिन्हें आज की भाषा में दलित या अछूत कहते हैं व उजागर को ईश अंश भव गुण से अर्थात् सबमें ईश्वर है व सबमें ईश्वर का दर्शन करता हुआ द्वेष या घ़ृणा व भेद बुद्धि नहीं करता व सुकवि व कुकवि में अर्थात् प्रशंसा व बुराई करने वाले पर कृपाल गुण का प्रयोग करेगा। आगे कहा है कि-
सुनि सनमानहि सवहिसुवानी। भनिति भगति नति गति पहचानी। (मानस)
नेता अथवा शासक विनय सुनत पहचानत प्रीति, अर्थात् जनता की विनय सुनते हैं सबकी प्रीत को पहचानता है सबकी विनय सुनते हैं और प्रेम के अच्छे शब्द बोलकर बड़ी मिठास के साथ सबका सम्मान करते हैं। इसका काव्य कैसा इसका प्रेम कैसा है, इसकी विनय कैसी है, किसकी पहुंच कहां तक है सब पहचानकर सत्कार करते हैं, रामचरित मानस में साधु चरित्रवान को माना है साधु वेश को प्रधानता नहीं दी है कहा गया है कि-
उदरहि अन्त न होई निवाहॅू। काल नेमि जिभि रावण राहू।। (मानस)
सियदि कुवेषु साधु सनमान। जिमि जग जामवंत हनुमान।।
साधु का भेष तो पूजा कराने, आदर पाने के लिए बना लेते हैं मगर अन्त में पोल खुल जाती है, आज भी देख रहे हैं। अन्त में भेद खुल जाते हैं निरावरण हो जाते हैं उनका पर्दा हट जाता है और फिर निर्वाह नहीं होता जैसे कालनेमि को हनुमान जी ने पहचान लिया और रावण को सीताजी ने पहचान लिया था वह यति त्रिदण्डी का भेष बनाकर गया था। राहु को भी पहचान लिया वह देवताओं के बीच में बैठा था तो उसके दो टुकड़े हो गये इसी प्रकार जो लोग भेष बनाकर उम्भ करके पूजा करवाते हैं उनका अन्त कभी न कभी उघड़ जाता है और फिर उनका निर्वाह नहीं होता है, यदि सद् पुरूष कुभेष भी बना ले मैला कुचैला भी बन जाये तब भी उसका सम्मान होता है जैसे जामवंत भालू का भेष बनाकर रहते हैं और हनुमान जी वानर का भेष धारण करके रहते हैं तब भी लोग उनकी पूजा करते हैं, उनको दिव्य रूप धारण करके, गौर वर्ण धारण करके जाने की क्या जरूरत है, उनका तो उसी भेष में सम्मान होता है। सज्जनों के चरित्र में बहुत बात मिलती है साधु का चरित्र कैसा होता है तो कहा-
साधु चरित सुभचरित कपासू। निरस विषद गुणमय फलजासू।
जो सह दुख परिछिद्र दुरावा। वन्दनीय जेहि जग जस पावा।। (मानस)
कपास के फल में विशेषता है कि वह नीरस होता है रूई लगी रहती है उसमें, और उज्जवल होता है, गुणवान उसमें रेसे होते हैं। जिनसे बाद में चलकर सूत बनता है सूत से कपड़ा बनता है कपड़ा बनकर वह दूसरों के शरीर के छिद्रों (दोषों) को ढकता है दुनिया में कपड़े की कितनी इज्जत है बिना कपड़े के तो बेइज्जत होता है। सबकी इज्जत बढ़ाने वाला कपड़ा है, आप विचारें यह रूई में रेसे जो हैं बेचारे काटे गये सूत बने मशीन पर चढ़ाये गये और बुने गये कितनी मंजाई इनकी हुई क्या-क्या इनके अन्दर लगा तो यह दुख तो सहते हैं लेकिन कपड़ा बनकर दूसरे को छिद्रों को ढकते हैं। इसी प्रकार जो सज्जन होते हैं साधु होते हैं उनका स्वभाव होता है कि अपने लिए तो वे दुख सह लेते हैं लेकिन दूसरे के छिद्रों (दोषों) को ढक देते हैं अर्थात् परदोष दर्शन नहीं करते हैं बल्कि, गुन प्रकटई अवगुनई विरावा, यह गुण होना आवश्यक है।