ख्वाजा कुतुबउद्दीन बख्तियार रह. कस्बा ओश (माउराउन्नहर) में पैदा हुए। डेढ साल के थे कि बाप का साया सर से उठ गया, मां ने तर्बियत की, पांच साल की उम्र में स्कूल में दाखिल हुए। मौलाना अबू हफ्स ओशी रह. से तालीम हासिल की, फिर बगदाद का सफर कियां तालीम पूरी की और अपने पीर व मुर्शीद की हिदायत पर हिन्दुस्तान तश्रीफ लाये और दिल्ली में पडाव डाला।
सुल्तान शम्शुद्दीन अलतमश ने हाथों हाथ लिया, लेकिन आपने दरबार से कोई ताल्लुक रखना पसन्द न किया, इसलिए सुल्तान की हर पेशकश जैसे ओहदा व जागीर को कुबूल न फरमाया और पहले किलोखरी मेंत्र फिर मलिक इज्जुद्दीन की मस्जिद करीब फकीरों की तरह जिन्दगी गुजारनी शुरू कर दी। फिर भी सुल्तान, अकीदत की वजह से बराबर हाजिरी देता रहा।
हजरत ख्वाजा कुतबुद्दीन बख्तियार काकी रह. को शहर दिल्ली में आये कुछ ही दिन गुजरे थे कि शैखुल इस्लाम मौलाना जमालुद्दीन बुस्तानी रह. का इंतिकाल हो गया। मौलाना के इंतिकाल के बाद सुल्तान शम्सुद्दीन ने आपसे दरख्वास्त की कि आप ’’शेखुल इस्लाम‘‘ का ओहदा कुबूल फरमा लें, लेकिन नजमुद्दीन सुगरा को, जो बहुत बडे आलिम थे दे दिया गया।
नजमुद्दीन सुगरा हजरत ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती रह. के मिलने वाले और बडे भले और नेक आदमी थे। लेकिन इस ओहदे पर आने के बाद उनका रंग ही बिल्कुल बदल गया, यहां तक कि वह हजरत बख्तियार काकी रह. के एक फकीर से बन गये।
एक दिन हजरत ख्वाजा मुईनुद्दीन चिश्ती, हजरत बख्तियार काकी रह. के पास दिल्ली तश्रीफ लाये। सारा शहर उमड कर उनकी जियारत के लिए जा पहुंचा। लेकिन शेख नजमुद्दीन सुगरा, उनसे गहरा ताल्लुक रखने के बावजूद सिर्फ इसलिए मिलने नहीं गये कि वह हजरत बख्तियार काकी रह. के पीर थे। आखिर ख्वाजा अजमेरी खुद शेख नज्मुद्दीन सुगरा से मिलने के लिए तश्रीफ ले गये, लेकिन नजमुद्दीन इसके बजाए कि आपके आने पर खुश होते, बडी बे-तवज्जोही से पेश आये। आखिरकार उन्हांेने अपने मुरीद को अजमेर चलने का हुक्म दे दिया। हजरत बख्तियार काकी रह. तो दिल से चाहते थे कि उनको अपने पीर के कदमों में जगह मिल जाए, इसलिए फौरन अजमेर जाने के लिए तैयार हो गये।
लेकिन जब आपके अजमेर जाने की खबर शहर में फैली तो लोगों में बेचैनी -सी फैल गयी। चुनांचे बादशाह से लेकर अमीर व गरीब तक रोते हुए आपकी खिदमत में हाजिर हुए और सबने यह दरख्वास्त की कि आप दिल्ली छोडकर न जाएं।
हजरत ख्वाजा बुजुर्ग ने हजरत ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी रह. के साथ लोगों की यह अकीदत व मुहब्बत देखी तो आपने उनको अपने साथ ले जाने का इरादा बदल दिया और फरमाया कि, ’’बाबा, मैं तुमको ले जाकर इतने दिलों को दुख पहुंचाना नहीं चाहता, तुम यहीं रहो, मैं तुम्हें अल्लाह के सुपुर्द करता हूं और दिल्ली को तुम्हारे सुपुर्द।‘‘
ख्वाजा बुजुर्ग के इस इर्शाद और फैसले के बाद तमाम शहर में खुशी की लहर दौड गयी। लेकिन शेखुल इस्लाम को मालूम हुआ कि हजरत कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी को दिल्ली ही में रहने का हुक्म हो गया है तो नतीजा खुद उन्हेंीं के हक में बहुत बुरा निकला।
बादशाह की अकीदत
ख्वाजा कुतुबुद्दीन रह. ने दिल्ली वापस आकर पूरी तेजी के साथ दूसरों को हिदायत का रास्ता बताने, और तर्बियत का काम अंजाम देना शुरू किया।
