आपका नाम मुहम्मद, निजामुद्दीन लकब (उपाधि) था। इसी नाम से अब मशहूर है।
वालिद साहब का नाम अहमद बिन अली है, हुसैनी सैयदों में से थे। ननिहाली खानदान भी सैयदों का है। दादा ख्वाजा अली और नाना ख्वाजा अरब दोनों के एक ही दादा थे और दोनों बुखारा से आकर कुछ मुद्दत लाहौर रहे, वहां से बदायूं आये।
सन् 636 हि. में बदायूं में आप पैदा हुए।
हजरत निजामुद्दीन पांच साल के थे कि बाप का साया सर से उठ गया। वालिदा ने जो बहुत ही दीनदार औरत थीं, उनके लालन-पालन देख-रेख और तालीम व तर्बियत का बडा ही अच्छा इन्तिजाम कर रखा था।
किताबें पढने के काबिल हुए तो मौलाना अलाउद्दीन उसूली की शार्गिदी अख्तियार की और फिक्ह की शुरू की किताबों तक उनसे तालीम हासिल की। ’कुदूरी ‘ खत्म की तो मौलाना अलाउद्दीन ने फरमाया कि मौलाना निजामुद्दीन अब फजीलत की दस्तार (सबसे ऊंंची सनद) बांधो।
का हुक्म फरमाया है, मैं दस्तार कहां से लाऊं?
मां के मांसे आकर कहा कि उस्ताद ने दस्तार बंदी (पगडी बांधने) का हुक्म फरमाया है, मैं दस्तार कहां से लाऊं?
मां ने कहा, बाबा! धीरज रखो, मैं इसका उपाय करूंगी।
चुनांचे रूई खरीदकर उसको कतवाया और बहुत जल्द पगडी तैयार कर दी।
दस्तारबंदी के जल्से में मां ने आलिमों और बुर्जुगों की दावत की। ख्वाजा अली मुरीद शेख जलालुद्दीन तबरेजी रह. ने एक पेंच बांधा और तमाम मौजूद लोगों ने दुआ की।
शेख कबीर से ताल्लुक
हजरत ख्वाजा फरमाते हैं कि मैं छोटा था, बारह साल का रहा हूंगा या कुछ कम-ज्यादा, उस वक्त मैं नात पढता था। एक आदमी जो अबू वक्र खर्राता के नाम से मशहूर था, उसे अबू बक्र कव्वाल भी कहते थे, मेरे उस्ताद के पास आया। वह मुल्तान होकर आ रहा था।
उसने बयान किया कि हजरत शेख बहाउद्दीन जकरीया मुल्तानी के पास से आ रहा हूं। उसने उनकी बुजूर्गी और बडाई बयान करनी शुरू की। वह बयान करता रहा मगर कोई चीज मेरे दिल में न जमी।
इसके बाद उसने बयान किया कि मैं वहां से अजोधन आया। वहां मैंने दीन का एक बादशाह देखा, उसने शेखुल इस्लाम शेख फरीदुद्दीन रह. का जिक्र किया। यह सुनते ही मेरा दिल उनके लिए खिंच उठा और उनकी मुहब्बत मेरे दिल में ऐसी बैठ गयी कि मुझे उनका नाम लेने में मजा आने लगा
सोलह साल की उम्र में हजरत ख्वाजा बदायूं से दिल्ली आ गये।
दिल्ली में तालीम
आपने दिल्ली आकर तालीम का सिलसिला जारी रखा। यह मुद्दत तीन-चार साल की थी। दिल्ली में उस वक्त बडे नामी उस्ताद इकट्ठा थे।
यह सुल्तान नासिरूद्दीन महमूद का दौर था। गयासुद्दीन बलबन उस वक्त वजीर था और मौलाना शमशुद्दीन ख्वारजमी, जो मुस्तौफिल मुमालिक (यह एकाउंटेंट जनरल का ओहदा था और किसी बहुत बडे आमिल ही को मिलता था) थे, उस्तादों के उस्ताद की हैसियत रखते थे। इन्हें शम्सुल मुल्क का खिताब मिला हुआ था। उलेमा की तरह पढने-पढाने का सिलसिला भी चल रहा था। हजरत ख्वाजा रह. उनके दर्स व हल्के (पढाई की क्लास) में शामिल हुए।
मौलाना शम्शुद्दीन को हजरत रह. से खास ताल्लुक था और वह उनके मेहबूब शागिर्द थे।
ख्वाजा शम्शुल मुल्क की आदत थी कि अगर कोई शागिर्द नागा कर देता था या देर से आता था तो फरमाते थे कि आखिर मुझसे क्या गल्ती हुई थी कि आप नहीं आये।
हजरत ख्वाजा यह किस्सा बयान करते हुए मुस्कुराये और कहा कि अगर किसी से मजाक फरमाते तो कहते कि मुझसे क्या गल्ती हुई थी कि आप देर में जाता तो मेरे जी में आता कि आज मुझसे भी यही फरमाते। लेकिन आप ऐसा न करते।
इसका जिक्र करते हुए ख्वाजा रह. की आंखों में आंसू आ गये और सब सुनने वालों का मन भर आया और यह भी फरमाया बेहद मुहब्बत की वजह से मुझे अपने हुजरे में अपने साथ बिठाते, मैं हजार मना करता लेकिन मंजूर न फरमाते।
हदीस की इजाजत
आपने अपने जमाने के मशहूर मुहद्दिस शेख मुहम्मद बिन अहमद ऊलमारीकली मशहूर कमालुद्दीन जाहिद (विसाल 684 हि.) से पढी।
फिक्ह में उनको एक वास्ते से हिदाया के लिखने वाले अल्लामा बुर्हानुद्दीन अल-गर्मीनानी की शार्गिदी हासिल थी। आपने उससे ’मशारिकुल अनवार‘ का दर्स लिया और हदीस की इजाजत हासिल की।
मां का इन्तिकाल
दिल्ली ही में हजरत ख्वाजा रह. थे, कि उनकी मां का इंतिकाल हो गया।
एक दिन एक मुद्दत के बाद हजरत ख्वाजा ने अपनी मां के इंतिकाल का जिक्र किया। जिक्र करते हुए रोने लगे और इतना रोये कि जो कुछ फरमाते थे, पूरे तौर पर सुनने में न आता था।
हजरत ख्वाजा रह. फरमाते हैं, एक दिन नया चांद देखकर हाजिर हुआ और कदमवोसी की और नये चांद की मुबारकबाद, पहले की तरह पेश की। फरमाया कि अगले महीने के चांद के मौके पर किसकी कदम वोसी करोगे?
मैें समझ गया कि इंतिकाल का वक्त करीब है। मेरा मन भर आया, मैं रोने लगा, मैंने कहा, मां मुझ गरीब व बेचारे को आप किसके सुपुर्द करती है?
फरमाया, इसका कल जवाब दूंगी। मैंने अपने दिल में कहा कि इस वक्त क्यों नहीं जवाब देतीं? यह भी फरमाया कि जाओ, आज रात शेख नजीबुद्दीन के यहां रहो।
उनके कहने के मुताबिक में वहां गया।
रात के आखिरी हिस्से में नौकरानी दौडती हुई आयी कि बीबी तुमको बुला रही हैं।
मैं डरा और मैंने पूछा, खैरियत है?
