दूसरी किश्त:-
नवाब अली बहादुर सानी की उम्र अभी 14 साल की थी के वालिद का साया सर से उठ गया। दो साल बाद अली बहादुर 16 साल के सिन बलूग को पहुंचे तो मसनद नशीनी का दरबार हुआ अंग्रेजों की जानिब से खलअत कीमती 2100/- रूपये पेश की गई। 11 तोपों की सलामी मुकर्रर की गई, नवाब अली बहादुर को अपनी हिफाजत के लिये फौज रखने का पूरा इख्तियार हासिल था जिसके मुताबिक 900 सवाल, 2000 पैदल फौज रखी जा सकती थी7 नवाब अली बहादुर सानी ने अपनी फौज की नफरी की अक सरेनो तरतीब दी और ज्यादातर सिपाहियों को अपनी मुला$जमत अंग्रेजी फौज में पूरी करके पेंशन पाए हुए थे, या अंग्रेजी फौज से मुलाजिमत छोड़े हुए थे मुकर्रर फरमाया। यह सभी तजुर्बेकार सिपाही थे, क्योंकि दीगर इलाकों की तरह बुंदेलखण्ड में भी अंग्रेजो को हुकूमत करते हुए 50-55 बरस का जमाना गुजर चुका था। इस खबर को सुनकर के नवाब अली बहादुर सानी ने अपनी फौज में तर्जुबेकार सिपाहियों की भर्ती की है एक खत के जरिये नवाब अली बहादुर सानी को इत्तेला दी के-
1. आइन्दा से नवाब बांदा का खिताब न लिखा जाए बल्कि सिर्फ नवाब लिख सकते हैं
2. तोपों की सलाती खत्म की जाती है।
3. खुद मुख्तार नवाब न समझे जाएं बल्कि पेंशनयाफता समझे जाएं।
4. नवाब साहब बजाते खुद और इनकी बे$गमात अदालत हाए अंग्रेजी की हा$िजरी से मुस्तसना होंगे लेकिन नवाब साहब के खानदान के दीगर रिश्तेदान इस इसतसना से कोई फायदा न उठा सकेंगे।
5. नवाब साहब अपनी हिफाजत के लिये सिर्फ 25 सवार और 200 पैदल फौज ही रख सकेंगे।
6. पेंशन के चार लाख रूपये सालाना बदतूर कायम रहेंगे।
7. खिलअत इसी तरह दी जाएगी जैसे दूसरे सरदारों को दी जाती है।
इस खत के मिलने पर नवाब अली बहादुर को अंग्रेजी कम्पनी की मुआहिदी शिकनी और बेईमानी का बेहद मलाल हुआ इसलिए नवाब साहब ने एक एहतेजाजी अ$र्जदाश्त गर्वनर जनरल इन कोंसिल ईस्ट इण्डिया कम्पनी के पास कलकत्ता भेजी जो नम्बर 252/15 अगस्त 1856 ई. फैसला नामंजूरी के बाद दाखिले दफ्तर कियसा गया जो अब भी नेशनल ऑरकियालोजिकल डिपार्टमेंट में महफूज है और किताब इन्किलाबी हंगामा के सफहात 70-73 पर अंग्रेजी तरजुमा और असल खत उर्दू प्लेट नम्बर 5 पर इसका अक्सी फोटो दस्तखत नवाब अली बहादुर दर्ज है।
इस वाक्ये पर नवाब सा. के एक वजीर इन्शाअल्लाह खां ने जो जाइस जिला प्रतापगढ़ के रहने वाले थे और नवाब साहब की हुकूमत के वजिरे दिफा ोि, अंगेज अफसरों से सा$ज-बा$ज करके और रिश्वत लेकर नवाब साहब के असलाह खाने बजाय बारूद के कोयला पिसवाकर भरवा दिया।
नवाब अली बहादुर सानी के दौर में बांदा शहर की आबादी 42 हजार इन्सानों की थी। नवाब अली बहादुर को अभी सात साल भी हुकूमत करते न गुजरे थे कि शुमाली हिन्दोस्तान में 10 मई 1857 को मेरठ के मुकाम इन्केलाब-ए-अ$जीम का बिगुल बज उठा। उस वक्त अंग्रेज कम्पनी की हुकूमत का हिन्दोस्तान के बहुत बड़े हिस्से पर कब्जा और इख्तेदार कायम हो चुका था। मुगलिया हुकूमत पहले ही कमजोर होकर बराए नाम दिल्ली और उसके नवाह में महदूद होकर व$जीफा ख्वार रह गयी थी। मराठों की ताकत को लार्ड हिस्टिंग्स ने 1818 ई. में खत्म करके बाजीराव सानी आखिरी पेश्वा का 8 लाख रूपये सालाना पेंशन देकर बिठोर जिला कानपुर में रहने पर मजबूर कर दिया था। अंग्रेज कम्पनी 35-40 साल हिन्दोस्तान के बड़े हिस्से पर बहेसियत हुक्मरां काबिज थी। इसलिए अंग्रेज हुकूमत ने हिन्दोस्तानी फौजों में कमी करके कसीर तादाद फौजियों को बर्खास्त कर दिया। यह तमाम फौजी अंग्रेजों के खिलाफ हो गए। इधर इसी जमाने में अंग्रेज हुकूमत ने लार्ड डलहौजी की पुरानी पॉलिसी पर अमल करते हुए मुल्कगीरी और इख्तेदार को बढ़ाने के खातिर मरहटा रियासतों झॉसी, सागर बल्कि तमाम बुन्देलखण्ड व अवध, रोहलेखण्ड, फर्रूखाबाद की मुसलमान रियासतों पर कब्जा करके अपने इख्तेयार में शामिल कर लिया। इस सबके अलावा अंग्रेजी फौज में जो हिन्दोस्तानी सिपाही मौजूद थे उनमें एक नये किस्म की बंदूकें इस्तेमाल के लिये 1853 ई. में दी गई जिनमें चर्बी लगे कारतूस इस्तेमाल किये जाते थे और इन कारतूसों को ऊपरी हिस्से को दांत से काटकर बंदूक में लगाना पड़ता था और फिर खाली कारतूस को दांतों से पकड़कर बंदूक की नाल से निकालना पड़ता था, इन कारतूसों के मुताअलिक यह एक आम शोहरत फैल गई कि इनमें गाय और सुअर की चर्बी लगी हुई है इस शोहरते आम ने तमाम हिन्दू और मुसलमान सिपाहियों को गुस्से से भर दिया। फरवरी 1857 ई. में बरहानपुर की नं. 19 पल्टन को ये नये किस्म के कारतूस दिये गये। फौज ने इन्हें कुबुल करने से इंकार कर दिया। कर्नल माइकल ने फौजियों को बुरा-भला कहा और गालियां दीं और सजा देने का फैसला किया। 29 मार्च 1857 को इतवार के दिन जब तमाम अंग्रेज अफसर आराम कर रहे थे एक हिन्दोस्तानी हवलदार ने सार्जन्ट मेजर ह्यïमन को इत्तेला दी कि मंगल पाण्डे नामी एक हिन्दोस्तानी सिपाही हाथ में भरी हुई बंदूक लिये हुए सिपाहियों को बग़ावत के लिये उकसा रहा है। इस पर मेजर ने मंगल पाण्डे को गिरफ्तार करने का हुकूम दिया गया लेकिन उस हुकूम की तालीम नहीं की।
इस पर मंगल पाण्डे ने मेजर पर बंदूक चला दी। बंदूक नहीं चली तो तलवार से कई वार किये और मेजर ह्यïमन के टुकड़े कर दिये। इत्तेला मिलने पर जनरल हेपर सी. कुछ अंग्रेज सिपाहियों को लेकर आया और मंगल पाण्डे को गिरफ्तार करना चाहा मंगल पाण्डे ने अपने ऊपर गोली चलायी लेकिन वह बच गया आखिर गिरफ्तार होकर 8 अप्रैल 1857 ई. को मंगल पाण्डे को फॉसी दे दी गई। 9 मई 1857 ई. को मेरठ की नम्बर 3 सवारों की पलटन के 85 सिपाहियों को यह नये कारतूस दिये गये इन्होंने ने भी इनके लेने से इंकार कर दिया तब जनरल डेविट ने इनको गिरफ्तार करने और पैरों में बेडिय़ां डालने का हुक्म दिया। उस पर यह तमाम सिपाही गिरफ्तार कर लिये गये तब औरतों के शर्म दिलाने पर रात में फौजियों ने जलसा किया और बजाय 31 मई 1857 ई. जो तयशुदा तारीख थी, 10 मई 1857 को साहिबे इक्तेदार और हुक्मरान समझते हुए हर हिन्दोस्तानी को अपना गुलाम समझते थे, इस मौके पर मौलाना अहमद उल्ला सा. फैजाबादी ने अंग्रेज हुकूमत को काफिर की हुकूमत कररार देकर उनके खिलाफ जेहाद का फतवा दे दिया।क्रमश: