पुरुष काम करने के लिए होते हैंï, जबकि महिलाएं आँसू बहाने के लिए-आयरिश कवि आई. एम. सिंजे की ये पंक्तियां स्त्री-पुरुष मेंï विद्यमान अंतर को साफ-साफ स्पष्ट करती हैंï। खासकर यह लिंगीय विभेद सास-बहू के परंपरागत रिश्ते मेंï कहीï अधिक दृष्टिïगोचर होता है। समय बदल चुका है, इंसान बदल चुका है, विज्ञान और तकनीक के बलबूते दुनिया बदल चुकी है, लेकिन सास-बहू के रिश्ते मेंï कोई बदलाव नहीï आया है।
आधुनिकता का दम भरने वाले भारतीय समाज की भी इस रिश्ते के प्रति मानसिकता नहींï बदली है। यही वजह है कि अब तमाम विज्ञापनोंï समेत छोटे पर्दे पर आ रहे धारावाहिकोïं मेïं इस रिश्ते की अलग अलग तरह से व्याख्या की जा रही है। इनके जरिये सास को कटु वाणी बोलते हुए क्रूर ही दिखाया जा रहा है, जिसका निशाना मासूम, भोली-भाली बहू होती हंै। इसे दुर्भाग्य ही कहा जाएगा कि किसी भी विज्ञापन या धारावाहिक मेïं ससुर और बहू के रिश्ते या देवर-भाभी के रिश्ते को निशाना नहींï बनाया जा रहा है। ऐसा लगता है कि भारतीय समाज ने मान लिया है कि परिवार मेंï पुरुष हानिरहित होते हैंï, जो नई नवेली दुल्हन के प्रति प्रेम और सौहाद्र्र का भाव रखते हैïं।
कम नहींï पुरुष
हालांकि सच्चाई इसके विपरीत है। अधिकांश महिलाओïं द्वारा उजागर की गई तस्वीर से पता चलता है कि दहेज हत्या और उत्पीडऩ के मामलोंï मेंï ससुर, पति और अन्य पारिवारिक पुरुष ही सक्रिय भूमिका निभाते हैïं। पुलिस मेंï दर्ज मामले भी स्पष्टï करते हैï कि सास की परंपरागत छवि को भुनाते हुए ससुर सास के कंधे पर बंदूक रख बहू पर निशाना साधता है। उसके खिलाफ अभद्र भाषा के अतिरिक्त शारीरिक दमखम का इस्तेमाल भी करता है। यानी अधिकांश मामलोïं मेंï पुरुष परिवार की उम्रदराज़ महिला यानी सास के जरिये बहू के साथ मारपीट करते हंैï, उसे भूखा रखते हंैï और अन्य तरह से उत्पीडि़त करते हंैï। अक्सर नई नवेली दुल्हन के पिता और भाई भी अनजाने मेंï इस अपराध मेंï शामिल हो जाते हैïं। इस अपराध मेंï उनकी शिरकत इस वजह से हो जाती है, क्योïंकि वे शादी के बाद घर की बेटी को पराया धन मान उस पर होने वाले जुल्म सितम से एक तरह से आँख बंद कर लेते हंैï। कभी-कभी यदि लड़की उत्पीडऩ से त्रस्त होकर वापस मायके आ भी जाए तो घर वाले उसे नसीहत ही देते हंैï कि शादी के बाद ससुराल जाने पर वहाँ से उसकी अर्थी ही बाहर आनी चाहिए।
पति सबसे बड़ा संबल
भारतीय समाज आज भी यह समझने की कोशिश नहींï कर पा रहा है कि यदि पति अपनी पत्नी के साथ दृढ़ता से खड़ा रहे और उसके सम्मान व सुरक्षा को लेकर किए गए वादे को 99 फीसदी भी पूरा करे तो भारतीय परिवारोïं मेïं बहू के खिलाफ होने वाली ज्यादतियां स्वत: ही समाप्त हो जाएंगी। वास्तव मेïं पति ही बहू के खिलाफ होने वाली घरेलू हिंसा का जनक होता है। वह अपने पिता और माँ समेत परिवार के अन्य सदस्योïं के साथ मिल कर इस अपराध को अंजाम देता है। अन्य मामलोïं मेंï अगर वह अपराध मेंï सीधे तौर पर संलिप्त नहींï होता है तो घर मेंï बहू पर हो रहे अपराधोंï को मूकदर्शक बन कर देखता रहता है। खैर जो भी हो उसका अपराध कम नहीïं हो जाता है।
बहुएं भी कम नहीïं