कहा, हां।
जब मैं हाजिर हुआ तो फरमाया कि कल तुमने मुझसे एक बात पूछी थी, मैंने उसका जवाब देने का वायदा किया था। अब मैं इसका जवाब देती हूं, ध्यान से सुनो। फरमाया, तुम्हारा दायां हाथ कौन-सा है? मैंने हाथ सामने कर दिया। मेरा हाथ अपने हाथ में लिया और फरमाया, ऐ खुदा! इसको तेरे सुपुर्द करती हूं।
यह कहा और रूह जिस्म से जुदा हो गयी।
मैंने इस पर खुदा का बहुत शुक्र किया और अपने दिल में कहा कि अगर मां सोने और मोतियों से भरा हुआ एक घर छोडकर जातीं, तो मुझे इतनी खुशी न होती।
अजोधन की पहली हाजरी
हजरत ख्वाजा अजोधन हाजिर होने से पहले दिल्ली में शेख कबीर के सगे भाई ख्वाजा नजीबुद्दीन मुतवक्किल से मुलाकात कर चुके थे, बल्कि कुछ दिनों तक उनके साथ रहना भी हुआ था। उनकी सोहबत और बातचीत ने शेख कबीर के साथ मुहब्बत की उस चिंगारी में, जो बचपन में, बदायूं में रहने की मुद्दत में तबीयत में पैदा कर दी थी, उसे भडका दिया।
आपने शेख कबीर की खिदमत में हाजिरी का इरादा कर लिया, यहां तक कि आप उनकी खिदमत में पहुंच भी गये।
अपनी इस मुलाकात और पहली हाजिरी का हाल खुद की बयान फरमाया, इर्शाद हुआ कि मैं जब शेख कबीर की खिदमत में हाजिर हुआ तो आपने मुझे देखते ही यह शेर पढा-
’ऐ जुदाई की आग! दिल को कबाल कर दे। ऐ चाव के वहाव! जान को खराब कर।‘
मैं बावजूद बे-हद ख्वाहिश के, चाहता था कि आपके चरनों में गिर पडूं, लेकिन शेख के रोब ने मुझे बिल्कुल पत्थर की मूर्ति बनाकर रख दिया था।
शेख ने जब देखा कि मुझ पर रोब छा गया है तो फरमाया, हर नये आने वाले पर रोग होता ही है।
शेख कबीर रह. ने हजरत ख्वाजा की बडी खातिर फरमायी। इर्शाद हुआ कि इस परदेसी तालिबे इल्म के लिए जमाअत खाना में चारपाई बिछा दी जाए।
हजरत ख्वाजा फरमाते हैं कि जब चारपाई बिछ गयी तो मैंने अपने दिल में कहा कि मैें हरगिज उस चारपाई पर आराम न करूंगा। न जाने कितने बुजुर्ग, हाफिज और अल्लाह के आशिक जमीन पर सो रह हैं, मैं चारपाई पर लेटूं?
यह खबर खानकाह का इंतिराम करने वाले मौलाना बदरूद्दीन इस्काह को पहुंची। उन्होंने फरमाया कि उनसे कह दो कि तुम्हें अपने मन की करनी है या शेख के इर्शाद को पूरा करना है।
मैंने अर्ज किया कि शेख के इर्शाद को पूरा करूंगा।
फरमाया कि जाओ, चारपाई पर सो जाओ।
इसी हाजिरी में किसी वक्त हजरत ख्वाजा जिस इरादे से आये थे, उसे पुरा किया और शेख कबीर ेसे बैअत हो गये। उस वक्त आपकी उम्र बीस साल की थी।
शेख कबीर से दर्स
शेख कबीर की यह खास मेहरबानी थी कि आपने हजरत ख्वाजा को खुद ही कुछ चीजें पढानी शुरू कीं। फरमाया, निजाम! तुमको कुछ किताबें मुझ से भी पढनी होंगी। चुनांचे किताब ’अवारिफुल मआरिफ और तम्हीद अबू शकूर सालमी पढायी, फिर तज्वीद की तालीम भी दी और पूरे छः पारे तज्वीद के साथ पढाये।
शेख कबीर ने हजरत ख्वाजा की तर्बियत पर भी खास तवज्जो दी।
ख्वाजा फरमाते हैं कि मैं शेख कबीर की खिदमत में अजोधन हाजिर था। एक आमिल भी, जो मेरे साथी और दोस्त थे और हम दोनों एक साथ मिलकर अपने सबक याद करते थे, अजोधन आये। उन्होंने जब मुझे फटे-पुराने कपडों में देखा तो बडी हैरत और अफसोस के साथ मुझ से कहा, ’मौलाना निजामुद्दीन! तुमने अपना क्या हाल बना लिया है? अगर तुम शहर में पढने-पढाने में लगे रहते, तो आज कहीं से कहीं पहंुचते और बडी शान व शौकत से रहते।‘
मैंने अपने दोस्त की यह बात सुनी और उनसे माफी चाह ली। इसके बाद जब में शेख कबीर की खिदमत में हाजिर हुआ तो उन्होंने खुद ही फरमाया कि निजाम! अगर तुम्हारा कोई दोस्त तुम्हें मिले और तुम से कहे कि तुमने अपना क्या हाल बना लिया है और पढने-पढाने का वह सिलसिला क्यों छोड दिया जो खुशहाली और सुख-चैन का जरिया बनता और यहां इस हाल में क्यों हो तो तुम इसका क्या जवाब दोगे।
फरमाया अगर कभी कोई ऐसा सवाल करे तो कहना, तेरा रास्ता मेरे रास्ते से अलग है।
इसके बाद हुक्म हुआ कि खानकाह के बावर्चीखाने से मुख्तलिफ किस्म के खाने एक थाल में अपने सर पर रखकर उस दोस्त के पास ले जाओ।
मैंने हुक्म पर अमल किया।
मेरे दोस्त ने जब यह मंजर देखा तो रोता हुआ दौडा और मेरे सर से थाल उतारा और कहने लगा कि तुमने यह क्या किया?
