दुर्लभ पक्षी सोन चिरैया की अस्तित्व रक्षा के उद्देश्य से सरकार ने संरक्षित अभ्यारण्य स्थापित किये, लम्बा चैडा़ अमला बहाल किया गया। कुछ साल बाद देखा तो पाया कि संरक्षित अभ्यारण में रही बची सोन चिरैया भी शिकारियों का निशाना बन गईं। अब ये अभरण्य विलुप्त प्राय प्रजाति के इस पक्षी के लिए नहीं बल्कि सर्व सुलभ सफेद हाथी की संरक्षण स्थली बन कर रह गया है। यह तथा-कथा है मध्यप्रदेश के ग्वालियर जिला स्थित घाटीगांव व करैरा (शिवपुरी) के अभ्यारण्यों की, जो जंगल वालों के जंगल कानून के चलते सोन चिरैया विहीन हो गए हैंे और अब चिड़ियाओं को बसाने की सरकारी योजना ने नया तूफान बरपा दिया है।
’’ओटीडीटी कुल’’ का पक्षी ससोन चिरैया हुकना या तुकदार भी कहलाता हैे। डीलडौल में गिद्ध के समान, सिर तक की ऊंचाई कोई तीन फीट वाली इस चिड़िया का वजन तीस पाउंड तक होता है। कुछ-कुछ शतुरमुर्ग की तरह दिखने वाले इस पक्षी का शरीर बगैर बालों वाली टांगों के समकोण पर टिका होेता है। यह इसकी खास विशेषता भी है। इसके ऊपरी पंख गहरे पीले और उन पर काली धारियां होती हैं। निचला भाग सफेद व छाती के पास नीचे लंबी काली पट्टी होती है। सफेद गर्दन, काली खोपड़ी, चैड़े पंखों की नोक के पास सफेद सा धब्बा और सिर पर कलगीः ये कुछ ऐसी विशेषताएं हैं, जिनके कारण सोन चिरैया को पहचाना जाता है। मध्यप्रदेश में घाटीगांव और करैरा के अलावा, राजस्थान के कंडनपुर सोनखल्या और डेजर्ट नेशनल पार्क, महाराष्ट्र में नाजाज, आंध्र प्रदेश में रोल्लापाडु और कर्नाटक में रानी बेन्नूर अभ्यारण्य में यह दुर्लभ पक्षी बामुश्किल 750 बचे हैं।
सोन चिरैया बहुत ही शर्मीली व चैकन्ना परिंदा है, दुर्भाग्य की बात है कि यह पक्षी कभी इंसान की नीयत पर शक नहीं करता है, और यही कारण है कि पिछले कुछ दशकों में इसका इतना शिकार हुआ कि आज इसकी प्रजाति पर समाप्त होने का खतरा मंडरा रहा है।
हालांकि इसका मांस रबर की तरह लचीला और खुरदुरा होता है। इसे आसानी से चबाया भी नहीं जा सकता है। इसके बावजूद इसकी दीवानगी के पीछे यह भ्रांति है इसकी तासीर गरम होेती है और इससे पौरूष शक्ति बढ़ती है। फिर इसके पंख खूबसूरत होने के कारण सजावट मेें काम आते है।। वैसे यह पक्षी काफी कुछ अपनी आदतों के कारण भी मारा जाता है। अक्सर देखा गया है कि सोन चिरैया गाय, भैस या बकरियों के झुंड में शामिल हो जाती है। फिर ग्वाले या शिकारी इनके पीछे लग जाते हैं। यहां तक लोमड़ी और कुत्ते भी इसे धर दबोच लेते हैं क्योंकि यह अचानक उड़ नहीं पाता।
1982 में म.प्र. के ग्वालियर जिले के घाटीगांव का 512 वर्ग किलोमीटर और शिवपुरी में करैरा का 202 वर्ग किलोमीटर जंगल सोन चिरैया के लिए संरक्षित अभ्यारण्य घोषित किया गया था। इस क्षेत्रा की सिफारिश विश्व प्रसिद्ध पक्षी वैज्ञानिक डाॅ. सलीम अली ने की थी। बाम्बे नेचुरल हिस्ट्री सोसायटी के युवा वैज्ञानिक डाॅ. रफीक रहमानी लगातार इन जंगलों में आते रहे। उन्होंने इस अद्भुत परिंदे के प्राकृतिक आवास, प्रजनन, आदतों आदि पर गंभीर शोध किए। डाॅ. रहमानी ने अपने शोध की विस्तृत रपट म.प्र. सरकार को भेजी जाकि इस प्रजाति के संरक्षण में कुछ सार्थक उपाय हो सकें।
डाॅ. रहमानी की रपट फाइलों के जंगलों में कहीं खो गई और सरकार ने जंगल संवारने के नाम पर करोड़ों रूपए फंूकने जारी रखे। कोई दो दर्जन कर्मचारी यहां नियुक्त कर दिए गए। इसके बावजूद सोन चिरैया की संख्या घटती चली गई। सरकारी रिकार्ड के मुताबिक 1986 में यहां 35 सोन चिरैया थीं। 87 में 40, 88 मेें 30, 89 में 15, 1990 में 12, 91 में 12, 92 में 18, 93 में 5 और तदुपरांत शून्य।
इन जंगलों में सोन चिरैया के लुप्त होने के लिए शिकार के साथ-साथ वहां के प्राकृतिक वृ़क्षों की संख्या का कम होना भी जिम्मेदार है। खेती योग्य सरकारी जमीन पर नाजायज कब्जा करने की साजिश के तहत चिड़ियाघरों को उजाड़ने की बात यहां के कुछ पर्यावरणविद् कहते हैं। करैरा के तुर्कनी गांव के कुछ लोगों ने बताया कि कतिपय नेता और वन अधिकारी इस बात के लिए साजिश करते हैंे कि वहां का अभ्यारण्य समाप्त हो जाए ताकि जंगल की जमीन पर कब्जा कर खेती की जा सके। इसी षडयंत्रा के चलते लोगों ने चिड़ियाओं को समूल नष्ट कर दिया था।
करैरा के जंगलों में सोन चिरैया के लुप्त हो जाने पर जब बावेला मचा तो सरकार की नींद खुली। तुरत-फुरत घोषणा कर दी गई कि इलाके के गांव खाली करवा लिए जाएं। करैरा व नरवर तहसील के 32 गांवों की आबादी को खदेड़ने की कागजी कवायद शुरू हो गई है। उधर अपनी पुश्तैनी घर-कल से उजाड़े जाने के तुगलकी फरमान के खिलाफ यहां के चालीस हजार बाशिंदे गुस्साए बैठे हैैं। वहां ’’मारेंगे और मरेंगे’’ के नारे गूंज रहे हैैं। कुछ महीने पहले जिले के प्रभारी सचिव सी.एस. चड्ढा दिहायला गांव पहुंचे तो लाख कोशिशों के बावजूद एक सोन चिरैया भी नहीं दिखी। गांव वालों ने श्री चड्ढा को एक ज्ञापन सौंपा जिसमें कहा गया है कि एक पक्षी के लिए हजारों लोगों कोे घर खेतों से बेदखल करना मानवाधिकारों का हनन है।
इस जंगलों से सोन चिरैया उजाड़ने वाले गिने-चुने लोगों की करनी का खामियाजा हजारों ग्रामीण भोगें, यह कहां तक जायज होगा? मानव उजाड़कर पक्षी बसाने की योजना वैसे भी व्यावहारिक प्रतीत नहीं होती है। परिस्थितिकी संतुलन के लिए वन और वन्य प्राणियों का बना रहना महज जरूरी है लेकिन सदियों से जंगल और मानव एक दूसरे के पालक रहे हैं।
पहलेे कभी भी जंगल बसाने के लिए मानव को उजाड़ने की जरूरत महसूस नहीं हुई। सोन चिरैया भी उतनी ही जरूरी है जितना पुश्तैनी गांवों का बसा रहना। जरूरत उन परियोजनाओं की है जो जल,जंगल, जमीन और जानवरों पर खतरा बन रही आधुनिकीकरण की आंधी के प्रति आम लोगों को सचेत कर सके। यह सरकार को जान लेना चाहिए कि सोन चिरैया के विलुप्त होने का मूल कारण अनुकूल वातावरण का नष्ट होना है, ना कि जन आबादी। -रईसा मलिक