हिंसा एक संक्रामक रोग की तरह है, इसकी चपेट में सबसे ज्यादा किशोर ही आते हैं। पिछले दिनों एक सर्वेक्षण, 1500 किशोरों पर किया गया। जिससे सामने आया कि जो किशोर अपने घर, स्कूल या पासपड़ोस में लगातार हिंसा देखते हैं, उनका मन-मस्तिष्क वैसे ही ढलता चला जाता है। वे जरा-जरा सी बात पर भी मारपीट पर आमादा हो जाते हैं। यहां तक कि वे हथियारों का इस्तेमाल करने से भी परहेज नहीं करते। मां-बाप के संवेदनशील व्यवहार के अलावा, किशोरों में हिंसा की इस प्रवृत्ति को रोकने के लिए स्कूलों में कार्यक्रम चलाने की भी जरूरत है। सर्वे में यह बात सामने आयी कि हिंसक प्रवृत्ति वाले जिन किशोरों को विशेष निगरानी में रखकर उनकी मनोवैज्ञानिक तरीके से देखभाल की गयी उनमें यह प्रवृत्ति समाप्त हुई। जो किशोर जिस तरह की हिंसा के माहौल में रहता है, उसमें उसी तरह की हिंसक प्रवृत्ति पैदा होती है। उपद्रवग्रस्त या आतंकवादग्रस्त किसी भी देश या क्षेत्र में अधिकतर किशोर उसमें शामिल हो जाते हैं। एक अन्य सर्वे में पाया गया कि बच्चों और किशारों में ंिहंसा की प्रवृत्ति का एक और कारण फिल्मों व टीवी सीरियलों में दिखायी जा रही विभिन्न तरह की हिंसा है। उन पर टीवी सीरियलों में दिखायी जा रही घरेलू हिंसा का बुरा प्रभाव पड़ता है। वे अपने इर्दगिर्द जो कुछ भी देखते हैं, उसका उदाहरण टेलीविजन या सिनेमा में ढूंढते हैं और फिर उसी के अनुरूप प्रतिक्रिया करते हैं।यह तेजी से उनके बर्ताव में दिखने लगता है, जिसका समय रहते यदि इलाज ना किया जाए तो व्यक्तित्व पर असर दिखने लगता है। मनोचिकित्सक बताते हैं कि टेलीविजन पर लगातार ंिहंसक फिल्में देखने वालों का व्यवहार असामान्य हो जाता है। उनकी मानसिक दशा ठीक नहीं रहती। वे बात-बात पर मारपीट करने लगते हैं। ऐसे बच्चों को मनोचिकित्सक को तुरंत दिखाने की जरूरत होती है। इनको आउट-डोर गेम खेलने के लिए लगातार प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
थूक डालिए गुस्सा
इस सच्चाई से मुकरा नहीं जा सकता कि कुछ लोगों को ज्यादा ही गुस्सा आता है। जिसे काबू करना खुद उनके बस में नहीं होता। वे पैदाइशी गुस्सैल होते हैं। बर्दाश्त ना कर पाने वाले इन लोगों में कई दफा इसीलिए कुंठा पनपने लगती है। उनके लिए खुद पर काबू रखना मुश्किल होता है। ज्यादा गुस्सा ब्लड-प्रेशर को भी बढ़ाता है,नतीजतन अल्सर और हार्ट-अटैक जैसी समस्याएं आम हैं। अमरीका में हुए अध्ययन में एक हजार मनोवैज्ञानिकों ने पाया कि गुस्सैल लोग, शांत लोगों से पांच गुना ज्यादा दिल संबंधी समस्याओं के मरीज होते हैं। बस का लेट होना, चाय अच्छी ना बन पाना, बच्चों का टेलीविजन तेज आवाज में देखना,बीवी का ज्यादा पूछताछ करना, पीछे वाली गाड़ी का लगातार हार्न बजाना या व्यस्त सड़क पर ओवरटेक करने की कोशिश करना-कुछ भी इनमें झुंझलाहट पैदा करता है। जिससे ये बार-बार नाराज हो जाते हैं, चिड़चिड़ाते हैं और सामने वाले पर अटैक को तैयार रहते हैं। माना जाता है कि दुख,उपेक्षा और निराशाजनक यादें गुस्से का बड़ा कारण होती हैं। लगातार आती समस्याएं भी आदमी को गुस्से की तरफ ढकेलती हैं। हालांकि गुस्सा बे-कारण नहीं होता। इसका कोई ठोस कारण पाया जाता है। अपनी भावनाओं को कैसे प्रकटते हैं, इसका भी सीधा असर आपके स्वभाव पर दिखता है। उचित व्यवहार या अपनी भावनाओं का साफ तौर पर प्रदर्शन आपकी समझदारी का नतीजा होता है। कुछ लोग विपरीत स्थिति में भी सकारात्मक बर्ताव करते हैं। जिसे विशेषज्ञ रचनात्मक बर्ताव कहते हैं। खतरनाक स्थिति को भांपकर भावनाओं पर काबू रखना या तुरंत सही दिशा में मोड़ देने को ही समझदारी माना जाता है। इसका मतलब यह ना निकाला जाए कि गुस्से को दबाए रखना समझदारी है। क्योंकि ज्यादा गुस्सा दबाने का नतीजा भी अच्छा नहीं होता। गुस्सा ना कर पाने पर कई लोगों को कंपकपी छूट जाती है। कुछ सिर चकराने, मिचली, पसीना छूटने की भी शिकायत करते हैं। कई को खासा तनाव हो जाता है। मनोविश्लेषक कहते हैं आप वैसा ही व्यवहार करें, जैसा दूसरों से चाहते हैं। भावनाओं पर काबू ऐसे करें। – रईसा मलिक