मैंने सारा किस्सा सुनाया।
उसने यह सुनकर कहा कि तुम्हारे शेख ऐसे हैं कि उन्होंने तुमको इस जगह तक पहुंचा दिया है कि अपने आपको भूल जाओ। मुझे भी उनकी खिदमत में ले चलो।
जब वह खाने से फारिग हुए तो अपने नौकर से कहा कि यह थाल उठाओ, और हमारे साथ चलो।
मैंने कहा कि नहीं, जैसे मैं यह थाल अपने सर पर रखकर लाया हूं, वैसे ही सर पर रखकर ले जाऊंगा?
गरज हम दोनो खिदमत में पहंुचे और हमारे दोस्त ने हजरत के हाथ पर बैअत व तौबा की।
हजरत ख्वाजा शेख कबीर की जिन्दगी में तीन बाार अजोधन हाजिर हुए। एक हाजिरी में एक दिन 15 जुमादल ऊला को जुमा की नमाज के बाद तलबी हुई। शेख कबीर ने अपने मुंह की राल हजरत ख्वाजा के मुंह में डाला, कुरआन मजीद के हिफ्ज की वसीयत फरमायी। फरमाया कि खुदा ने दीन व दुनिया तुमको दी, यहां सब कुछ यही है, दिल्ली की तरफ रवाना किया और फरमाया-हिन्दुस्तान की तरफ जाओ, तुम्हारी एक नजर काफी होगी।
फरमाया कि दिल्ली जाना तो ’काम‘ में लगे रहना, बेकार रहता कुछ नहीं, नफ्ली रोजा रखना आधा रास्ता है, दूसरे अमल नमाज व हज (नफ्ली) आधी राह।
सियरूल औलिया में है कि खिलाफतनामा लिखकर दिया और हिदायत की कि मौलाना जमालुद्दीन को हांसी में और काजी मंुतखब को दिल्ली में दिखा देना। इर्शाद हुआ कि तुम एक साएदार पेड होगे, जिसके साए में अल्लाह की मख्लूक आराम पायेगी।
हजरत ख्वाजा फरमाते हैं कि वापसी में मैंने हांसी में शेख जमालुद्दीन को खिलाफतनामा दिखाया, बहुत खुश हुए।
इसी हाजिरी में पहली शाबान को हजरत ख्वाजा की तरफ से शेख कबीर की खिदमत में इस दुआ की दरख्वास्त पेश की गयी कि लोगों के चारों तरफ चक्कर न लगाना पडे। दरख्वास्त कुबूल हुई और दुआ फरमायी गयी।
एक मौके पर फरमाया कि मैंने अल्लाह से तुम्हारे लिए थोडी सी दुनिया भी मांग ली है।
ख्वाजा साहब फरमाते हैं कि मैं यह सुनकर चिंता में पड गया कि बडे-बडे लोग दुनिया की वजह से आजमाइश में पड गये, मेरा क्या हाल होगा।
शेख ने फौरन ही फरमाया कि तुम आजमाइश में नहीं पडोगे। इत्मीनान रखो अब जाकर मुझे इत्मीनान हुआ।
अजोधन से दिल्ली
ु ख्वाजा निजामुद्दीन रह. अब अपने मुर्शिद , पीर व बुर्जुग से रूख्सत होकर हिन्दुस्तान में दुनिया के सच्चे मालिक का पैगाम पहुंचाने निकले। यह ऐसा फकीर और खामोश तबियत आदमी था, जो हिन्दुस्तान, बल्कि सातवीं सदी हिजरी की इस्लामी दुनिया की सबसे मजबूत इस्लामी राज्य को जा रहे हो। उसके पास खुलूस, अल्लाह पर भरोसा और दुनिया से बे-नियाजी के अलावा और सामान और हथियार बगेरह नहीं हैं।
शेख कबीर ने कई बार यह ताकीद की थी कि मुसलमान को खुश रखने की पूरी कोशिश करना और हक वालों को राजनी करने में कोई कसन उठा रखना।
