खु़ल्क खुदा की मुल्क बादशाह का, हुक्म अली बहादुर का ये नारा था हिन्दोस्तान की जंगे आजादी 1857 ई. के अज़म रहनुमा नवाब अली बहादुर सानी का जिन्होंने ईस्ट इण्डिया कम्पनी अंग्रेजों के खि़लाफ दिया था।
् नवाब अली बहादुर सानी की पैदाईश सन्ï 1835 ई. कोठी नजर ब$ग, बांदा में हुई थी आपके वालिद नवाब जु़ल्फिकार अली बहादुर बांदा के नवाब और हॉफिज-ए-कुरआन थे, साथ ही अरबी, फारसी, उर्दू उलूम के माहिर थे, और साथ ही उर्दू के बड़े शायर भी थे। आपका उर्दू शायरी का एक दीवान मौजूद है जो किम्याब है।
नवाब जुल्फिकार अली बहादुर 31 अगस्त 1823ई. मुताबि$क 22 जिलहिज्जा 1238 हिजरी को नवाब शमशेर बहादुर सानी के इंतेकाल के बाद मसनद नशीन और नवाब बांदा हुए क्योंकि नवाब शमशेर बहाुदर सानी की कोई औलाद नरीजा नहीं थी इस मौके पर अंग्रेजों के जानिब से नवाब साहब को 15 तोपों की सलामी पेश की गई। नवाब साहब बहुत काबिल इल्मदोस्त, मरदम शनास, अक़ीदत मन्द और कदरदॉ रईस थे, आपका दौर तारीखें बांदा में सुनहरा और समझा जाता है, क्योंकि नवाब जुल्फिकार अली बहादुर की तालिमें तरबियत इस ज्यार में हुई थी इसलिए इनका इल्मी ज़ौक बहुत बढ़ा हुआ था इसीलिए इनका इल्मी जोक बहुत बढ़ा हुआ था और दीनी उमूर और दीनियात की तरफ इनकी तवज्जो ज्य़ादा थी। नवाब साहब अब्दुल अजीज साहब मुहद्दिस दहलवी रह. से बेअत थे। नवाब साहब ने शाह मोहम्मद इस्हाक़ सा. से दरख्वास्त की कि अपना कोई खलीफा बांदा के लिये मुकर्रर फरमा दीजिए जो बांदा में दीन की तालीम और तब्लीग का काम अंजाम दे। शाह सा. ने हजरत कारी अब्दुलर्रहमान पानीपती को बांदा रवाना फरमाया। इनके बांदा तश्रीफ लाने से पहले नवाब साहब ने अरबी की आला तालीम के लिये एक मदरसा क़ायम कर दिया था। जिसके सदर मुदर्रिस अ. हलीम साहब फिरंगी महली थे, जब क़ारी अब्दुर्रहमान सा. बांदा तश्रीफ लाए तो नवाब साहब ने बहुत कद्र व मन्जलत की और एक पसन्दीदा जगह आपके रहने के लिए खास फरमा दी। रमजान के महीने में कारी सा. ने तरावीह में कुरआने मजीद सुनाया। बयान कियसा जाता है कि कारी अब्द़ुलर्रहमान सा. फने करातो व तजवीद में इतने जबरदस्त आलिम थे कि उस वक्त दुनिया-ए-इस्लाम में उनके मुकाबले का कोई दूसरा आलिम नहीं था। क़ारी सा. की शोहरत सुनकर दूर-दूर से इस फन को सीखने के लिये मुख़्तलिफ औकात में सात सौ हुफ्फाज और कुर्रा बांदा आए और इन सबकी मेंहमानदारी नवाब जु़ल्फिकार अली बहादुर ने की जिनमें से कुछ शार्गिद हजरात बांदा में ही मुकीम हो गए। नवाब साहब की फिराक़ हौसलगी और कद्रदानी का हाल इससे भी पता चलता है कि मिर्जा असद उल्ला खां गालिब 1827 ई. में जब लखनऊ से कलकत्ता जाने के लिये रवाना हुए तो कानपुर पहुंचकर बीमार हुए इसी बीमारी की हालत में वो बांदा आए यहां खुदा के फजलों करम और नवाब सा. की हमदर्दी, तिमारदारी और इलाज से सेहतयाब हो गये। मिर्जा गालिब का बांदा में 5 माह से कुछ ज्यादा कयाम रहा।
कयाम बांदा में मिर्जा गालिब ने जो ग$जलें कहीं उनके चंद अश्आर दर्ज है :-
‘सत्ताइस गर है जाहिर इस कद्र जिस बाग़े रिजवॉ का
