(तीसरी किश्त)
संवत् 1885 ई. में ताजमहल के जीवन में एक और भूचाल आया, जिसने बेगम शाहजहां की सभी मनोकामनाओं को तहस-नहस कर रख दिया। नवाब सिद्दीक हसन खां पर ब्रिटिश सरकार ने पहले भी यह आरोप लगया था कि वे अपनी लेखनी के द्वारा अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर ब्रिटिश उपनिवेशवाद का विदेश विभाग ने तत्कालीन भारतीय वाइसराय की सरकार को सूचित किया कि तुर्की, मिस्र, जद्दा एवं लाहौर आदि स्थानों में नवाब सिद्दीक हसन खां द्वारा लिखित पुस्तकें मुफ्त में बांटी गई हैं, जिनमें ब्रिटिश साम्राज्य के विरूद्ध धार्मिक युद्ध का आव्हान किया गया है। इस सम्बंध में सिद्दीक हसन खां के विरूद्ध कडी कार्यवाही करने के निर्देश दिये गये थे। 27 अगस्त 1885 ई. को पोलिटिकल एजेंट सर लेविल ग्रेफिन मामले की गम्भीरता के संबंध में एक याददाश्त लेकर भोपाल आया और सर्वप्रथम शाहजहां बेगम को चेतावनी दी कि वह राजतंत्र पर स्वयं का नियंत्रण रखें अन्यथा वैकल्पिक व्यवस्था की जा सकती है। सिद्दीक हसन खां से भेंट में कहा कि तुम्हारे लिये सजा तजबीज की जायेगी दोनों अफसरों पर शाहजहां बेगम ने अपने पति का दृढता से पक्ष लिया, अंत में ब्रिटिश सरकार ने आदेश दिये कि ’’सिद्दीक हसन खां की पदवी वापस ली जाती है और प्रशासन में वे किसी प्रकार का हस्तक्षेप न करें, यदि भविष्य में ऐसा कुछ पाया गया तो उसके परिणाम सिद्दीक हसन खां के लिये हानिकारक होंगे‘‘।
यह एक भारी वज्रपात था, जिसे शाहजहां बेगम सहन नहीं कर सकीं, राज सिंहासन छोडने तक को उतारू थीं। दूसरे दिन ग्रेफिन ने भेंट में उन्होनंे कहा कि यह षडयंत्र है जो मेरे ही परिवारजनों द्वारा मुझे सत्ता से विमुख करने के लिये रचा है। आप जिसे चाहे राजगद्दी पर बिठा दें। मुझे और मेरे पति को इस शहर में एक साधारण नागरिक के रूप में रहने की अनुमति दी जावे। ग्रेफिन ने कहा कि ’’सिद्दीक हसन खां हमारा दुश्मन है, आप उससे कहां कि वो अपने वतन को चला जावे।‘‘ बेगम ने दृढता से किन्तु क्रोधित होकर उत्तर दिया-’’मैं अपने पति को नहीं छोड सकती हूं। चाहो तो रियासत ले लो। उनका अब जो भी हश्र होगा मैं उनके साथ हूं।‘‘
प्रारम्भ में सिद्दीक हसन खां को बेगम शाहजहां के साथ ताजमहल में रहने की अनुमति नहीं थी। उनको नूरमहल के अपने पारिवारिक महल में एकांत जीवन गुजारने के आदेश दिये गये थे किन्तु शाहजहां बेगम ने कलकत्ते से इंग्लैण्ड तक अनेक ज्ञापन भेजकर क्वीन विक्टोरिया को राजी करने में सफलता प्राप्त कर ली कि सिद्दीक हसन खां दिन में तो नूरमहल में रहा करें और रात्रि को बेगम के शासकीय आवास ताजमहल में रात गुजार लिया करें।
’’शाहजहां बेगम अपने पति से मिलने अक्सर नूरमहल आया-जाया करती थीं, इसके लिये उन्होंने ताजमहल से नूरमहल तक रेलगाडी की व्यवस्था की थी। गेट इंडिया पेनशला नामक भारतीय रेल्वे से एक विशेष कोच इस हेतु बनवाया गया था। इसी कारण उपरोक्त मार्ग को जो कि नूरमहल से ताजमहल की ओर जाती है, भोपालवासी ठेले वाली सडक के नाम से पुकारते हैंं‘‘
20 फरवरी 1890ई. को नवाब सिद्दीक हसन खां का देहांत ताजमहल में लम्बी बीमारी के बाद हो गया तो उनको उनके ही पारिवारिक कब्रिस्तान बडा बाग में पूर्ण सादगी के साथ दफन किया गया। वे उनकी वसीयत भी थी। एक दिन बेगम शाहजहां की शहर कोतवाल ने सूचित किया कि नवाब सिद्दीक हसन खां से ईष्र्या रखने वाले तत्वों ने नवाब साहब की कब्र को तोडने का प्रयास किया है। बेगम भडक उठीं तत्काल आदेश हुए कि सिद्दीक हसन खां की कब्र को शानदार मकबरे का रूप दिया जाये। यद्यपि नवाब सिद्दीक बेगम शाहजहां का सुन्दर मकवरा नष्ट हो चुका है। सिद्दीक हसन खां की मृत्यु के बाद बेगम अब इस बात पर लालायित थीं कि अंग्रेजों द्वारा नवाब साहब की पदवी जो वापिस ली गई थी उसे वापिस किया जावे अर्थात वो चाहती थीं कि भविष्य के इतिहास में सिद्दीक हसन खां को नवाब के नाम से पुकारा जाये।
इस हेतु बेगम 1890 ई. में कलकत्ता पहुचकर वाईसराय से भेंट कर अनुरोध किया कि उनके स्वर्गीय पति को सभी शासकीय अशासकीय कागजात में स्वर्गीय नवाब के नाम से सम्बोधित किया जाये। वाईसराय ने सर्वप्रथम बेगम के अनुरोध को अस्वीकार नहीं कर लेते में भोपाल वापिस नहीं जाऊंगी। अपने पति के प्रति अतीव प्रेम ही उनकी उपासना थी जो एक भारतीय नारी की शान है। सरकार ने बेगम के अनुरोध को स्वीकार कर लिया।
ताजमहल के रोमांचक इतिहास में एक और जश्न 1886 ई. में आयोजित हुआ था। जब रियासत भोपाल में रेल्वे की स्थापना के उपलक्ष्य में बेगम शाहजहां ने ताजमहल में गणमान्य ब्रिटिश अतिथियों का स्वागत, सत्कार किया था। यह समारोह ताजमहल तक ही सीमित नहीं था, पूरे शहर भोपाल को दुल्हन की तरह सजाया गया था।
ताजमहल में आने वाले गणमान्य अतिथियों में वाइसराय लार्ड लन्सडोन, वाइसराय लार्ड एल्जिन, वाइसराय लार्ड कर्जन, के अतिरिक्त तत्कालीन भारतीय सेनाध्यक्ष लार्ड राबर्स फेड्रिक, सर हेनरी डेली, सर मेममहन एवं सर सैयद अहमद खां के नाम उल्लेखनीय है।
फरवरी 1901 ई. में जब नवाब शाहजहां बेगम केंसर रोग से ग्रस्त हो गई तो उन्होंने रियासत की जनता के लिए एक बहुत ही भावुक संदेश ताजमहल से प्रसारित किया जिसमें कहा गया था-
’’मेरे समय में किसी भी व्यक्ति को यदि मेरे किसी हुक्म से कोई तकलीफ पहुंची हो तो कृपया वो मुझे माफ कर देवें-मेरा अन्त करीब है-मैंने भी उन सबको माफ कर दिया है।‘‘
’’इस संदेश को पढकर बेगम की एकमात्र पुत्री एवं रियासत की उत्तराधिकारी नवाब सुल्तान जहां बेगम बिचलित हो उठीं। बग्गीवान को आदेश दिये मुझे ताजमहल ले चलो-अपने साथ अपने छोटे पुत्र शाहजादा हमीदुल्ला खां को साथ लिया- ताजमहल में उस समय गंभीर शांति थी-राज परिवर्तन के नये संकेत सो बेगम शाहजहां के वफादार रिश्तेदारों में घबराहट थी।-सुल्तान जहां बेगम 17 वर्षों के अन्तराल बाद अपनी माता के अन्तिम दर्शन के लिये पहुची थीं, उस समय बेगम शाहजहां ताजमहल के अपने विशेष कक्ष में चित्त मुद्रा में सो रही थीं। पास में ही उमराव बुआ नामक सेविका बैठी थीं-सुल्तान जहां बेगम की नजर जैसे ही अपनी माता पर पडी, भावुक हो उठीं और अपनी माताश्री के पैरों को चूमा-बेगम की आंख खुल गई-धीरे किन्तु तीखे स्वर में पूछा कौन आया है-सेविका ने कोई जवाब नहीं दिया किन्तु दूसरी बार बेगम के पूछने पर कहा सुल्तान जहां बेगम साहिबा अपने साहबजादे शाहजादा हमीदुल्ला खान के साथ तशरीफ लाई हैं- इसी क्षण शान्त कमरे में एक आवाज सुनाई दी ’’मां मुझे माफ कर दो‘‘ किन्तु बेगम शाहजहां ने गर्जदार आवाज में संबोधित हुईं। चली जाओ-मेरी मौत के बाद आना।‘‘
ताजमहल भोपाल की इमारत आज भी खडी है, उजडी हुई दुल्हन की तरह। इस भवन के मुख्य द्वारा तक पहुंचने वाले अनेक विदेशी पर्यटक कुछ क्षण के लिये छिटक कर जरूर रह जाते हैं। राज्य पुरातत्व संचालनालय, पर्यटन विकास निगम सभी के मुख्यालय इसी भोपाल में है, जहां भारत का दूसरा ताजमहल अपनी बर्बादी की कहानी सुना रही है।
इस घटना के दो दिन बाद 16 जून 1901 ई. को दिन के 12 बजे के लगभग ताजमहल में भोपाल की सर्वाधिक संवेदनशील ओजस्वी, बेगम शाहजहां ने 62 वर्ष की आयु में प्रलोक सिधारा और अपने जीवन के अन्तिम क्षणों तक पूरे दबदबे के साथ सिंहासन की गरिमा को बनाये रखा। समाप्त – सैफ मलिक