ख्वाजा फरमाते हैं कि मैं जब दिल्ली चला तो मुझे याद आया कि मुझे 20 जीतल एक आदमी के देने हैं और एक किताब मैंने किसी से उधार ली थी, वह खो गयी है। मैंने हुमायूं के जमाने में यह इरादा कर लिया था कि जब दिल्ली पहुंचूगा तो इन मामलों वालों को राजी करने की कोशिश करूंगा।
जब मैं अजोधन से दिल्ल्ी वापस आया तो जिस आदमी के बीस जीतल मुझे देने थे, वह बजाज था। मैंने उसे कपडा खरीदा था। किसी वक्त 20 जीतल मेरे पास जमा नहीं हुए कि मैं उसको पहुंचा देता। बडी तंगी चल रही थी, कभी पांच जीतल हाथ आये, कभी दस। एक बार दस जीतल मिले मैं उस बजाज के दरवाजे पर पहुंचा, उसको आवाज दी। वह बाहर आया तो मैंने उससे कहा कि तुम्हारे बीस जीतल मेरे जिम्मे हैं, एक बार तो मुझे देने की ताकत नहीं, यह दस जीतल लाया है इसको ले लो, दस अगर अल्लाह ने चाहा, तो इसके बाद पहुंचा दूंगा। उस आदमी ने यह सुनकर कहा कि हां, मालूम होता ह कि तुम मुसलमानों के पास से आ रहे हो। उसने वह दस जीतल तो ले लिए और कहा कि मैंने दस जीतल माफ किये।
इसके बाद मैं उस आदमी के पास गया, जिसकी किताब मैंने ली थी। उसने मुझे पहचाना। मैंने कहा कि साहब, मैंने आपसे एक किताब उधार ली थी, वह खो गयी। अब मैं उसकी नकल तैयार करके आपको दूंगा। मैं बिल्कुल उसी तरह लिखवा कर आपको पहुंचा दूंगा। उन आदमी ने कहा कि हां, तुम जहां से आ रहे हो, वहां का यही नतीजा होना चाहिए, इसके बाद उसने कहा कि मैंने यह किताब तुमको बख्शी।
तंगी के दिन
ख्वाजा रह. दिल्ली तश्रीफ लाये तो आजमाइश का वह दोर शुरू हुआ जो उस राह के राहियों को, जो आगे चलकर सबकी नजरों का तारा बनते हैं, आदत के तोर पर पेश आती है।
यह वह वक्त था कि सारे भारत की दौलत और जर व जवाहर दिल्ली उमंड कर आ रहे थे और सस्ताई का यह हाल था कि एक जीतल एक मन खरबूजा आ जाता था, लेकिन ख्वाजा साहब की तंगी का यह हाल था कि फरमाते हैं कि मेरे पास एक दांग भी न होता कि उससे मैं रोटियां खरीद कर खाऊं और मां-बहन और घर के उन लोगों को खिलाऊं जो मेरे जिम्मे थे। खरबूजा चखने को न मिलता, लेकिन अपने इस हाल में खुश रहता और आरजू करता कि जितनी फसल बाकी है वह भी गुजर जाए और मैं इसी हाल में रहूं।
उसी जमाने में जबकि आप शहरपनाह के इस बुर्ज में ठहरे हुए थे, जो मंदा दरवाजा से मिला हुआ था, कई दिन गुजर गये और खाने को कोई चीज न मिली, एक तालिब इल्म को इसका इल्म था कि कई दिन से हजरत को फाका है, उसने कुछ पडोसियों को बताया भी। वह खाना तैयार करके ले आया, खाने के लिए हाथ धुलाते वक्त खाना लाने वालों में से एक बोला, खुदा ताअला इल्म का भला करे कि उसने हमें खबर दी। ख्वाजा ने हाथ रोक लिए और फरमाया, क्या खबर थी? उसने कहा कि फ्लां तालिब इल्म ने हमें बतलाया कि आप कई दिन से फांके से हैं। चुनांचे हम यह खाना तैयार करा कर ले आये। आपने फरमाया, माफ रखो! कितनी ही उन लोगों की कोशिश थी, आपने खाना कबूल न किया।
