(तीसरी किश्त)
आप ये विचार जरूर कर सकते हैं कि परदोष दर्शन से अपनी क्या हानि तथा अहित होता है, तो कहना होगा कि परदोष दर्शन से तो दोष करने की अपेक्षा कहीं अधिक दोष है। कारण की दोष युक्ति प्रवृत्ति करने पर तो अनेक प्रकार की कठिनाईयां सामने आती हैं अर्थात् अनेक प्रकार के भय उत्पन्न होते हैं किन्तु परदोष दर्शन में न कोई कठिनाई आती और न कोई भय उत्पन्न होता है अपितु मिथ्या अभिमान उत्पन्न हो जाता है जो सभी दोषों का मूल है।
यह सम्भव है कि किये हुए दोष का प्रायश्चित तथा प्रार्थना आदि उपचारों से निराकरण करके साधक निर्दोष हो सके, पर परदोष दर्शन रूपी दोष का निराकरण तो उस समय तक सम्भव नहीं है जब तक कि सदा के लिये परदोष दर्शन का त्याग न कर दिया जाये और जिसको दोषी मान लिया था उससे अपने को क्षमा न करा लिया जाये।
विष्णु सहत्रनाम में भगवान विष्णु को नेता कहा गया है। 1. योगविंदानेता, 2. न्यायोनेता, जो योग को धारण कर चले इसलिए नेता है व संसार चक्र को चलाने के कारण नेता कहा गया है। न्याय माने ईश्वर भी होता है आप जानते हैं कि माने हुए अहमं के अनुसार मानवता समाज के अधिकार का समूह है और वास्तविक नित्य सम्बंध के अनुसार मानवता उस अनन्त की प्रीति है। इस मानवता का विचार जीवन में तभी हो सकेगा जब हम अपने को निर्दोष तथा निरवैर बना ले। निर्दोष होने का वास्तविक उपाय है अपने विवेक से अपने पर न्याय करना, किसी को दण्ड देना, संघर्ष करना, किसी का विनाश करना, किसी से द्वेष या घृणा करना यह सब न्याय का अर्थ नहीं है। न्याय का अर्थ है जिसके प्रति न्याय किया जाये उसके दोष का यर्थाथ दर्शन करा देना और किसी उपाय विशेष से उस दोष निवृत्त करा देना अर्थात् उसे निर्दोष बना देना है।
न्याय करने के लिए यह अनिवार्य हो जाता है कि न्यायकर्ता दोष और दोष के कारण को भलीभांति ज्यों का त्यों जान ले तभी सही न्याय हो सकेगा। अब विचार यह करना है कि हम अपने दोष तथा उसके कारण को जितना स्पष्ट निज विवेक से जानते हैं उतना कोई अन्य हमारे सम्बंध में जान ही नहीं सकता। हम अपने प्रति सही न्याय जितना हम कर सकते हैं उतना कोई अन्य कदापि नहीं कर सकता। प्राकृतिक विधान पर यदि हम विचार करें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि जगत प्रकाशक ने जो हमें अलौकिक विवेक का प्रकाश दिया है वह इसलिए दिया है कि हम अपने दोष को जानकर न्याय पूर्वक अपने को निर्दोष बनायें। मानव को जो स्वाधीनता दी है वो इस कारण दी है कि वह मिले हुए विवेक का आदर करें यह नियम है कि मिली हुई स्वाधीनता तभी सुरक्षित रह सकती है जब उसका सदुपयोग किया जाये।
अपने प्रति न्याय वही सह सकेगा जिसका जीवन व्रत, तप, प्रायश्चित तथा प्रार्थना से युक्त हो अपने लक्ष्य को प्राप्त करने की दृढ़ प्रतिज्ञा का नाम ही व्रत है उस व्रत को पूरा करने में जो कठिनाईयां आये उन्हें सहर्ष स्वीकार कर लेना ही तप है। की हुई भूल को न दुहराना ही प्रायश्चित है और यह तभी सम्भव होगा जब भूल से भोगा हुआ हमारा सुख-दुख बन जाये। अपनी निर्बलताओं एवं अभावों को मिटाने के लिए परम व्याकुलता की जागृति ही वास्तव में प्रार्थना है।
प्राकृतिक नियमानुसार हमें जो कुछ प्राप्त है वह विश्व की उदारता ही है। जैसे सूर्य ही उदारता से ही नेत्र देखता है, आकाश की उदारता से श्रवण सुनता है, जल की उदारता से ही रसना को रस मिलता है, वृक्ष और पशुओं की उदारता से ही बहुत सी जीवन की उपयोगी वस्तुएं मिलती हैं। इससे स्पष्ट हो जाता है कि जब हमारा जीवन किसी की उदारता पर ही निर्भर है तो हमारे द्वारा भी समाज के प्रति उदारता का ही व्यवहार होना चाहिए पर आज यह बात हमारे जीवन से चरितार्थ होती है अथवा नहीं यह अपने विवेक से देखें। यदि होती है तो हममें मानवता है और यदि नहीं होती तो अमानवता है।
श्रीराम में वे सभी गुण विद्यमान थे जो नेता में होना चाहिए इसलिए महाराज दशरथ के धर्म पूर्वक राज्य करने पर जनता व सभासदों ने निर्भिकता से अपना मत श्रीराम को देकर नेता निर्वाचित किया था। श्रीराम ने आज की तरह कोई प्रचार नहीं किया था। आजकल तो जब चुनाव का समय आता है तब प्रत्याशी लोग समाज के मतदाताओं से यह कहते हैं कि मुझे सेवा करने का मौका दीजिए अर्थात् पहले मुझे विधायक, सांसद अथवा सदस्य अपना मत देकर बनावें तब सेवा करेंगे अर्थात् पहले स्वार्थ पूर्ति हो फिर सेवा करेंगे। वे यह जान लें कि व्यक्ति के स्वार्थी होने पर समाज में स्वार्थभाव, व्यक्ति के निर्दोष होने से समाज में निर्दोषता आ जाती है। अतएव विवेक पूर्वक नि:स्वार्थ भाव से सेवा करने के लिए पद की आवश्यकता नहीं है सेवक का धर्म कठोर है।
आगम-निगम प्रसिद्ध पुराना। सेवा धर्म कठिन जग जाना।।
स्वामी धर्म स्वारथहिं विरोधू। वैर अन्य प्रेमहि न प्रबोधू।। (मानस)
सेवा धर्मा: परम गहनो योगिनामप्य गम्य:।