हिंदी पर तुरंत ध्यान दिए जाने की जरूरत है, लेकिन किसका ध्यान और किस तरह का ध्यान? क्या उसे सरकारी संरक्षण प्रदान किया जाए या फिर उसके प्रचार-प्रसार की जिम्मेदारी आमजन पर छोड़ दी जाए, जो अपने माहौल और स्थितियोïं के अनुरूप हिंदी को अपना कर उसे संप्रेषण का माध्यम बनाएं। जो लोग हिंदी के विकास और उसके प्रचार-प्रसार की इच्छा रखते हंï, को यह समझना होगा कि किन कारणो से हिंदी का विकास प्रभावित हुआ और अब कैसे उसे लोकप्रिय भाषा बनाकर उसका प्रचार-प्रसार किया जा सकता है? इसकी शुरुआत संविधान मेंï दर्ज अनुच्छेद से की जा सकती है जो भारत मेंï हिंदी को आधिकारिक भाषा का दर्जा प्रदान करता है।
संविधान का अध्याय 17 यह स्थापित करता है कि ‘संघ की राजभाषा हिंदी और लिपि देवनागरी होगी। इस अध्याय मेंï यह व्यवस्था भी दी गई है कि राज्य के विधाई कार्यों मेंï राजभाषा का ही प्रयोग होगा। साथ ही भाषाई अल्पसंख्यक वर्गों के लिए एक विशेष अधिकारी की नियुक्ति का प्रावधान भी किया जो ‘इस संविधान के अधीन भाषाई अल्पसंख्यक वर्गों के लिए उपबंधित रक्षोपायोïं से संबंधित सभी विषयोïं का अन्वेषण करेगा। इसके बाद इसी अध्याय के अनुच्छेद 351 मेंï विस्तृत रूप मेंï हिंदी भाषा के विकास के लिए निर्देश दिए गए हंैï।
यह अनुच्छेद व्यवस्था देता है कि संघ का यह कर्तव्य होगा कि वह हिंदी भाषा का प्रसार बढ़ाए,उसका विकास करें, जिससे वह भारत की सामाजिक संस्कृति के सभी तत्वो की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके और उसकी प्रकृति में हस्तक्षेप किए बिना हिंदुस्तानी मेंï और आठवींï अनुसूची मेंï विर्निदिष्टï भारत की अन्य भाषाओंï मेंï प्रयुक्त रूप, शैली और पदो को आत्मसात करते हुए और जहां आवश्यक या वांछनीय हो वहां उसके शब्द-भंडार के लिए मुख्यत: संस्कृत से और गौणत: अन्य भाषाओïं से शब्द ग्रहण करते हुए उसकी समृद्धि सुनिश्चित करें।
इस अनुच्छेद के आलोक मेंï प्रश्न उठता है कि हिंदी के विकास के लिए भारत को मिश्रित संस्कृति वाला देश घोषित करने के बाद यह निर्देश क्यो दिया गया? खासकर जब ‘हिंदुस्तानी और आठवीïं अनुसूची मेंï विनिर्दिष्टï भारत की अन्य भाषाओंï मेंï प्रयुक्त रूप, शैली और पदो को आत्मसात करते हुए हिंदी की समृद्धि सुनिश्चित की गई है? विद्यमान परिस्थितियो मेंï क्योïकर हिंदुस्तानी को आधिकारिक राजभाषा नही बनाया गया? उसके स्थान पर संस्कृत निष्ठï हिंदी को यह दर्जा दिया गया, जिसे विकास के लिए हिंदुस्तानी रूप, शैली और पदो को आत्मसात करना होगा? हिंदुस्तानी का रूप, शैली और पद लगभग पूरे भारत मेंï एक समान है और इसके लिए हमारी हिंदी फिल्मेंï विशेष तौर पर बधाई के पात्र है। ऐसे मेंï हिंदुस्तानी अभिव्यक्ति के मामले मेंï काफी लचीली भाषा साबित हो सकती है। हिंदुस्तानी रूप, शैली और पद इसलिए भी लोकप्रिय है, क्योकि इसे भारत के विभिन्न क्षेत्रोंï के लोगो ने अपने हिसाब से अपनाया है। इससे भाषा को न सिर्फ नए शब्द मिले बल्कि नए व्याकरण को भी गढ़ा गया। अंग्रेजी के वैश्विक और लोकप्रिय होने का भी यही एक प्रमुख कारण है। इसका इस्तेमाल जहां-जहां हो रहा है वहां के लोगोïं ने अपनी क्षेत्रीय भाषा के शब्दोंï का घालमेल इसके साथ कर इसे आत्मसात कर लिया है।