शेख कबीर रह. की वफात
आखिरी बार आप शेख कबीर की खिदमत में तीन-चार महीने पहले गये थे। फरमाते हैं कि 5 मुहर्रम को शेख कबीर ने वफात पायी और शव्वाल के महीने में मुझे हजरत ने दिल्ली भेज दिया।
बीमारी शुरू हो चुकी थी, रमजान का महीना था और आप बीमारी की वजह से रोजा नहीं रख रहे थे। एक दिन कहीं से खरबूजा आया। खरबूजे काट कर मैंने शेख के सामने रखा, शेख ने खाया और एक फांक मुझे भी दी। मेरे मन में आया कि यह दौलत अब कहां मिलेगी कि अपने मुबारक हाथों से मुझे दे रहे हें। मैं खा लूं और दो महीने लगातार रोजे रखकर (फर्ज रोजा तोड देने) का कफ्फारा अदा कर दूंगा। फरमाया कि नहीं, नहीं मेरे लिये तो शरीअत की इजाजत है, तुम्हारे लिए तो जायज नहीं।
वफात के बाद आप अजोधन हाजिर हुए। मौलाना बदरूद्दीन इस्हाक ने शेख कबीर की वसीयत के मुताबिेक जामा, मुसल्ला और असा (सोंटा) सुपुर्द किया, जो हजरत ख्वाजा को देने के लिए शेख कबीर ने मौलाना के हवाले किया था।
दानी फकीर
सियरूल औलिया के लिखने वाले लिखते हैं कि आने वालों में से परदेशी हो या शहरी, जो आता, किसी को महरूम न फरमाते, पोशाक, नकद, तोहफे, जो भी खुदा भेजता, सब ही इन आने-जाने वालों पर खर्च हो जाता। जो भी आता और जिस वक्त भी आता, मेहरूम न जाता।
आपकी मुबारक आदत यह थी कि जब दोपहर में आराम करके उठते तो दो बातें सबसे पहले पूछते, एक यह कि दिन ढलना शुरू हुआ, दूसरे यह कि कोई आया तो नहीं, ताकि उसको इंतिजार न करना पडे।
अब हजरत ख्वाजा की तरफ दुनिया रूजू करने लगी थी और दुनिया जितना ही रूजू कर रह थी, दुनिया से उतनी ही नफरत बढती जा रही थी। अक्सर रोते। जितने ही ज्यादा फुतूहात (तोहफे-तहाइफ) होतीं , उमना ही ज्यादा रोते और उतनी ही ज्यादा कोशिश फरमाते कि जो कुछ आया है जल्द बंट जाएं।
अमीर हसन अला संजरी फरमाते हैं कि मैं एक बार हाजिर था। उन दिनों में एक अमीर ने बाग और बहुत सी जमीन और उसके साज व सामान की दस्तावेज हजरत की खिदमत में भेजी थी और अपनी अकीदत व खुलूस का इजहार किया था। हजरत रह. ने कुबूल न फरमाया, हंस कर फरमाया कि अगर मैं उसको कुबूल कर लूं तो फिर लोग क्या कहा करेंगे कि शैख बाग की सैर को गये हें और अपनी खेती और जमीन देखने तश्रीफ ले गये हें। मेरे काम से इसका क्या ताल-मेल? हमारे बुर्जुगों और शेखों में से किसी ने जमीन व जायदाद कुबूल नहीं की।
खुद तो हमेशा रोजा रखते, लेकिन दोनों वक्त शाही दस्तरख्वान लगता ओर भांति-भंाति के खाने बडे पैमाने पर चुने जाते , अमीर व गरीब, शाह व गदा , शहरी व परदेसी, नेक-बद, किसी में भेद-भाव न था, सब एक जगह बैठ कर खाना खाते, ले जाने की भी इजाजत थी। कुछ लोग खाते और बांध कर भी ले जाते।
