ख्वाजा हैदर अली आतिश

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आतिश के बुजुर्गों का वतन बगदाद था। उनका जन्म 1767 में और देहांत 1846 में हुआ था। उनके पूर्वज रोजगार की तलाश में दिल्ली आये और यहीं बस गये। आतिश के पिता ख्वाजा अली बख्श, नवाब शुजाअउद्दौला के दौर में दिल्ली से फैज़ाबाद चले गये। वहीं आतिश का जन्म हुआ। कम उम्री में पिता का देहांत हो गया। इस कारण ज्यादा शिक्षा नहीं प्राप्त नहीं कर सके। प्रारंभ से ही उनका शेर व शायरी की ओर रूझान था। लखनऊ आकर मसहफी के शागिर्द हो गये। जल्द ही उनकी शायरी ने प्रसिद्घि प्राप्त कर ली और एक प्रमाणित गुरू माने जाने लगे। आतिश की तबियत में स्वच्छंदता, बेवफाई और संतोषप्रियता थी। उनकी खुद्दारी और फकीराना तरीका की झलकियां उनकी रचनाओं में मिलती हैं।
आतिश नासेह के समकालिक थे, दोनों एक दूसरे के प्रतिद्वंदी भी थे। दोनों उस्तादों के बहुत से शार्गिद थे। दोनों गिरोहों में अक्सर नोक-झोंक और प्रतिद्वन्द्विता होती थी। इसके बावजूद आतिश ,नासेह की बहुत इज्जत करते थे। उने बारे में यह बात मशहूर है कि नासेह के देहांत के बाद उन्होंने भी शैर कहना छोड़ दिया था।
नासेह और आतिश लखनऊ स्कूल के प्रतिनिधि शायर हैं। लखनऊ के शायरों ने $जुबान को बनाने और संवारने में विशेष रूप से उल्लेखनीय भूमिका निभाई है। अत: आतिश की रचनाओं में विशेषकर $जुबान की सफाई और मुहावरों का उपयोग कलात्मक रूप से किया गया है। आतिश के शैरों में दिनचर्या और आम बोलचाल का अंदा$ज भी पाया जाता है। जिससे कलाम में एक विशेष आनंद पैदा हो गया है। संक्षित वर्णन, रंगीनी व शोखी उनकी रचनाओं में अलग पहचान रखती हैं। उनकी शायरी में तसव्वुफ और पहचान के विषय भी मिलते हैं। इनके वर्णन में एक मस्ती नजर आती है। आतिश की गिनती उर्दू के लोकप्रिय शायरों में होता है।
आतिश की रचनाएं
सुन तो सही जहां में है तेरा फसाना1 क्या।
कहती है तुझ को $खल्$के $खुदा2 गायबाना3 क्या॥
क्या क्या उलझता है तिरी $जुल्फों के तार से।
बखिया तलब4 है सीना-ए-सद चाक5 खाना क्या॥
$जेरे $जमीं5 से आता है जो गुले सो$ज बकफ6।
कारून8 ने रास्ते में लुटाया ख$जाना क्या॥
उड़ता है शौ$के राहत मं$िजल9 से अस्पे उम्र10।
महमी$ज11 कहते हैं गये किसे ता$िजयाना12 क्या॥
$जीना13 सबा14 का ढूंढती है अपनी मुश्ते खा$क15।
बामे16 बुलन्द यार का है आस्ताना17 क्या॥
चारों तरफ से सूरते जानां है जवा गर।
दिल साफ हो तो तिरा तो है आईना खाना क्या॥
सैयाद18 असीर19 दामे रग गुल है अन्दलीब20।
दिखला रहा है छुप के उसे दाम व दाना क्या॥
तिब्लो अलम21 न पास है अपने न मुल्क व माल।
हम से खिलाफ हो के करेगा $जमाना क्या॥
शब्दार्थ :- 1- किस्सा कहानी, 2-ईश्वर की रचना, मनुष्य, 3- परोक्ष, 4-सिलाई चाहती, 5- सैकड़ों फटे हुए सीने, 6- $जमीन के नीचे, 7- हथेली में, 8- अरब का धनाढ्ïय व्यक्ति, 9- मं$िजलों की राहत, 10-उम्र का घोड़ा, 11-सवार के जूते में लगा लोहे का कांटा, 12- कोड़ा, चाबुक, 13- सीढ़ी, 14-हवा, 15- मु_ïी भर मिट्टïी, 16-छत, 17- चौखट, 18-शिकारी, 19-अधीन, 20-बुलबुल, 21- ढोल व झण्डा।
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ये आर$जू थी तुझे गुल के रू-ब-रू1 करते।
हम और बुलबुले-बेताब गुफ्तगू करते॥
पयाम वर न मयस्सर2 हुआ तो खूब हुआ।
$जबाने $गैर से क्या शर3 ही आर$जू करते॥
मिरी तरह से मह-ओ-महर4 भी हैं आवारा।
किसी हबीब की ये भी है जुस्तजू करते॥
जो देखते तिरी $जंजीरे-$जुल्फ का आलम।
असीर5 होने के आज़ाद आर$जू करते॥
न पूछ आलम-ए- बरगश्ता6 ताले ए- अतिश।
बरसती आग में जो बारां7 की आर$जू करते॥
शब्दार्थ :- 1-आमने-सामने, 2- उसे पैगाम नहीं मिलना, 3- ग़ैर की $जबान से शरारत की आर$जू, 4- चांद और सूरज, 5- $कैदी, 6- त$कदीर बदलने का आलम, 7- बारिश।