सूफ़ी-ए-कामिल, पीर-ए-तरीक़त, आशना-ए-मारफ़त, इल्म-ए-लदूनी पे गहरी दस्तरस रखने वाले मशाइखे कुबार हजऱत क़ाज़ी सै. आबिद अली वजदी-उल-हुसैनी रह. का शुमार अपने दौर के ओताद बुजुर्ग़ों में होता है। अरसा-ए-दराज़ तक आप भोपाल रियासत के शहर क़ाज़ी रहे। आप बाबंदे शरीअत, सुन्नते रसूल सल्ल. पर अमर पेरा, ज़ोहद-ओ-तक़वा के पाबंद, हुसने अख़लाक़ के मुजसिसम पेकर, इज़्ज़त, दौलत, शोहरत की ख़्वाहिश से पाक, सादगी से दुरवेशाना जिन्दगी गुज़ारने वाले नेक सीरत इंसान थे। आप जामे इस्लामिया अरबीया के शेखुल हदीस थे। बुख़री शरीफ़ का दर्स दिया करते थे। आपने दर्जनों किताबें लिखीं जिसमें हिन्दोस्तान इस्लाम के साए में, बिसमिल्ला की तफ़सीर, कुतुबे मालवा, तारीख़े भोपाल शामिल हैं। आपने जंगे आज़ादी में भी उलेमाओं की जमात के साथ हिस्सा लिया था। आप पैदाइशी वली थे। आपको खि़लाफ़त कुतुबे हिन्दोस्तान शेख़-उल-मशाइख़, हजऱत मौलवी मसी उल्ला साहब रह. से मिली थी। जो हकीम-उल-उम्मत, कामिल शेख़ हजऱत मोलाना अशरफ़ अली थानवी रह. के ख़लीफ़ा-ए-अकबर और जांनशीन थे। जिनका मज़ार शरीफ़ थाना भवन में है। हजऱत मौलवी मसी उल्ला साहब रह. का मज़ार शरीफ़ जलालाबाद में है। हजऱत क़ाज़ी वजदी-उल-हुसैनी रह. को चारों सिलसिले की बेत करने की इजाज़त हासिल थी। मगर आप चिश्तिया सिलसिले में ज्यादा बेत किया करते थे। आप फऱमाते थे चिश्तिया सिलसिले में पाबंदी भी कम हैं। विरदो वज़ाइफ़ भी कम हैं। हजऱत क़ाज़ी वजदी-उल-हुसैनी रह. को हजऱत शैख़ अब्दुल क़ादर जिलानी रह., हजऱत ख़्वाजा कुतुब उद्दीन बखि़तयार काकी रह. की रूह मुबारक से बहुत फैज़ हासिल था। अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने हजऱत क़ाज़ी साहब रह. को जबरदस्त मक़बूलियत और इज़्ज़त अता की थी। सभी मज़हब के अदना हों या आला सभी के दिलों में हजऱत के लिए इज़्ज़त अज़मत थी। हजऱत का जब हजऱत दुनिया से परदा हुआ, सारे शहर में मातम छा गया दूर दराज़, अतराफ़ से लोग आपके आखऱी सफऱ में शामिल हुए। आपकी नमाज़े जनाज़ा ताज-उल-मसाजिद के मैदान में अदा की गई। हजऱत पीर सईद मियां साहब मुजददीदी ने नमाज़े जनाज़ा पढ़ाई। अजीब बुजुर्ग हस्तियां नमाज़े जनाज़ा में शामिल हुर्इं। उन्हें आपस में बात करते हुए सुना गया। कुतुब के जनाज़े की नमाज़ वली पढ़ा रहा है। हजऱत क़ाज़ी वजदी-उल-हुसैनी रह. को बड़े बाग़ के सामने वाले कब्रिस्तान हकीम साहब आष्टे के अहाते में अपने वालिद और वालदा के पाइती दफऩ किया गया।