ऐसे मेंï जब हम अभी पिछले ही दिनोंï मातृत्व दिवस मना कर हटे होंï तो इससे बेहतर और मौका कोई और नहीïं होगा जब हम हरेक माँ के प्रति अपना सम्मान व्यक्त करते हुए यह स्थापित करेïं कि प्रत्येक सासू माँ जन्मजात कुटिल नहीïं होती है, जिसकी आँखोïं से अंगारे और जबान से जहर टपकता है। समय-समय पर किए गए तमाम सर्वेक्षण इस सच्चाई पर प्रकाश डालते हैंï की शहरी, पढ़ी-लिखी, उम्रदराज या विधवा सासू माँ अक्सर घर मेंï नई नवेली दुल्हन का शिकार बनती हैं। ऊर्जा और नयी समृद्धि की प्रतीक नई पीढ़ी की बहुएं सासू माँ के साथ दोयम दर्जे का बर्ताव करती हैïं। अगर अकेले महानगरोंï का ही उदाहरण लेï तो अधिसंख्य महिलाएं हर रोज घर और बच्चोïं की जिम्मेदारी सास पर छोड़ काम पर निकल जाती हैïं। उनके लिए उनकी सासू माँ सिवाय मुफ्त की नौकरानी से और ज्यादा अहमियत नहीïं रखती हैï। चूंकि वह काम पर आ जाती हैïं अत: घर और बच्चोï की देखभाल की जिम्मेदारी सासू माँ की हो जाती है। यहाँ तक कि उसका अपना बेटा भी माँ की स्थिति को समझने के बजाय पत्नी का पक्ष लेता है। नतीजतन उस सासू माँ का जीवन अपनी ही बहू के हाथोïं नर्क सरीखा हो जाता है।
अन्य ज्यादतियां
यही नहीïं पहले की तुलना मेंï अब कहीïं अधिक ऐसे समाचार सामने आते हैï, जिनमेïं लालची बेटे या बेटी ने व्यवसाय या घर पर कब्जा करने के लिए अपने ही वृद्ध माता-पिता को घर से बाहर निकाल दिया। तमाम ऐसे मामले भी सामने आते हैïं जहाँ एक बेटा अपनी पत्नी की शिकायतोंï के आधार पर अपनी माँ संग मारपीट करता है। आधुनिकता का लबादा ओढ़े, उत्साही, महत्वाकांक्षी और आर्थिक-सामाजिक रूप से स्वतंत्र बहुएं शादी के बाद ही ससुराल मेंï फूट डाल अलग हो जाती हैï। ऐसा तुरत फुरत नहींï होता, लेकिन बहुओंï की बढ़ती मांगोïं से एक न एक दिन यह नौबत आ जाती है जब पति यानी एक माँ का बेटा घर से अलग होने का निर्णय कर ही लेता है।
अक्सर यह भी देखने मेïं आता है कि एक सास के प्रति स्थापित पूर्वाग्रह से भी घर मेïं टूट पड़ जाती है। ऐसे मेंï अगर चारोंï ओर नजर दौड़ाई जाए तो स्पष्टï है कि ऐसे मामले कम नहीïं हैï जहाँ सास के रूप मेंï घर का वृद्ध शख्स शोषित जिंदगी जी रहा है। उन्हेंï या तो घर मेंï अलग थलग कर दिया जाता है या फिर वृद्ध आश्रम के हवाले कर संतान अपने कर्तव्य की इतिश्री समझ लेती है।
मीडिया की जिम्मेदारी
जाहिर है मीडिया के प्रत्येक माध्यम मेंï एक ऐसा मूक चलन काबिज है जहाँ सास को बुरी और कुटिल दिखाए जाने की परंपरा विद्यमान है। यह मान्यता तब तक विद्यमान रहती है जब तक कि एक बहू स्वयं अपनी सास की तारीफोंï के पुल नहींï बाँधती। यानी एक सास के सकारात्मक और अच्छे स्वभाव को मापने का पैमाना अब बहू की तारीफेïं हो गईं है। यानी अगर सास अपनी बहू की इच्छाओïं और महत्वाकांक्षाओंï के आगे नतमस्तक हो एक बार फिर से अपने को त्याग की बलिबेदी पर कुर्बान कर देती है तो वह अच्छी मानी जाती है। इसे देखते हुए यह जिम्मेदारी मीडिया की बनती है कि वह सास-बहू के परंपरागत रिश्ते को नई रोशनी मेंï देखें। सिर्फ सास को ही कुटिल और दुष्ट दिखाने की अपेक्षा तस्वीर के दूसरे पहलू पर भी प्रकाश डालेंï। महिला सशक्तिकरण के इस दौर मेïं मीडिया के इस पक्षपात को देख कर लगता है कि सारी शक्ति युवा महिलाओïं के लिए ही है। उम्रदराज और घर की मुखिया की भूमिका निभा रही महिलाओïं के लिए इसके कोई मायने नहीïं हैï। वैसे इस मान्यता मेंï बदलाव भी तभी आ सकता है जब बहू रूपी महिला और सास रूपी दूसरी महिला एक-दूसरे को समझेï और उन्हेंï सम्मान देïं। इसके बाद ही सास-बहू की परंपरागत छवि को बदला जा सकेगा।
– विमला पाटिल