हिन्दुस्तान की जंगे आजादी की कहानी शुरू होती है सन्ï 1757 में नवाब सिराजुद्दौला की अंग्रेजों के खिलाफ जंग से। उसके बाद कई छोटी-छोटी बगावतें होती रही हैं। सन्ï 1857 में पहली जंगे आजादी बड़े पैमाने पर लड़ी गयी। जिसमें हिन्दुस्तान की बहादुर ख़्वातीन ने मर्दों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर अंग्रेज़ों का मुकाबला किया।
1857 की जंगे आजादी में जहां बहादुर शाह जफर, नाना साहब पेशवा, तात्या टोपे और कई दूसरे लोगों का $िजक्र होता है वहीं ख़्ाासतौर से झांसी की रानी लक्ष्मी बाई की बहादुरी के चर्चे आज भी लोगों की जुबान पर रहते हैं। उनकी बहादुरी को याद करते हुए लोग कहते हैं ‘खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी।
रानी लक्ष्मी बाई की पैदाइश 16 नवम्बर 1835 को बनारस में मोरोपन्त ताम्बे के यहां हुई। उनका बचपन बिठूर में बीता बिठूर के दरबार में वो सबकी लाडली थीं। वहां उन्होंने तीरंदाजी, घुड़सवारी, तैराकी और हथियार चलाना सीखा। उनकी शादी झांसी के राजा गंगाधर राव से हुई और इस तरह वो झांसी की रानी कहलाईं। 1857 में जब अंग्रेजों के $िखलाफ़ मुल्क़ में बगावत की आवाज उठी तो उसमें झांसी की रानी सबसे आगे थीं और उन्होंने बहुत बहादुरी से अंग्रेजों का मुक़ाबला भी किया। झांसी की रानी का मुक़ाबला करने के लिए जनरल ह्यïूरोज की कय़ादत में एक बहुत बड़ी फौज ने झांसी को घेर लिया। रानी का कहना था बुजदिली की मौत से अच्छा है बहादुरों की तरह मैदाने जंग में शहीद हो जाना। जंगे आजादी की लड़ाई लड़ते हुए 23 साल की उम्र में उन्होंने जांमे शहादत पिया।
झांसी की रानी के बाद जो नाम1857 की जंगे आजादी में सामने आया वो था लखनऊ की बेगम हजरत महल का। बेगम हजरत महल अवध के नवाब वाजिद अली शाह की बेगम थीं। सन्ï 1857 की जंगे आजादी में उन्होंने लखनऊ में बगावत का झण्डा थामा। उनकी कयादत में लड़ी गई जंग में 5 जुलाई 1857 को लखनऊ से अंग्रेजों को निकाल बाहर किया गया था। इसके बाद अंग्रेजों ने इक_ïा होकर फिर लखनऊ पर हमला किया। 15 फरवरी 1858 को फौज की कयादत करने के लिए खुद बेगम हजरत महल जंग के मैदान में उतर आईं। लम्बी जंग के बाद लखनऊ पर अंग्रेजों का कब्जा हो गया। और बेगम हजरत महल नेपाल की तरफ चली गईं। नेपाल में ही 1859 में उनका इन्तकाल हो गया।
बेगम जीनत महल दिल्ली के आखरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफर की बेगम थीं। 1857 की जंगे आजादी में बेगम जीनत महल की हौसला अफज़ाई से ही बहादुर शाह जफर ने इसकी कयादत संभाली थी। जब मुजाहेदीन जंगे आजादी उनके पास $कयादत की दरख़्वास्त लेकर पहुंचे तो बहादुर शाह जफर ने कयादत करने से इन्कार कर दिया। उस वक़्त बेगम जीनत महल ने बादशाह को सलाह दी ये वक़्त गजलें कहकर दिल बहलाने का नहीं हैं। नाना साहब का पैगाम लेकर मुजाहेदीने आजादी आये हैं और सारे हिन्दुस्तान की निगाहें दिल्ली और आप पर लगी हैं। अगर मुगलिया खून हिन्द को गुलाम होने देगा तो तारीख उसे कभी मुआफ नहीं करेगी। जीनत महल की हौसला अफज़ाई से बहादुरशाह जफऱ ने जंगे आजादी की कयादत संभाली। जंगे आजादी में हुई हार के बाद बहादुर शाह जफर को गिरफ़्तार कर रंगून जेल भिजवा दिया गया। बेगम जीनत महल को भी अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर लिया और कै़द खाने में ही उनका इन्तकाल हो गया।
रानी लक्ष्मी बाई और बेगम हजरत महल की तरह 1857 की जंगे आजादी में राम गढ़ की रानी अवंती बाई ने हथियार उठाकर अंग्रेजों के दांत खट्टïे किये उन्होंने अंग्रेजों को मण्डला $िजले से निकाल बाहर किया। अवंतीबाई की पैदाइश सिवनी $िजले के गांव मनकेरी में हुई। उनके वालिद जुझार सिंह 187 गांव के मालगुजार थे। उनकी शादी रामगढ़ के राजा विक्रमजीत सिंह के साथ हुई। कुछ दिनों बाद ही उनके शौहर की तबियत खराब हो गई और वो बीमार रहने लगे। 1857 में जब अंग्रेजों के खि़लाफ जंगे आजादी का बिगुल बजा तो रानी अवंतीबाई भी इस जंग में कूद पड़ीं और अपनी फौज लेकर मण्डला पर धाबा बोल दिया। और उसने मण्डला पर अपना कब्जा जमा लिया। बाद में अंग्रेजों ने फौज इक_ïा कर रामगढ़ के किले को घेर लिया। काफी मुक़ाबला करने के बाद किले की रसद खतम हो जाने की वजह से रानी किले से निकलकर रामगढ़ के जंगलों में चली गईं। अंग्रेजों ने उनके पास खबर भेजी की आप हथियार डाल दें, लेकिन रानी ने हथियार नहीं डाले। और अंग्रेजों का मुकाबला करते हुए। शहीद हो गईं।
1857 की जंगे आजादी की नाकामयाबी के बाद एक लम्बा अर्सा यूं ही गुजर गया। उसके बाद हिन्दुस्तान में गांधी जी के आने के बाद हिन्दुस्तान की आजादी के लिए तहरीक शुरू की गई। यह तहरीक बिना हथियारों के अंग्रेजों को मुल्क़ से बाहर निकालने और देश को आजाद कराने के लिये थी।
गांधी जी की इस तहरीक में जहां पर हिन्दुस्तान के हर कौम और समाज के लोगों ने बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया वहीं ख़्वातीन भी इसमें बराबरी से शरीक़ रहीं। गांधी जी की बीवी कस्तूरबा गांधी जिन्हें हम बा के नाम से याद करते हैं का अहम्ï रोल जंगे आजादी में रहा। बा की जब गांधी जी से शादी हुई तब उनकी उम्र 13 साल की थीं। जब गांधी जी साउथ अफ्रीका गये तो बा भी उनके साथ थीं। वहां चलायी गयी तहरीकों में उन्होंने गांधी जी की हौसला अफजाई की। हिन्दुस्तान लौटने के बाद जंगे आजादी के लिये शुरू की गई तहरीक में कस्तूरबा गांधी ने गांधी जी के साथ कंधे से कंधा मिलाकर शिरकत की और कई बार जेल भी गईं। 22 फरवरी 1944 को जंगे आजादी की लड़ाई लड़ते-लड़ते उन्होंने अपनी $िजन्दगी की आखरी सांस ली।
कस्तूरबा गांधी के अलावा मेडम भीकाजी कामा, भग्रि निवेदिता, एनिबेसेंट और सरोजनी नायडु समेत कई ख़्वातीन ने जंगे आजादी की लड़ाई में अपनी भरपूर ताकत से शिरक़त की। हमारे झंडे की बुनियाद रखने में मेडम भीकाजी कामा, भग्रि निवेदिता और ऐनीबेसेंट का खासा योगदान है।
सन्ï 1907 में जर्मनी में एक कांफ्रेंस हुई जिसमें हिस्सा लेने के लिए मेडम भीकाजी कामा भी गईं। वहां उन्होंने स्टेज पर अपनी तकरीर के दौरान एक झण्डा निकालकर फहराया और कहा कि हमारे हिन्दुस्तान की आजादी का झण्डा है।
भग्रि निवेदिता आयरलैंड की रहने वाली थीं जो बाद में स्वामीविवेकानन्द की शार्गिद बनकर हिन्दुस्तान आईं। और यहां आकर जंगे आजादी में कूद पड़ीं। इनके दिल में 1906 में ही हिन्दुस्तान के कौमी झण्डे का ख्याल आने लगा था। क्योंकि इससे पहले कांग्रेस के सम्मेलनों में कोई झण्डा नहीं फहराया जाता था। भग्रि निवेदिता ने उस वक़्त केसरिया रंग का झण्डा फहराया था। हालांकि यह झण्डा चलन में नहीं आ पाया। लेकिन हिन्दुस्तानियों के जहन में अपना एक झण्डा बनाने का ख्य़ाल उठने लगा था।
बाद में जब जंगे आजादी जोर पकडऩे लगी तब एनीबेसेंट ने मद्रास में 1916 में होमरूल लीग की बुनियाद रखी। होमरूल लीग के साथ ही साथ उन्हें अपने क़ौमी झण्डे के ख्याल को अमली जामा पहनाया।
इस तरह से हम यह कह सकते हैं कि सन्ï 1857 से लेकर 1947 तक हिन्दुस्तान की जंगे आजादी के लिये चलायी गयी तमाम तहरीकों में ख्वातीन ने बढ़चढ़ कर हिस्सा लिया। और तारी$ख में अपना नाम सुनहरे लफ्जों में दर्ज कराया। – रईसा मलिक