शेख खुद खाने में शरीक होते, लेकिन उन शाही दस्तारख्वान पर, जिस तरह के भांति-भांति के खाने और नेमतें होतीं, उनका खाना आम तौर पर एक या आधी रोटी और कुछ करेला वगैरह की सब्जी या थोडे से चावल होते।
बादशाहों से बे-ताल्लुकी
हजरत निजामुद्दीन रह. सिलसिला चिश्तिया से ताल्लुक रखते हैं। इस सिलसिले के बुजुर्गों का काम शुरू से ही दीनी रहनुमाई और समाज सुधार रहा है, साथ ही इन बुजुर्गों ने वक्त के बादशाहों से कभी कोई ताल्लुक कायम न किया, यह अलग बात है कि वे दरबार के गलत रूझानों में सुधार का काम भी किया करते थे।
हजरत ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती रह. से लेकर ख्वाजा निजामुद्दीन रह. तक यह मानी हुई एक बडी हकीकीत थी कि उनको न दरबार का जाना है, न वक्त के बादशाहों से मुलाकत करनी है। इस उसूल पर ये लोग सख्ती से अमल करते रहे, इसका नतीजा यह निकला कि सियासत के कांटों में इनका दामन कभी न उलझा।
हजरत शेख निजामुद्दीन रह. जब से शेख कबीर के पास से हिन्दुस्तान आये थे, दिल्ली के तख्त पर एक-एक करके पांच बादशाह बैठे, उन्होंने जोरदार हुकूमतें कीं, लेकिन एक मौके के अलावा, जब कि दीनी जरूरत पेश थी, वह न कभी दरबार में गये और न कभी वक्त के बादशाह को अपने यहां आने की इजाजत दी।
दिन भर क्या करते
अमीर खुर्द ने हजरत ख्वाजा का प्रोग्राम इस तरह लिखा हैः-
’रोजा इफ्तार करने के बाद (जो जमाअत के साथ होता था) अपने कोठे के ठहरने की जगह पर तश्रीफ ले जाते थे, दोस्त और खादिम लोग जो शहर और बाहर से आये हुए, होते थे, मगरिब व इशा के दर्मियान ऊपर ही बुला लिए जाते थे। वहां खाना-पीना भी चलता। आप हर एक की खैरियत पूछते और सबका दिल रखने की कोशिश करते।
इशा की नमाज पढने के लिए फिर नीचे तश्रीफ लाते, जमाअत के साथ नमाज पढकर फिर कोठे पर तश्रीफ ले जाते, कुछ देर लगे रहते, फिर आराम करने के लिए चारपाई पर तश्रीफ ले जाते। उस वक्त उनको तस्बीह दी जाती, अमीर खुसरो के अलावा उनके पास उस वक्त किसी और को जाने की इजाजत न थी।
जब अमीर खुसरो और लडके इजाजत लेकर रूखसत होते तो इकबाल नौकर आते और पानी के भरे हुए कुछ आफ्ताबे आपके वुजू के लिए रखकर बाहर चले जाते। इसके बाद हजरत ख्वाजा खुद उठते और दरवाजे को जंजीर लगाते, फिर वहां की खबर अल्लाह के सिवा किसी को नहीं।
भोर में, बहुत सवेरे खादिम आता, दरवाजे पर दस्तक देता। हजरत ख्वाजा दरवाजा खोल देते, सेहरी में जो कुछ होता, आप खा लेते।
इंतिकाल
