श्री रामचरित मानस में राजनीति दर्शन

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(पांचवी किश्त)
स्वराज्य
रामचरित मानस में सुराज का वर्णन करते हुए मानस-कार गोस्वामी तुलसीदास जी ने निम्न पंक्तियां लिखी हैं :-
जाई सुराज सुदेस सुखारी। होहिं भरतगति तहिं अनुहारी।
रामवास वन संपत्ति भ्राजा। सुखी प्रजा जनु पाई सुराजा॥ (2/234/4-5)
इस प्रसंग में लिखा गया है कि पहले प्रजा ईति भीति से दुखी थी। ईति छह प्रकार की होती है, यथा
‘अति वृष्टिï अनावृष्टिï मूर्षका: शलमा: शुका:।Ó
प्रत्यासन्ताश्च राजन: षड़ेता ईतय: स्मृता॥
अतिवृष्टिï, अनावृष्टिï, चूहे, टिड्ïडी, सुग्नो का आक्रमण तथा राज्यों का आक्रमण यह छै प्रकार की ईति होती है, इससे प्रजा बड़ी दुखी होती है। त्रिविधि साप पीडि़त हो, गृहमारी हो, लेकिन जब सुराज और सुदेश में पहुंच जाती है तो सुखारी हो जाती है। फिर कहाकि ‘आलिंगन गावत नाचत मोरा। अनुसुराज मंगल चहुंओरा।Ó (2/235/7)
सुराज में तो चारों ओर मंगल ही मंगल होता है पर आज तो सुराज पाने के बाद चारों ओर अमंगल दिखाई दे रहा है। यथा
विविध जंतु संकुल महिं भ्राजा। प्रजा वाद जिमि पाई सुराजा। (4/14)
प्रजा तो इतनी बढ़ रही है कि उपाय करने पर भी नियंत्रण नहीं हो पा रहा है। जब यह कहा गया कि-
अर्क जबाव पात चिनु भयऊ । जस सुराज खल गयऊ। (4/15/3)
यह पढ़ कर तो आश्चर्य होता है कि सुराज्य में खलों का उधम चल जाता है। आज तो सब विपरीत लक्षण दिखाई दे रहे हैं। जो दशा सुराज्य पाने से पहले देश व समाज की थी उससे बदतर हालत हो गई आज तो
बाढ़े खल चहुं ओर जुआरा। जे लपट पर धन परदारा।
मानहिं मातु पिता लेहि देवा। साधुन्हसन करवावहिं सेवा। (1/183/1-2)
व दशा ज्यों हो गई कि-
असभ्रष्ट अचारा भा संसात धर्म सुनिअ नहिं काना।
तेहि बहुविधि आसहिं देश निकासइ जो कह वेद पुराना॥
स्वराज्य तो प्राप्त है परंतु समाज व देश की वर्तमान दशा व राजनीति को देख कर स्वत: प्रश्न होता है कि क्या इसी का नाम स्वराज है यदि नहीं तो वेदों रामायोगं में वर्णित स्वराज का स्वरूप क्या है। आखिर भूल कहां है-
ऋगवेद में स्वराज शब्द लिखा है। यदि इसका अर्थ यह किया जाये कि स्व मायने अपना व राज्य अर्थात अपना राज्य तो गुटबंदी व भ्रष्टïाचार स्वयं बढ़ जायेगा। तथा सत्तारूढ़ दल अपने स्वीकीयों के व दल के सुख सर्वधन के लिये सत्ता का दुरुपयोग करने लगेगा तथा जनता के सुख संवर्धन से कोई मतलब नहीं, स्व की पूर्ति के लिये ही करेंगे। अत: अर्थ वेद में यह लिखा गया कि स्वराज्यं का च स्वराज्यं। जो सबका मंगल करने वाला राज्य है।
असल में ऋगवेद में वर्णित स्वराज्य का अर्थ गलत किया गया है। जिसका परिणाम सबके सामने है।
स्वराज्य का अर्थ अपने पर शासन करना है। हम अपने आपके शासक, नेता व गुरू बने। शासक, गुरू और नेता में थोड़ा-थोड़ा भेद है। शासक बल के द्वारा, नेता विधान के द्वारा और गुरू ज्ञान के द्वारा सुधार करने का प्रयास करते हैं। परंतु मरे भाई मानवता तो एक अनूठी प्रेरणा देती है और वह यह कि यदि हमें नेता होना है तो पने ही नेता बनें, यदि हमें शासन करना हे तो अपने ही पर शासन करें और यदि गुरू बनने की कामना है तो अपने ही गुरू बनें। मानवता के इस दृष्टिïकोण को जब हम अपनायेंगे तो हम अपने को ही अपना शिष्य और अपने को ही अपना समाज और अपने चरित्र को ही अपनी प्रजा बना लेंगे। यह नियम है कि जो अपना गुरू, अपना नेता व अपना शासक हो जाता है, वह सभी का शासक, गुरू, नेता बन जाता है। उसका जीवन ही विधान बन जाता है जिसकी समाज को मांग है।
अगर यह प्रश्न किया जाये कि हम अपने गुरू शासक व नेता कैसे बने। भौतिकवाद की दृष्टिï से मानव मात्र को जो विवेक प्राकृतिक नियमानुसार मिला है, आस्तिक वाद की दृष्टिï से जो विवेक प्रभु की अहेतुकी कृपा से मिला है, अध्यात्म वाद की दृष्टिï से जो अपनी ही एक विभूति है। वह विवेक ही वास्तव गुरू, नेता व शासक है, जो प्रत्येक भाई बहिन को स्वत: प्राप्त है। पर खेद तो यह है कि हम उस विवेक का प्रयोग अपने समस्त जीवन पर न करके समाज पर करने की सोचते हैं। समाज और संसार इन्द्रिय जन्म ज्ञान पर विश्वास करता है व जैसा देखता है वैसे बनता है। मानव को विवेक स्वयं होने के लिए मिला है।
अत: यह अनिवार्य हो जाता है कि हम अपने विवेक से अपने ही दोषों का दर्शन करें और तप, प्रायश्चित एवं प्रार्थना आदि वृतों द्वारा अपने को निर्दोष बनावें। प्रायश्चित तथा तप द्वारा शासन हो सकता है और प्रार्थना द्वारा हम आवश्यक बल प्राप्त कर सकते हैं और शुद्घ संकल्पों का व्रत लेकर हम अपने पर नेतृत्व कर सकते हैं।
इस प्रकार से सुराज्य शासन का वर्णन करते हुए रामचरित मानस में वर्णन किया गया है यथा:
सचिव विराग विवेक नरेसू। विपिन सुहावन पावन देसु।
भट यम नियम सेल रजधानी। सांति सुमति सुचि सुन्दर रानी॥
सकल अंग सम्पन्न सुराऊ। रामचरित आश्रित चित्त चाऊ।
जीति मोह महिपाल दल सहित विवेक भुआल।
करत अकंटक राजपुरं, सुख सम्पदा सुजान। (1(2/235))
-नर्बदाप्रसाद वर्मा, मानस मर्मज्ञ
‘रामायणÓ 67-सुभाषपुरा, ललितपुर