साहिर लुधियानवी

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साहिर लुधियानवी का नाम अब्दुल हई था, वो 1922 में लुधियाना में पैदा हुयेे। प्रारंभिक शिक्षा लुधियाना में ही प्राप्त की, बाद में लाहौर चले गये। साहित्यिक जीवन का प्रारंभ कालेज के जमाने से हुआ। Óअदबे लतीफÓ और ÓसवेराÓ के सम्पादक रहे। फिर दिल्ली से ÓफनकारÓ भी निकाला। इसके बाद वह मुम्बई चले गये और फिल्मों में गीत लिखने लगे। फिल्मी दुनिया से सम्बद्घ होने के बाद इनको बहुत लोकप्रियता प्राप्त हुई। उस जमाने में उनके काव्य संग्रह Óतल्खियांÓ के अनेकों संस्करण छपे। गजल, नज़्म, गीत तमाम विधाओं पर उन्हें सामथ्र्य प्राप्त था। Óतल्खियांÓ के अलावा उनका एक संग्रह Óगाता जाये बंजाराÓ प्रकाशित हुआ। ÓपरछाईयांÓ के नाम से एक लम्बी नज्म भी प्रकाशित हुई, जो बाद में इनके संग्रह Óआओ के कोई ख्वाब बुनें’ में भी शामिल हुई। साहिर का देहांत मुम्बई में 1980 में हुआ।
साहिर लुधियानवी की शायरी में बनावट नहीं होती थी और गजल के रंग में कविता कहने में उनको महारत हासिल थी। वो एक स्वभाविक शायर थे और उनके लहजे में तरो-ताजगी और रंगीनी थी। उनके कलाम में सोचपूर्ण गहराई नहीं है, लेकिन अहसास का आकर्षण है और यही उनकी प्रसिद्घि का राज भी है। उनके यहां भावनात्मक बहाव की अवस्था और मधुरता है जो सीधे-सीधे नौजवानों को प्रभावित करती है। उन्होंने समाजी, सियासी समस्याओं पर भी दिलकश अंदाज में लिखा है। इनके यहां किसी बनावट या औपचारिकता को दखल नहीं है। उनकी सबसे बड़ी खूबी यह है कि जवानी के अनुभवों को सलीके से पेश करने में अपना जवाब नहीं रखते। फिल्मों में लिखे उनके अनेकों गीत सुपरहिट हुये और सुनने वाला यह बता देता था कि यह साहिर का कलाम है। साहिर लुधियानवी को उनकी उत्कृष्टï रचनाओं के कारण आज भी याद किया जाता है। – सैफ मलिक
साहिर लुधियानवी की रचनाएं
परछाईयां के कुछ अशआर
तसव्वुरात1 की परछाईयां उभरती हैं।
बहुत दिनों से है यह मशग़ला2 सियासत3 का।
कि जब जवां हो बच्चे तो कत्ल हो जाएं॥
बहुत दिनों से है यह ख़ब्त4 हुक्मरानों 5 को।
कि दूर-दूर के मुल्कों में कहत6 बो जाएं॥
चलो कि आज सभी पामाल7 रूहों से।
कहें कि अपने हर इक जख़्म को जुबां कर ले॥
हमारा राज़ हमारा नहीं, सभी का है।
चलो कि सारे जमाने का राजदां8 कर लें॥
चलो कि चल के सियासी मकामिरों 9 से कहें।
कि हमको जंगो – जदल10 के चलन से नफरत है॥
जिसे लहू के सिवा कोई रंग रास न आये।
हमें हयात11 के इस पैरहन12 से नफरत है॥
शब्दार्थ:- 1. कल्पना, 2. कारोबार, 3. राजनीति, 4. दीवानगी, 5. शासकों, 6. अकाल, 7. तबाह व बर्बाद, 8. रा$ज जानने वाला, 9. जुआरी का बहुवचन, 10. लड़ाई-झगड़ा, 11. जिन्दगी, 12. वस्त्र, लिबास।
कभी-कभी
कभी- कभी मेरे दिल में ख्याल आता है।
कि जिन्दगी तेरी जुल्फों की नर्म छाओं में,
गुजरने पाती, तो शादाब1 हो भी सकती थी।
ये तीरगी2 जो मिरी ज़ीस्त3 का मुकद्दर है।
मिरी नजर की शुआओं4 में खो भी सकती थी॥
अजब न था कि मैं बेगाना-ए-अलम5 रह कर,
तेरे जमाल की रानाईयों6 में खो रहता।
तेरा गुदा$ज7 बदन, तेरी नीम बाज8 आंखें,
इन्हीं जुल्फों के साये में महव9 हो रहता॥
पुकारती मुझे जब तल्खियां10 $जमाने की,
तेरे लबों से हलावत के घूंट पी लेता।
हयात चीख़ती फिरती बरहना-सर, और मैं,
घनेरी जल्फों के साये में छुप के जी लेता॥
मगर ये हो न सका, और अब ये आलम है,
कि तू नहीं, तिरा गम, तिरी जुस्तजू भी नहीं।
गुजर रही है कुछ इस तरह जिन्दगी जैसे
इसे किसी के सहारे की आरजू भी नहीं॥
जमाने भर के दुखों को लगा चुका हूं गले,
गुजर रहा हूं कुछ अनजानी राहों से।
मुहीब साये मेरे सिम्त बढ़ते आते हैं
हयात-ओ- मौत के पुर हौल खारजारों से॥
शब्दार्थ – 1. हरी-भरी, 2. अंधेरा, 3. जि़न्दगी, 4.किरन, 5. दुखों से अंजान, 6. सुंदरता, 7. पिघलता, 8. आधी खुली , 9. खोया रहता, 10. कड़वाहट।