अहमद नाम, कुन्नियत अबुल फययाज़, उर्फ वलीयुल्लाह है। बशारती नाम कुतुबउद्दीन और तारीखी नाम अज़ीमुद्दीन मशहूर है। वालिद शेख़ अब्दुर्रहीम अबुज फ़ैज़ थे जो अपने वक्त के ज़बरदस्त आलिम और मशहूर बुज़्ाुर्ग थे।
शाह साहब के खानदान का सिलसिला वालिद की तरफ़ से हज़रत उमर तक और वालिदा की तरफ़ से इमाम काज़िम तक पहुंचता है।
आप बुध के दिन 4 शव्वाल सन् 1114 हि. (1703 ई.) सूरज निकलने के वक़्त दिल्ली में पैदा हुए।
ृ बचपन के हालात ज़्यादा मालूम नहीं, लेकिन आपकी तबीयत में शुरू ही से सादगी, शराफ़त और संजीदगी मौजूद थी। शुरू ही से बहुत ज़हीन थे। आम बच्चों की तरह आप खेल-कूद में बेकार वक़्त बर्बाद न करते थे।
तालीम व तर्बियत
आप पांच वर्ष के हुए तो मक्तब में कुरआन मजीद पढ़ने के लिए बिठाये गये। सातवें साल कुरआन खत्म कर लिया। इसके बाद आपने फ़ारसी की किताबें शुरू कीं। एक साल में फ़ारसी की तालीम पूरी कर ली और सर्फ़ व नह्न (व्याकरण) की तरफ़ मुतवज्जह हुए और दस वर्ष की उम्र में ’’शरह मुल्ला जामी‘‘ तक पहुंच गये, इस तरह अरबी-फारसी में महारत हासिल कर ली। फिर दरसी किताबों की तरफ तव्वजोह की और निसाब पूरा करने के साथ-साथ हकीमी, हिसाब, ज्योमेट्री वगैरह की भी कुछ किताबें पढ़ डालीं। इस तरह आप छोटी सी उम्र में बहुत बड़े आलिम बन गये।
शाह साहब की उम्र जब 14 साल की हुई तो शादी की सूरत पैदा हो गयी, यहां तक की शादी हो गयी।
शादी के एक साल बाद यानी पंद्रह साल की उम्र में आपने वालिद साहब के हाथ पर बैअत की। उन्होंने आपको बातिनी इल्मांे की तरफ तवज्जोह दिलायी। और आप निगरानी में सूफ़ी अश्ग़ाल में लग गये। दो-तीन साल की मुद्दत में आपने बातिनी इल्म में भी कमाल हासिल कर लिया, फिर आपको उम्र के सत्तरहवें साल आपके वालिद सख्त बीमार हुए और उसी मौक़े पर आपको बैअत व इर्शाद की इजाज़त दे दी। 1131 हि. (1719 ई.) में वालिद का इंतकाल हो गया।
बैअत व इर्शाद का सिलसिला
अपने वालिद के इंतिकाल के बाद आप 1131 हि. मुताबिक 1719 ई. में मुस्तक़िल तौर पर बैअत व इर्शाद की गद्दी पर बैठे और पढ़ाने-सिखाने का सिलसिला शुरू किया। आपके इल्म, फ़ज़्ल की शोहरत दूर-दूर तक पहुंच चुकी थी। इल्म के प्यासे गिरोह-गिरोह करके चले आते और शागिर्दी इख्तियार करते। यह सिलसिला लगभग 12 साल तक चलता रहा।
इस दौरान आपको हर इल्म व फ़न में ग़ौर का मौक़ा मिला। इसी ज़माने में आपने फिक्ह के चारों मज़हबों और उनके उसूलों की किताबों का ग़ौर से पढ़ा और उन हदीसों को भी गहरी नज़र से देखा, जिनसे फिक़्ह के ये मशहूर इमाम अपने मस्लकों की सनद लाते हैं।
यही वह ज़माना है कि जिसमें आप इल्म के दरिया में डूबे और जानकारियों का मोती निकाला। किताबों के पढ़ने-समझने की वजह से खाना भी कम खाते थे और आराम भी कम करते थे।
इल्म का शौक़ इतना बढ़ा कि आपने मक्का-मदीना भी जाने का इरादा कर लिया। इसलिए की हदीस के इल्म की प्यास वहीं बुझ भी सकती थी। चुनांचे इसी इरादे के तहत आप सन् 1143 हि. मुताबिक 1731 ई. के आखिर में हज के लिए रवाना हुए।
सबसे पहले मुअज़्ज़मा पहुंचे और उसी साल हज से फारिग होकर मदीना तैयबा तशरीफ ले गये, लगभग एक साल तक वहां रहे और इल्म ज़ाहिरी व बातिनी हासिल करते रहे।
