इस सुंदर सी सृष्टिï की सुंदरता बरकरार रखने के लिए सृष्टिïकर्ता ने इसकी संपूर्ण जिम्मेदारी इनसानी कौम के सुपुर्द कर रखी है, क्योंकि शेष जीव जगत की एक निश्चित प्रकृति है। उसमें फेरबदल की गुंजाइश नहीं के बराबर है।
यदि थोड़ी-बहुत है भी तो वह मनुष्यों पर ही आश्रित है, इसलिए सृष्टिï का जो अति मुख्य पात्र है वह इनसान ही है। इनसानी जगत की सबसे अलग जो सर्व प्रमुख विशेषता है वह है सभी के रूप तथा स्वभाव में भिन्नता।
शारीरिक खूबसूरती या बदसूरती का समाज की सुदृढ़ संरचना में कोई विशेष स्थान नहीं है। स्थान तो है इनसान की आदतों का, स्वभाव का जो समाज की व्यवस्था को प्रमुखता से प्रभावित करती है कि कहां, कब, किससे, कैसा व्यवहार करना है।
व्यक्ति में अच्छी व बुरी दोनों प्रकार की आदतों का समावेश है तभी तो ‘करना चाहिएÓ शब्द की उत्पत्ति हुई है। कुछ अपवादों को छोड़कर मानव समाज के संपूर्ण पात्रों अर्थात प्रत्येक व्यक्ति में अच्छी व बुरी दोनों ही प्रवृत्तियां निहित हैं।
हो सकता है व्यक्तिगत तौर पर इन आदतों का प्रतिशत कम-ज्यादा हो, लेकिन कोई भी इससे अछूता नहीं है। शैशव काल से ही बालक परिवेश से ही इस ज्ञान को ग्रहण करने लगता है कि क्या अच्छा है और क्या बुरा है।
किशोरावस्था को प्राप्त होते-होते वह इन मापदंडों से भली-भांति परिचित हो जाता है। बावजूद इसके आचरण में अहितकर आदतों का समावेश हो ही जाता है और यह निश्चित है दुष्प्रवृत्तियों से दूसरे ही नहीं, व्यक्ति स्वयं भी परेशान रहता है।
सफलता एवं व्यक्तित्व निर्माण में भी ये प्रवृत्तियां अवरोधक का काम करती हैं। यदि व्यक्ति संवेदनशील है तो परेशानियों का दायरा फैलकर दुगना भी हो सकता है और इसका कुप्रभाव प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से खुद के अतिरिक्त समाज व परिवार में भी पडऩा अवश्यंभावी है।
अत: स्व तथा सर्व हिताय के लिए बेहद जरूरी है आचरण से दुष्प्रवृत्तियों का पलायन। चूंकि इनका जड़ से समाप्त होना तो असंभव है लेकिन प्रयास किए जाएं तो एक हद तक इन पर अंकुश लगाया जा सकता है।
इनसान का एक अति विशिष्टï गुण है स्वयं की प्रशंसा सुनना और करना। यदि कोई निष्पक्ष व निरपेक्ष भाव से प्रशंसा करे तो वास्तव में यह श्रेष्ठ व्यक्तित्व की समृद्धि का प्रतीक है और यह व्यक्ति का स्वभाव है कि वह अपने आचरण की उत्तम आदतों की भूरि-भूरि प्रशंसा सुन अभिभूत ही नहीं होता, बल्कि स्वयं भी मौके बे मौके उसका बखान कर मन ही मन प्रफुल्लित होता रहता है।
यह प्रक्रिया आत्मविश्वास की संबलता एवं अच्छे कार्र्यों की प्रेरणा के लिए एक सीमा तक उचित भी है, किंतु उसे हृदय से चिपकाए रखना विपरीत परिणामदायी भी हो सकता है।
इसके लिए जरूरी है आचरण में निहित उन श्रेष्ठ आदतों को विस्मृत कर देना जो पूर्ण रूपेण स्वभाव में पानी में मिश्री की तरह घुल गई है क्योंकि उन्हें संपन्न करने के लिए किसी विशेष प्रयास की आवश्यकता नहीं है। वे व्यवहार में खुद ब खुद आ जाती हैं।
वास्तव में आवश्यकता अगर है तो बुरी आदतों की ओर अपना ध्यान आकृष्टï कर उन्हें याद रखने की। यह काम मुश्किल अवश्य है लेकिन असंभव नहीं। विवेचना में उत्कृष्टï कामों का उल्लेख अवश्य कीजिए किंतु याद तो उन्हीं कामों अथवा आचरण को रखिए जो त्रुटिपूर्ण थे और जिनमें सुधार की जरूरत है।
जिस चीज को सुधारना है उसके लिए बेहद आवश्यक है उसे याद रखना। यदि उसे ही भूल गए तो सुधारेंगे किसे? – मीरा जैन