उमर मुबारक जब अस्सी से आगे बढी तो आखिरत के सफर की निशानियां जाहिर होने लगीं। एक दिन इर्शाद फरमाया कि मैंने ख्वाब में प्यारे नबी सल्ल. की जियारत की। इर्शाद हुआ, निजाम! हमको तुम्हारा बडा इश्तियाक है।
बीमारी ही में आपने बहुत से लोगों को खिलाफत अता फरमायी और इजाजतनामें लिख कर दिए। जिन लोगों के लिए ये इजाजतनामें थे, उनको जहां-जहां वे थे, पहुंचा दिए गए। लोग मौजूद थे, उनको बुलाकर खुद अता किये ्रगये।
वफात से 40 दिन पहले से खाना बिल्कुल छोड दिया था, खाने की खुश्बू तक पसंद न थी, इतना रोते थे कि एक घडी के लिए भी आंसू नहीं थमते थे।
18 रबीउल आखर 728 हि. को अल्लाह और उसके रसूल के इस बजुर्ग फर्मा बरदार का सूरज डूब गया।
मुझे अब मालूम हुआ कि मुझे 4 साल तक दिल्ली में इसलिए रखा गया कि मुझे जनाजे की इस नमाज की इमामत का शर्फ हासिल हुआ।
ृ सारी उम्र बिन-ब्याहे गुजार दी, इसलिए कोई औलाद न ही थी, हां, रूहानी सिलसिला सारे हिन्दुस्तान में फैला और अभी तक जारी है।
ऊंचा अखलाक
अमीर हसन अला संजरी रिवायत करते हें कि एक बार मजिलस में यह जिक्र हो रहा था कि कुछ लोग मस्जिद मंे कयाम करते है। और वहां कुरआन मजीद की तिलावत करते और नफ्ल पढते हैं। मैंने अर्ज किया कि अपने घर में एक पारा पढे, वह मस्जिद में एक कुरआन खत्म करने से बेहतर है। इस पर यह जिक्र आ गया कि बीते जमाने में एक साहब जामा मस्जिद दमिश्क मंे रात भर इबादत मंे मशगूल रहते थे, इस लालच में कि उसकी आम शोहरत होगी और शेखुल इस्लाम के ओहदे पर (जो उस जमाने में खाली था) उन्हें रख लिया जाएगा। यह सुनकर हजरत ख्वाजा रह. की आंखों में आंसू भर आये और आपने फरमायाः-
आग लगाओ ऐसी शेखुल इस्लामी को, फिर खानकाह को, फिर अपने को खाक करके रख दो।
सियरूल आरिफीन में है कि ख्वाजा नसीरूद्दीन चिराग दिल्ली रह. फरमाते थे कि हिसार इन्द्रपत में (जो गांव गयासपुर के करीब है) झज्जू नामी एक आदमी था, जिसकी बे वजह- हजरत से दुश्मनी थी, बुराभला भी कहता रहता था और आपको तक्लीफ पहुंचाने की फिक्र में रहता था, उसका इंतिकाल हो गया। हजरत शेख ने उसके जनाजे में शिर्कत की, दफन के बाद उसके सरहाने दो रकआत नमाज पढी और दुआ फरमायी-
’’ऐ अल्लाह! इस आदमी ने जो कुछ कहा या बुरा सोचा हो, मैंने उसको बख्श दिया, तू मेरी वजह से उसको सजा न देना।‘‘
एक बार हाजिर लोगों में से एक साहब ने जिक्र किया कि कुछ लोग आपको मिंबर पर और दूसरे मौकों पर बुरा-भला कहते हैं हमसे सुना नहीं जाता। हजरत ख्वाजा ने फरमाया कि मैंने सबको माफ किया, तुम भी माफ करो, और ऐसे आदमी से झगडा न करो। इसके बाद आपने फरमाया कि अगर दो आदमियों के दर्मियान रंजिश हो, तो उस रंजिश को दूर करने का तरीका यह है कि आदमी अपने अन्दर को दुश्मनी से खाली कर ले, दूसरे की तरफ से भी तक्लीफ कम हो जाएगी।