वहां साहब ने बहुत से आलिमों और बुजुर्गों से फ़ैज़ हासिल किया। पहली बार शाह साहब ने भारत में शेख मुहम्मद अफ़्ज़ल खां उर्फ हाजी सियालकोटी से हदीस पढ़ी थी, फिर मदीना मुनव्वरा में शेख़ अबु ताहिर मुहम्मद बिन इब्राहिम कोदी मदनी से सनद हासिल की।
शेख़ अबु ताहिर के अलावा शाह साहब ने शेख़ वफ्दुल्लाह बिन शेख़ सुलैमान मग़्िरबी के दर्स शिर्कत की और मुअत्ता यह्या बिन यह्या शुरू से आखिर तक सुनायी। इसके बाद शेख़ मुहम्मद बिन मुहम्मद सुलैमान मग़्िरबी की रिवायतों की इजाज़त ली।
शाह साहब ताजुद्दीन क़लई हनफ़ी मुफ्ती मक्का की खिदमत में भी हाज़िर हुए और सही बुख़ारी के सुनने के अलावा ’’सिहाहे सित्ता‘‘ (हदीस की छः मशहूर किताबें) की मुश्किल जगहों को सुना, इसके अलावा दूसरी किताबें भी पढ़ीं और इजाजत हासिल की।
शाह साहब ने दूसरे बड़े-बड़े उस्तादों से भी फायदा उठाया। शेख़ सनाकी, शेख़ कशाशी, सैयद उब्दुर्रहमान उवैसी, शम्सुद्दीन, मुहम्मद बिन अला बाबली, शेख़ ईसा जाफरी, शेख़ हसन आज़मी, शेख अहमद अली और शेख अब्दुल्लाह बिन सालिम बसरी से भी फै़ज़ उठाया।
हज से वापसी पर
वहां एक साल तक ठहरने के बाद आपने हदीस व फ़िक़्ह में कमाल पैदा कर लिया। फिर 1144 हि. यानी 1732 ई. के आखिर में आपने दोबारा हज किया और सन् 1445 हि. के शुरू में वतन का रूख किया। पूरे छः महीने आपको आते-आते लग गये। और 14 रजब 1145 हि. ठीक जुमा के दिन सही-सलामत दिल्ली। पहुंचे। दिल्ली पहुंचनेे पर आपने पुरानी दिल्ली के ’’मेहदियों‘‘ मुहल्ले में अपने वालिद के एक छोटे से मकान में पढ़ने-पढ़ाने का सिलसिला शुरू किया और वह मदरसा रहीमिया के नाम से मशहूर हुआ।
जब आपकी शोहरत हुई तो कुछ ही दिनों में दूर-दूर से इल्म हासिल करने वाले गिरोह-गिरोह करके आने लगे थे। उस वक़्त दिल्ली का बादशाह मुहम्मद शाह रंगीला था। उसने यह सूरत देख कर उन्हें बुलाया और शहर में एक आलीशान हवेली दे दी। आपने यहां ’’दारूल हदीस‘‘ खोला और पुरानी जगह गै़र आबाद हो गयी। यह नया मदरसा बड़ा आलीशान और खूबसूरत था और यह एक बड़ा दारूल उलूम समझा जाने लगा।
यह दारूल उलूम अपनी खूबियों की वजह से इतना मशहूर हुआ कि आपके बाद भी खूब चला। पहले तो आपको चारों साहबज़ादों ने चलाया, फिर दूसरे आलिमों ने इसे अपने ज़िम्मे लिया, यहां तक कि 1857 के ग़दर (यानी 1274 हि.) में यह मदरसा तबाह हो गया।
हज से वापसी के बाद पढ़ने-पढ़ाने के ज़माने में अपने वक़्तों को तीन अहम मश्ग़लों में लगाने के लिए खास कर लिया था-
1. सुबह की इबादत और वजीफ़ों के बाद दोपहर तक हदीस का सबक़ देते,
2. हदीस के मर्म, नबूवत की हक़ीक़तों के बताने के अलावा दीन, मारफ़त व तसव्वुफ के भेदों पर भी तक़रीर फ़रमा कर सुनने वालों को फ़ैज़ पहुंचाते।
3. तीसरा निहायत अहम काम आपका यह था कि जो वक़्त इन दोनों कामों से बच जाता, उसे बर्बाद न होने देते, बल्कि कुछ न कुछ लिखते रहते। इसके बाद आपने हरफ़न के लिए एक आदमी तैयार कर लिया था, जिस फ़ना का जो होता, उसी के सुपुर्द वह काम कर देते।
गतांक से आगेः-