इस क्रम मेंï महाराष्ट, गुजरात, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, तमिलनाडु, बंगाल, असम, पंजाब, जम्मू कश्मीर, हिमाचल प्रदेश, उत्तरांचल आदि राज्यो में हिंदुस्तानी बोलने वाले लोगोंï ने क्षेत्रीय आम बोलचाल वाले शब्द हिंदुस्तानी मेंï शामिल करने मेंï हिचक नहींï दिखाई। परिणामस्वरूप हिंदुस्तानी आम लोगो की भाषा बन कर उभरी, जिसके विकास का प्रयास स्वयं आम लोगो द्वारा ही किया जा रहा है। आज इस क्षेत्रीय शब्दावली के घालमेल के परिणामस्वरूप हिंदुस्तानी इस उपमहाद्वीप की आम बोलचाल की भाषा बनने को अग्रसर है। इसकी एक प्रमुख वजह यह है कि यह संस्कृत निष्ठï हिंदी और फारसी निष्ठï उर्दू से कहींï बेहतर प्रभाव रखती है। दूसरे संस्कृत निष्ठï हिंदी और फारसी निष्ठï उर्दू को सांप्रदायिकता का जामा पहनाते हुए धार्मिक-राजनीतिक रूप स्वरूप दे दिया गया है। याद करे, संस्कृत निष्ठï हिंदी के बजाय आम बोलचाल के शब्दो वाली हिंदुस्तानी भाषा मेंï ही मुशी प्रेमचंद सरीखे साहित्यकारोïं ने साहित्य का सृजन किया। कह सकते हैंï कि हिंदुस्तानी ही एकमात्र भाषा है जो दक्षेस की एकल भाषा बन सकती है।
इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए यह जरूरी है कि हिंदुस्तानी को एक से अधिक आधिकारिक लिपि का अधिकारी बनाया जाए। दाएं से बाएं वाली फारसी लिपि के साथ-साथ बाएं से दाएं देवनागरी लिपि हो सकती है। हालांकि एक प्रश्न उठता है कि भारत के वे क्षेत्र जिनकी अपनी लिपि है उनका क्या होगा? जाहिर है भारत की आधिकारिक भाषा की कई आधिकारिक लिपियां नहींï हो सकतीं। इस अड़चन से पार पाने का एक तरीका भी है। देवनागरी और फारसी लिपि के अतिरिक्त हिंदुस्तानी को भी क्योंï नही लातिन लिपि मेंï लिखा जाता? लातिन लिपि न सिर्फ भारत और दक्षिण एशिया, बल्कि हर उस जगह लोकप्रिय है जहाँ अंग्रेजी या अन्य पश्चिमी यूरोपीय भाषा बोली जाती हैï। इसका आशय यह भी नही है कि भारत अंग्रेजी वर्णमाला को ही अंगीकार कर ले। बेहतर रहेगा कि भारतीय या सामान्यत: दक्षिण एशियाई स्वरों के अनुरूप लातिन लिपि विकसित की जाए। इसके बाद ही हिंदी या हिंदुस्तानी को मदद मिल सकेगी। हालांकि यह भी जरूरी है कि हम अंग्रेजी को भी बनाए रखेï, जो वैश्विक परिदृश्य के लिए राजनीतिक तौर पर जरूरी हो चुकी है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है कि हिंदी और उर्दू को सांप्रदायिक रंग दे दिया गया है। हिंदी के विकास और प्रसार के लिए जरूरी है कि हमारे राजनीतिज्ञ संकीर्ण मानसिकता से ऊपर उठ कर हिंदी को हिंदुस्तानी मानेï और उसके लिए काम करे। – सैफ मलिक