वह एक गुलदस्तां है हम बे खुदों के ताके निस्यां काÓ
आबरू क्या खाक उस गुल की जो गुलशन में नहीं
है गरेबॉ तन्गे पेराहन जो…………….दामन में नहीं
हैरॉ हूँ दिल का रोउ के पीटूं जिगर को मैं
मक़सूद हो तो साथ रखूं नोहा गर को मैं
ग़ालिब खु़दा करें के संवारे समन्दे ना$ज
देखूं अली बहादुरे आली गुहर को मैं
मिर्जा गालिब के अलावा सअदत यार खॉ रंगीन, मुन्शी मोहम्मद ईस्माईल मुनीर शिकोह आबादी (उस्ताद नवाब अली बहादुर सानी) नामी बिलगिरामी, मोहम्मद यार खां यकता व बेदिल लखनवी व दीगर शोऊरा की मौजूदगी नवाब साहब की कद्रदानी का हाल बयान करती है। इनके अलावा हर फन और हुनर के वाकिफ और माहिरीन को नवाब सा. ने बुलवाकर बांदा में आबाद किया और उनकी परवरिश व सरपरस्ती की चुनांचे चन्दी हल्वाई और घनश्याम हल्वाई का ख़ानदान आज भी यादगार के तौर पर आबाद है। नवाब साहब को घोड़े की सवारी और घुड़दौड़ का बहुत शौक था। कानपुर की अंग्रेज छावनी में सलाना घोड़ा दौड़ का मुकाबला होता था नवाब साहब उसमें शरीक होने के लिये हर साल बांदा से कानपुर जाया करते थे। नवाब साहब की उम्र 30 साल की हो गई थी लेकिन औलाद की नेअमत से मेहरूम थे। नवाब सा. को दरवेशों और वलियों से बड़ी अ$कीदत थी, उनसे मुलाकात करते और औलाद के हुसूल के लिए दुआएं कराते। 1834 ई. नवाब साहब घुड दौड़ में शिर$कत के लिये कानपुर तश्रीफ ले गए तो वहां मालूम हुआ कि एक बुर्जुग दरवेश कानपुर के करीब जाजमऊ के मु$काम पर दरिया-ए-गंगा के किनारे मय अपने कबीले के बाहर से आकर मु$कीम हुए है और एक लकड़ी की मस्जिद बनवाकर उसमें ईबादत करते हैं, ये मालूम होने पर जाजमऊ पहुंच कर इन बुर्जुग की खिदमत में हाजिरी दी और अ$र्ज-ए-मुद्दआ किया। इन खुृदा रसीदा बुर्जुग ने नवाब जुल्फिकार अली बहादुर के लिये बारगाह ए खालिके कायनात में बखशिशे औलाद की दुआ की, फज़्ले खुदाबन्दी से वो दुआ कुबूल हुई। बेगम साहिबा हामला हुईं तब नवाब साहब खुद इन बुर्जुग को लेने के लिये कानपुर और जाजमऊ गये और एजाज व इकऱाम के साथ मय कबीले के बांदा लाए और नजर बाग कोठी में उन बुर्जुग का कयाम हुआ। वहीं नवाब अली बहादुर सानी की विलादत 1835 ई. को हुई। नवाब सा. का तामीरात का बेहद शौक था चुनाचें नवाब साहब ने अपने महलात के करीब एक मैदान में जामा मस्जिद, देहली के नमूने पर एक मस्जिद तामीर करायी। सदर दरवाजे पर बांये जानिब तारीख का कतबा नसब है। ये शानदार मस्जिद अब तक मौजूद है, और नवाब बांदा की $िजन्दा यादगार है। दीगर तामीरात में महल के अलावा शहर के हर मोहल्ले में मसाजिद की तामीर करायी। आज भी 60-70 मसाजिद मौजूद है, नवाब साहब की बेगम साहिबा ने भी महल के अहाते में भी एक मस्जिद बेहद खूबसूरत तामीर करायी। नवाब जुल्फिकार अली बहादुर के जमाने में किसी से कोई लड़ाई नहीं हुई ये दौर इंतेहाई अमन व अमान का गुजरा। नवाब जुल्फिकार अली बहादुर ने निहायत शान व शौकत के साथ 27 साल नवाबी करके 1849 ई. में करीब 50 साल की उम्र में इंतेकाल फरमाया और अपने इकलौते बेटे नवाब अली बहादुर सानी को अपना वारिस और जॉनशीं छोड़ा। क्रमश: