श्री रामचरित मानस में राजनीति दर्शन

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मेरे प्रिय पाठक,
असल में राजतंत्र हो चाहे लोकतंत्र हो, शासन सुदृढ़ और सर्वहितकारी होना चाहिए। क्योंकि काम क्रोध, लोभ आदि की जो वृत्तियां ऐसी हैं जो मनुष्य को उच्श्रृंखल बनाकर अराजकता की ओर ले जाती हैं यदि शासन का भय न हो तो मनुष्य की वासना उसे कहां ले जाकर पटक देगी कुछ कहा नहीं जा सकता।
इसलिये हमारे आचार्यों ने मनुष्य जीवन के वासनानुसारी और अनुशासनानुसारी ये दो भेद किये हैं फिर कहा कि वासनानुसारी जीवन का अर्थ पतन अवश्यमभावी होती है किन्तु जो अनुशासनानुसारी जीवन होता है उसमें एक सुव्यवस्था होती है। हमारे पूर्व मीमानसज्ञोंं ने तो आज्ञा पालन को ही धर्म बताते हुये यह निर्णय किया है कि आज्ञा पालन में धर्म निहित रहता है इसलिये मनुष्य को अपने बड़े-बूढ़ों की आज्ञा अनुसार ही काम करना चाहिए श्रीराम ऐसा ही करते थे।
रामायणों में एक बात और कही गई है उस पर ध्यान दें। दशरथ जी ने जैसी सभा बुलाई है और उसमें श्री राम को युवराज बताने के लिये जिस प्रकार विचार विमर्श हुआ है उससे पता चलता है कि एक शासक को किस प्रकार काम करना चाहिए। केवल शासक की हैसियत से आदेश जारी करने देने मात्र से कोई धर्मानुष्ठान सम्पन्न नहीं होता है उसके लिये पहले प्रजा के प्रतिनिधियों से परामर्श कर लेना चाहिए और फिर उनकी रुचि जागृत करके धर्मानुष्ठान सम्पन्न करने का प्रयास करना चाहिए यही सच्चा राजतंत्र और यही सच्चा लोकतंत्र है। रामचरित मानस में वर्णन किया गया है कि महाराज दशरथ ने पहले गुरूदेव से परामर्श किया वशिष्ठ जी से, जो तत्कालीन समय से एक प्रकार के प्रधानमंत्री थे से अनुमति लेकर मंत्रीमण्डल तथा सभासदों और जनप्रतिनिधियों की सभा आहूत की और उन्होंने श्रीराम को युवराज बनाने का प्रस्ताव विचार हेतु प्रस्तुत किया।
मुदित महिपति मन्दिर आये! सेवक सचिव सुमन्त बुलाए।1
कहि जय जीव सीस तिन्ह नाए! भूप सुमंगल वचन सुनाए।। (मानस)
जो पांचहि मत लागे मीका! करहु हिये रामहिं टीका।।
यहां राजा की राजनीति में निपुणता दिखाई है। राजनीति है कि जो मनोरथ हो उसे अपने हृदय में स्वयं विचारें जब विचार में निश्चय ठहरे तब मुख्यमंत्री से विचार करें उनकी भी सहमति हो तब मंत्रीमण्डल से भी पूछे। जब सबका सम्मत हो तब सभा में प्रकाशित करें। यहां राजा तीन बातें कर चुके हैं। पहले राज्य ने हृदय में विचारा फिर गुरूदेव को सुनाया तथा बाद में रामराज्य अभिषेक प्रस्ताव विचार हेतु सभा में प्रस्तुत किया। वाल्मीकि में भी तीन बार विचार करना कहा है (सर्ग-2 व 3) सर्ग- 4 में मंत्रियों के साथ में पुन: विचार किया है यथा ‘गनेषयष नृपो भूय: पौरेष सह मन्निभि:Ó मन्त्रमित्वा ततश्रृके निश्चयज्ञा स निश्चयम्।। (वाल्मीकि)
वाल्मीकि रामायण में महाराज दशरथ ने सदन में प्रस्ताव प्रस्तुत करते हुए कहा कि मैंने जो विचार आपके सामने रखा है वह यदि विचारपूर्ण हो और इसमें सभी का हित हो तो आप उसे स्वीकार करें।
यदि इन दोनों बातों में से कोई न हो अथवा एक हो एक न हो तो आप मुझे बतावें कि मैं क्या करूं। रामचंद्र को मैं युवराज बनाना चाहता हूँ यह मुझे प्रिय है, पर अपने और राज्य के हित की बात आप लोग सोचें क्योंकि मेरा विचार एक पक्ष का है मध्यस्थ का विचार दूसरा है वह उत्तर और प्रतिउत्तर में मजा होने के कारण अधिक उज्जवल होता है। यथा यदिदं में अनुरूपार्थ मयासाधु सुमन्तितम। भवन्तों मेंअनुमन्यन्तां कथं विमर्दाम्यधिकोदया।। (2-15-16)
गुरू की आज्ञा होने पर भी मंत्रियों आदि के सामने प्रस्ताव रखने से सिद्ध होता है कि उस समय जनपद की सम्मति का कितना गौरव था। राजा का प्रस्ताव सुनकर मंत्रीमण्डल ने हर्ष ध्वनि से प्रस्ताव पारित करते हुए निवेदन कियसा।
विनती सचिव करहिं कर जोरी। जिहऊ जगतपति बरसि करौरी।।
जग मंगल भल काज विचार। बेगिअ नाथ, न लाइए बारा।। (मानस)
दशरथ जी की बात सुनते ही सारी सभा में एक सुर से हर्ष ध्वनि के साथ उसका अनुमोदन किया और कहा कि महाराज हम लोग भी ऐसा ही चाहते हैं।
स रामं युवराजानममिभषिजस्व पार्थिषम (2,29)
यह सुनकर राजा दशरथ को भीतर ही भीतर प्रसन्नता तो बहुत हुई परन्तु ये उसको छिपाते हुए कहने लगे कि आप लोगों ने जो बगैर सोचे समझे मेरे विचार का इतनी जल्दी समर्थन कर दिया इससे मुझे कुछ संसय हो रहा है। कृपया यह तो बताईये कि मैं धर्म पूर्वक राज्य कर रहा हूँ आप लोग मेरे होते हुए रामचंद्र को युवराज क्यों बनाना चाहते हैं।
कथंतु मयि धर्मेण पृथ्वी मनुशासति।
भवन्तो द्रष्टुमिच्छन्ति युवराजं ममात्मजयम।। 2-25
इस प्रश्र के उत्तर में सभा के प्रतिनिधि वक्ताओं ने कहा कि हम लोग श्रीरामचंद्र को इसलिए युवराज बनाना चाहते हैं कि उनमें अनन्त सारे सद्गुण हैं। श्रीराम जी में लोकोत्तर गुण हैं जिसके कारण हम सभी ने तुरन्त अपनी स्वीकृति दे दी।