उन्होंने ’’सरकार दरबार‘‘ से बाकायदा कोई ताल्लुक रहीं रखा और न सिर्फ इसको अपनी जिंदगी का उसूल बनाया, बल्कि अपने पूरे ’सिलसिले‘ का उसूल बना दिया कि हुकूमत व दौलत से बे-नियाज रह कर अपना काम करना है, लेकिन इस बे ताल्लुकी और बेनियाजी के बावजूद आम व खास और शाह व गदा सभी उनसे अकीदत रखते थे।
इस अकीदत का अन्दाजा इससे कीजिए कि सुल्तान शम्सुद्दीन हफ्ते में दो बार हाजिरी देता।
अल्लाह का इबादतगुजार बंदा
हजरत कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी रह. को नव-उम्री के जमाने ही से इबादत व रियाजत का शौक था, चुनांचे आपकी बंदगी का यह हाल था कि आप दिन-रात में नमाज की ढाई सौ रक्अतें पढते थे और हर रोज तीन हजार बार हुजूर रसूले मक्बूल की रूहे पाक पर दरूद भेजते थे।
अभी उनकी उम्र 50 साल या उससे कुछ ऊपर हुई थी कि अल्लाह से इश्क व मुहब्बत की वह आग, जिसको उन्होंने सब्र व जब्त के पिंजरे में हिदायत व तर्बियत की मस्लहत से कैद कर रखा था, भडक उठी, और उस इश्क की मस्ती में झूमने लगे।
एक बार शेख अली संजरी की खानकाह में कव्वाली हो रही थी कव्वाल ने शेर पढा-
कुश्तगाने खंजरे तस्लीमे रा, हर जमां गैब जाने दीगरस्त।
इस शेर का पढना था कि हजरत पर बज्द (मस्ती) छा गया।
वफात
खानकाह से मकान पर तश्रीफ लाये, वही मस्ती की हालत वाकी रही, उसी शेर की फरमाइश थी, फरमाइश पूरी की जाती थी। चार दिन रात इसी हाल में बीत गये, लेकिन जब नमाज का वक्त आता, होश आ जाता नमाज अदा करते, फिर उसी शेर की फरमाइश करते, शेर पढा जाता, वज्द तारी हो जाता, पांचवीं रात में आपका इंतिकाल हो गया-
इन्ना लिल्लाहि व इन्नाइलैहि राजिऊन.
यह वाकिआ 633 हि. का है।
इंतिकाल से पहले ईद के दिन ईदगाह से मकान की तरफ वापस आ रहे थे कि एक ऐसे मैदान से गुजर हुआ, जहां कोई कब्र या आबादी न थी, ख्वाजा वहां ठहर गये और देर तक खडे रहे। किसी खादिम ने अर्ज किया कि, ’’ईद का दिन है और लोग इंतिजार में हैं, आप यहां क्यों रूक गये?‘
इर्शाद हुआ, ’’मरा अजीं जमीं बूए दिल हा मी आमद‘‘ (मुझे यहां से दिलों की खुश्बू आती है)
दूसरे वक्त जमीन के मालिक को बुलाकर अपने खास जेब से उसको खरीद फरमाया और उसको अपने दफन के लिए तजवीज किया, वहीं दफन किये गये।
हजरत ख्वाजा के खलीफों की तायदाद (जिनके नाम ताज्किरे की किताबों में मिल जाते हैं) 9, 10 से कम न थी, लेकिन आपकी जानशीनी और हजरत ख्वाजा मुईनुद्दीन के कामों और मकसदों को हासिल करने का मुबारक हिस्सा हजरत ख्वाजा फरीदुद्दीन गंज शकर के पास आ गया।
आपकी तालीमात
1- हजरत ख्वाजा कतुबुद्दीन बख्तियार काकी रह. ने इर्शाद फरमाया कि, सुलूक वाले अपनी आदतों के बारे में लिखते हैं कि इंसान का कमाल इन चार चीजों पर टिका हुआ है-(क) कम खाये, (ख) कम सोये, (ग) कम बोले, (घ) और लोगों से मेल जोल कम रखे।
2-फिर फरमाया, ’’अगर दरवेश लोगों को दिखाने के लिए अच्छा कपडा पहने तो समझ लो कि वह दरवेश नहीं, बल्कि इस राह का लुटेरा है। और जो दरवेश नफ्स की ख्वाहिश के मुताबिक अच्छा खाना पेट भर कर खाये, तो यकीन जानों कि वह भी इस राह में झूठा है धोखेबाज है। और जो दरवेश कि दौलतमंदों के साथ उठे-बैठे, उसे दरवेश समझो, बल्कि इस राह से हटा हुआ है और जो दरवेश नफ्स की ख्वाहिश के मुताबिक खूब दिल खोलकर सोता है, यकीन जानों कि उसमें कोई खूबी नहीं।