सोशल एंग्ज़ायटी या फोबिया

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शरण्या का कॉलेज का पहला दिन है। एक विद्यार्थी की जि़ंदगी के इस महत्वपूर्ण दिन वो कॉलेज नहीं जाना चाहती। उसे मालूम है आज सब प्रोफेसर परिचय लेंगे। सारे विद्यार्थी भी एक-दूसरे को अपना परिचय क्लास में देंगे। तब वो क्या करेगी? इतने सारे अजनबियों से मिलना क्या उससे हो पाएगा?
सब उसकी ओर देखते रहेंगे और पता नहीं क्या सोचेंगे उसके बारे में। उसकी आवाज़ न निकली तो? या कांपती हुई आवाज़ में उसने कुछ गलत कह दिया तो? नहीं, नहीं। आज तो कॉलेज न जाना ही अच्छा है। विकास को पार्टी में जाना पसंद है, हर टीनएजर को पसंद होताहै। लेकिन वो वहां जा नहीं पाता।
नए लोगों से मिलते हुए, वो यूं भी नर्वस हो जाता है, अगर उसका पसीने से लथपथ चेहरा देखकर वे लोग सब समझ गए तो? या उसका चेहरा डर से सफेद पड़ गया तो? किसी ने उसे पसंद नहीं किया तो? वो क्या पार्टी में अकेला ही खड़ा रहेगा? इससे तो अच्छा है घर में बैठकर टीवी देखो। यहां तुम्हें कोई डर नहीं। कोई नहीं देख रहा है। वैसे भी बचपन से वो ये ही करता आया है।
सोशल फोबिया विश्व का तीसरा सबसे खतरनाक मनोरोग
शरण्या और विकास समाज से दूर भागने संबंधी रोग से ग्रसित हैं। इसे सोशल फोबिया कहते हैं यानी सामाजिक स्थितियों का डर। ऐसे पीडि़तों को लोगों द्वारा लगातार देखे व परखे जाने का अनजाना भयानक डर सताता रहता है। उन्हें लगता है वे कुछ ऐसा कर बैठेंगे जिससे उन्हें सबके सामने शर्मिंदा होना पड़ेगा और उनका अपमान किया जाएगा। ये डर कई बार इतना तीव्र होता है कि व्यक्ति की सामान्य जि़ंदगी प्रभावित होने लगती है।
हालांकि, इससे पीडि़त स्वीकार करते हैं कि ऐसे डर बेबुनियाद हैं, लेकिन वे इससे उबर पाने में खुद को असमर्थ पाते हैं। सोशल फोबिया इतना परिस्थिति विशेष भी हो सकता है जैसे – लोगों के सामने बात न कर पाना या लोगों के सामने कुछ खाने-पीने में झिझक महसूस करना और इतना बड़ा रूप भी ले सकता है कि पीडि़त को चक्कर, उल्टी आने लगे, हाथ-पैर कांपने लगें, आवाज़ लरज़ने लगे और पेट में तकलीफ होने लगे।
अगर इन शारीरिक लक्षणों पर ध्यान केंद्रित हो जाए, तो इन्हीं का भय काफी बढ़ जाता है। मनोविज्ञानियों का तो मानना है कि समस्या के बढ़ जाने पर भय और लक्षणों का एक न खत्म होने वाला सिलसिला बन जाता है। लक्षणों के भय पर ध्यान केंद्रित हो जाता है और नतीजेस्वरूप फोबिया और भी बढ़ जाता है। कई बार तो आने वाली किसी स्थिति से कई दिन पहले ही डर लगने लगता है।
सामाजिक भय बचपन से ही शुरू हो जाता है और किशोरावस्था में ज्यादा नज़र आता है। इसके कारणों पर नज़र डालें, तो सबसे पहले परवरिश का मामला आता है। अगर माता-पिता ने बचपन से ही ध्यान न दिया और बच्चे का सामाजिक जीवन सीमित रह गया, तो वह बड़ा होकर सोशल फोबिया विकसित कर सकता है। इकलौते बच्चे के साथ तो इस बात का और भी ज्यादा ध्यान रखा जाना चाहिए।
मम्मी- पापा अक्सर कह देते हैं, तुम घर पर पर रहो, हम तुम्हारी मनपसंद चीज़ लेते आएंगे। तुम टीवी देखो। बच्चा घर में ही बंधकर रह जाता है। एक और वजह तब उत्पन्न होती है, जब बच्चा ऐसे इलाके में रह रहा हो, जहां और बच्चे न हों। ऐसे में उसका सामाजिक जीवन विकसित ही नहीं हो पाता और वह सहमे व्यक्तित्व का शिकार हो जाता है।
कभी- कभी बच्चे को यह न बताना कि कुछ विलासिता की चीजों के बगैर भी जिया जा सकता है, बच्चे के लिए कठिनाइयां उत्पन्न कर देता है। उसे कई चीजो़ं की आरजू होती है, जो उसे नहीं मिल पातीं और नतीजतन वो खुद को कमज़ोर और हीन समझने लगता है। किशोरावस्था आते-आते ऐसेे बच्चे लोगों से डरने लगते हैं।
शोधार्थियों के मुताबिक दूसरों को डरते हुए देखकर, जो बच्चे बड़े होते हैं, उन पर भी इसका असर हो जाता है। इसे ऑबज़ेर्वेशनल लर्निंग कहते हैं। उपचार चरण-दर-चरण किया जाता है। सबसे पहले, फोबिया के शिकार बच्चे को एक छोटे से समूह की पार्टी या मीटिंग से मिलवाया जाता है। इस पार्टी को अगर बच्चे को ही आयोजित करने को कहा जाए, तो उसका भय और जल्दी कम हो सकता है।
जब वे सबकुछ मैनेज करते हैं, तो उन्हें महसूस होता है कि उनका ख्याल गलत था। वे भी कुछ काम कर सकते हैं। और लोगों का एक-दूसरे को देखना सामाजिक मेलजोल का हिस्सा है। इसमें डरने वाली या कॉन्शियस होने वाली कोई बात नहीं। बच्चे की किसी प्रस्तुति की तारीफ करने से दूसरा चरण आरंभ होता है।
इससे उन्हें अहसास हो जाता है कि लोग उन्हें नापसंद नहीं करते और न हीं उनसे कुछ गलत काम हो जाने का डर है। यदि समस्या न सुलझे, तो सोशल फोबिया से पीडि़त का मनोविशेषज्ञ से उपचार करवाएं।
– डॉ. राजेंद्र राजपूत
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