दुनिया में बहुत कम स्थान ऐसे हैं, जहां सभी धर्मों और तबकों के लोग समान श्रद्धा और आस्था के साथ जाते हैं। इनमें से एक है अजमेर में ख्वाजा गरीब नवाज की दरगाह। यह दरगाह सूफी संप्रदाय का भारत में सबसे बड़ा तीर्थ है। देश में इस्लाम का प्रचार-प्रसार सूफी संतों के माध्यम से ही हुआ था। जो इराक और ईरान से भारत में आये थे। इनमें हजरत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती प्रमुख थे। जिनकी पहचान देश में ही नहीं, दुनिया में भी अजमेर वाले बाबा या ख्वाजा गरीब नवाज के रूप में है। इन्होंने शांति और सह-अस्तित्व का पाठ पढ़ाते हुए पश्चिम एशिया और भारत की संस्कृतियों का ऐसा संगम अपने भक्ति आंदोलन से पूरे देश में प्रसारित किया कि भारत में हिंदू और मुसलमानों की अलग-अलग पहचान करना मुश्किल-सा हो गया।
12वीं और 13वीं शताब्दी के आसपास सभी सूफी संतों का देहावसान हो गया, तब इनके शिष्यों ने इनकी मजारों पर ‘उर्सÓ आयोजित करने शुरू किये। जो हिंदू, मुसलमान, सिख, ईसाई सभी के लिए एक सामूहिक त्यौहार बन गये। उर्स-संबंधित सूफी संत की पुण्यतिथि पर आयोजित होते हैं। इस दिन भक्तगण दरगाहों पर जाकर मन्नत मांगते हैं। ख्वाजा गरीब नवाज का उर्स शानो-शौकत और अकीदत के साथ मनाया जाता है। इस बार 792वां उर्स इस्लामी कैलेंडर के मुताबिक 1 से 6 रज्जब यानी 18-26 अगस्त, 2004 तक मनाया गया। एक हफ्ते तक तरह-तरह के कार्यक्रम चलते हैं। झंडारोहण के बाद पहले ही दिन जन्नती दरवाजा खुला। छठी शरीफ को सालाना फातेहा हुई। इस बीच तरह-तरह की रस्मों व परंपराओं की अदायगी की गयी। श्रद्धालुओं ने मजार शरीफ के दर्शन किये। दुवाएं मांगीं और मन्नतें मानीं। कव्वालियों के दौर से आस्तान गूंजा। इस उर्स में दुनिया के कोने-कोने से श्रद्धालु ख्वाजा गरीब नवाज की दर पर आते हैं।
अजमेर के हजरत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती को भारत में सूफी परंपरा का पितामह माना जाता है। इनके अलावा भारत के अन्य सूफी संत दिल्ली के हजरत निजामुद्दीन और हजरत ख्वाजा कुतबुद्दीन बख्तियार ‘काकीÓ, कलियर के हजरत मखदूम अलाउद्दीन साबिर और पट्टन के बाबा फरीदुद्दीन की भी दरगाहें हैं जिनकी दरगाहों पर हर बरस मेले लगते हैं। इमाम गजाली (मृत्यु-1111), और अबुल कासिम अल कशारी (मृत्यु- 1072) को सूफी संप्रदाय का जन्मदाता माना जाता है, लेकिन सूफी मत को असली स्वरूप गौस-उल-आजम महबूब सुभानी हजरत शेख अब्दुल जिलानी (मृत्यु- 1166) ने दिया। आपकी दरगाह बगदाद में है। 12वीं शताब्दी में इन्हीं सूफी संत ने शांति और मोहब्बत का संदेश इराक से भारत तक फैलाया था। ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती इन्हीं के शिष्य थे।
ख्वाजा गरीब नवाज का जन्म 537 हिजरी में ईरान के खुरासन प्रांत के संजर शहर में हुआ था। नौ साल की कम उम्र में ही उन्होंने कुरान शरीफ को जुबानी याद कर लिया था, फिर थोड़े ही समय में कई महत्वपूर्ण धार्मिक ग्रंथों का भी अध्ययन कर लिया। भारत आने के बाद ख्वाजा गरीब नवाज अंतिम समय अजमेर में ही रहे। माह रज्जब 633 हिजरी अर्थात 1129 को ख्वाजा गरीब नवाज पहला चांद देखकर अपने हुजरे यानी कमरे में चले गये और सेवकों को निर्देश दिया कि कोई मेरे पास न आये। रजब की तीन तारीख तक हुजरे से इबादत की आवाज आती रही, लेकिन चौथी और पांचवीं रजब जब आवाज नहीं आयी तो सेवकों ने छह रजब को हुजरे का दरवाजा खोला, तो देखा कि आपकी रूह परवाज हो चुकी थी। इस तरह छह रजब को ख्वाजा साहब का स्वर्गवास होना माना गया। तब से आज तक इस्लामी र्व के अनुसार ख्वाजा गरीब नवाज का उर्स अजमेर में उनकी मजार पर धूमधाम से मनाया जाता है, जिसमें देश-विदेश के विभिन्न स्थानों से लाखों श्रद्धालु जाति, धर्म, मजहब के भेदभाव किये बिना हाजिर होते हैं। यहां आने वाले इंसानियत, भाईचारे और एकता का पैगाम लेकर जाते हैं। – रईसा मलिक