इस तरह धीरे-धीरे पढ़ने-पढ़ाने पर तवज्जोह देने के बजाए आपने लिखने पर ज़्यादा वक्त देना शुरू कर दिया। हज़रत शाह अब्दुल अज़ीज़ फ़रमाते हैं कि आप इशराक के बाद जो बैठ जाते तो दोपहर तक न पहलू बदलते, न खुजलाते और न मुंह से थूकते।
कुरआन मजीद का तर्जुमा
शाह साहब के ज़माने में, जैसा कि पहले बयान किया जा चुका है, कुरआन मजीद की तरफ़ कोई तवज्जोह न देता था, उसे सिर्फ रेशमी ग़िलाफों के बन्द करके रख दिया जाता था। उसका काम सिर्फ़ यह रह गया था कि ज़रूरत पड़ने पर फ़ाल निकालते या क़सम खाने के लिए उसे उठाने का काम लेते। जिंदगी के अमली मैदान में उससे कोई फायदा न उठाया जाता था।
हज से वापसी पनर आपने इस ज़ेहन को बदलने के लिए कुरआन मजीद का फारसी में तर्जुमा करना शुरू कर दिया। तर्जुमे का काम सन् 1727 ई. में शुरू हुआ और 1738 में खत्म हुआ।
शाह वलीयुल्लाह पहले बुज़्ाुर्ग हैं, जिन्होंने साढ़े ग्यारह सौ वर्ष बाद सबसे पहले फ़ारसी में कुरआन मजीद का तर्जुमा शुरू कर दिया।
आप ही की पैरवी में आपके बेटे शाह रफ़ीउद्दीन साहब ने कुरआन का लफ़्ज़ का लफ़्ज़ से तर्जुमा किया, जो उर्दू में था, लेकिन दूसरे बेटे हज़रत शाह अब्दुल क़ादिर ने मुहावरेदार उर्दू में तर्जुमा लिखा।
इसके बाद अब तो तर्जुमों की भरमार हो गयी और दुनिया की कौन सी मशहूर जुबान ऐसी है जिसमें कुरआन मजीद की तर्जुमा न हुआ हो।
तर्जुमें के अलावा शाह साहब न बहुत सी किताबों लिखी हैं, जो अपनी मिसाल आप हैं। इनकी तायदाद दो सौ से ज्यादा बयान की जाती है। ये किताबें हर फ़न से मुताल्लिक है और कुल 27-28 वर्ष में जुट कर काम करने का नतीजा है।
आप बड़ी खूबियों के मालिक थे
शाह साहब को बड़ी सादा तबीयत मिली थी, मिज़ाज में नर्मी बहुत थी। हर शख्स से, चाहे वह दर्जे-रूत्बे में किसी भी मेयार का हो, हमेशा हंसते हुए मिलते। घर में हों या मज्लिस में, कभी किसी की बुराई न करते और दुश्मन के हक़ में भी भली बातें ही कहते।
मिज़ाज में नर्मी होने के बावजूद, दिखावा, घमंड या ज़ाहिरी टीप-टाप उनमें बिलकुल न था। बड़ी हिम्मत वाले, बड़े हौसले वाले इंसान थे। मेहनती भी बहुत थे। एक बार तो एक मौक़ा आने पर हक़ के बचाव में आपने तलवार भी उठा ली थी।
कैसी भी मुश्किल हो, कोई भी मुसीबत हो, आप निहायत सब्र व सुकून के साथ अपनी जगह डटे रहते और कहीं ज़रा भी पांवों में डगमगाहट पैदा होने देते।
माली एतबार से शाह साहब दर्मियानी घरानों से ताल्लुक रखते थे। अक्सर गरीबों, मुहताजों और जरूरतमंदों की मदद से फ़रमाया करते। बुजुर्गों और मेहमानों के सेवा में कोई असर उठा न रखते। खाते-पीते होने के बावजूद बहुत ही सादा ज़िंदगी बसर करते। अक्सर दस्तरख्वान पर सादा रोटी और मामूली सब्ज़ ही होती।
इंतिकाल
आपकी आखिरी उम्र में दिल्ली तंगनज़र शीआ नजफ़ अली खां का कब्ज़ा हो गया था। वह मुग़ल दरबार का आखिरी अमीर था। इसने बहुत से आलिमों को सज़ाएं दीं। अमीर शाह खां ’’अमीरूर्रिवायत‘‘ में बयान फरमाते हैं कि उसने शाह वलीयुल्लाह के पहुंचे उतरावर कर हाथ बेकार कर दिये थे ताकि वह किताब या मज़मून न लिख सकें।
जब आपकी उम्र 61 साल से कुछ ज्यादा हुई तो मरज़्ाुल मौत ने आ लिया और कुछ दिनों की बीमारी के बाद आसमाने इल्म का यह सूरज 29 मुहर्रमुल हराम सन् 1763 ई. ज़्ाुहर के वक़्त दिल्ली में हमेशा के लिए डूब गया।