दिल्ली-मेरठ क्षेत्र के आप्लावित होने के केवल एक मास के भीतर ही नागपुर और सागर-नर्मदा क्षेत्र राज्यविप्लव की उत्ताल तरंगों से आलोडि़त होने लगा था। यहां जो प्रारंभिक घटनाएं घटित हुईं वे पर्याप्त प्रख्यात हैं। शनिवार, 19 मई, 1857 को तीसरी घुड़सवार सेना के सिपाहियों ने नये कारतूस काम में लाने से मना कर यिा। तुरंत ही उन पर सैनिक न्यायालय में विचार किया गया और उन्हें दस वर्ष के कारावास का दंड दे दिया गया। सैनिकों की अवरूद्घ क्रोधाग्रि रविवार, 10 मई को अग्रिशिखाओं के रूप में प्रज्वलित हो गई जबकि मेरठ में नियुक्त तीन भारतीय रेजिमेंटों ने अपने अफसरों को गोली से उड़ा दिया, कारागृह को तोड़ डाला, अपने साथियों को मुक्त कर दिया और लगभग तीस मील दूर स्थित दिल्ली के मार्ग पर कूच कर दिया और लगभग तीस मील दूर स्थित दिल्ली के मार्ग पर कूच कर दिया। मार्ग में अन्य व्यक्ति, सिपाही, सेवामुक्त सैनिक और नागरिक भी उनके साथ हो लिए। वे शाहीमहल की ओर गए और वहां वृद्घ बहादुरशाह को भारत सम्राट घोषित कर दिया। दिल्ली की सैनिक टुकडिय़ों ने मेरठ के सिपाहियों के मार्ग का अनुसरण किया, अपने अफसरों को मार डाला और दिल्ली में स्थित विदेशियों का $कत्लेआम करने में सम्मिलित हो गये। उन्होंने किला सबाना और शस्त्रास्त्र पर अधिकार कर लिया विद्रोह के चौबीस घंटों के भीतर दिल्ली पूर्णत: उनके अधिकार में हो गई और बहादुरशाह ने प्रत्येक वर्ग के भारतवासी को विदेशी दासता से भारत को स्वतंत्र करने के आंदोलन में भाग लेने के लिए उद्ïबोधित करते हुए फरमान जारी कर दिया।
यातायात के अपर्याप्त साधन होते हुए भी मेरठ और दिल्ली की घटनाओं के सनसनीपूर्ण समाचार नागपुर और सागर-नर्मदा क्षेत्रों में मई मास के मध्य तक पहुंच गए। और जून मास के प्रारंभ होते ही घटनाएं तेजी से घटित होने लगीं। इसी बीच सतलज से गंगा तक का समस्त प्रदेश प्रज्वलित हो उठा था। पहले लखनऊ में, फिर नानासाहेब के स्थान कानपुर में और फिर झांसी में, सभी जगह घटनाक्रम का रूप एक-सा था। सैनिक टुकडिय़ां यूरोपियन अफसरों के विरूद्घ भड़क उठीं, जिन्हें या तो मौत के घाट उतार दिया गया या उनके सुरक्षा स्थानों में ही उन्हें बंदी बना दिया गया।
झांसी के विद्रोह का समाचार सागर में 8 जून को पहुंचा और उसके साथ ही यह खबर भी पहुंची कि बानपुर के राजा ने ललितपुर में एक बड़ी सेना इक_ïी कर ली है और शाहगढ़ का राजा जिसका अधिकार क्षेत्र दमोह और सागर जिलों के उत्तर तथा पश्चिम में था, अंगरेजों के विरूद्घ युद्घ छेडऩे के आशय से सेना इक_ïी कर रहा है। कुछ दिनों के भीतर ही यह दिखाई देने लगा कि नर्मदा की उत्तर का समस्त क्षेत्र युद्घोद्यत हो गया है। बानपुर के राजा ने ललितपुर पर अधिकार कर लिया और सभी यूरोपियनों को बंदी बना लिया। ललितपुर की सहायता के लिए मेजर गौसेन के अधीन जो सेना भेजी गई वह मालथौन, के आगे न बढ़ सकीं क्योंकि उत्तर की सभी घाटियां राजा की सेना की बड़ी-बड़ी टुकडिय़ों के अधिकार में थीं। 25 जून को मेजर के सिपाहियों ने खुली अवज्ञा प्रारंभ कर दी। इस बीच बानपुर के सिपाहियसों ने खुली अवज्ञा प्रारंभ कर दी। इस बीच बानपुर के राजा द्वारा बंदी बनाए गए अंगरेज अफसरों और महिलाओं को सागर जाने की अनुमति दे दी गई, परंतु मार्ग में उन्हें शाहगढ़ के राजा द्वारा पकड़कर बंदी बना लिया गया। बंदियों को तीन मास तक रखने के पश्चात्ï उन्हें सागर जाने दिया गया, जहां वे अत्यंत क्षीण दशा में पहुंच सके। तथापि यह उल्लेखनीय है कि इन स्थानों में से किसी पर भी अंग्रेजों की अविवेकपूर्ण हत्या नहीं की गई।
इस बीच सागर के सेनानायक ब्रिगेडियर सेज ने नगर के पुराने किले की किलेबंदी तथा उसकी सुरक्षा करने का निश्चय किया। उसने अनुभव किया कि यह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि विद्रोहियों के हाथ में न पड़ें क्योंकि उसमें शस्त्रागार के विशाल संग्रह होने के अतिरिक्त भी वहीं एकमात्र स्थान था। जहां यूरोपियन तथा ईसाई निवासियों को सशस्त्र अनुभवी होने की दशा में सुरक्षा मिल सकती थी। अशांति आक्रमण का प्रारंभ 1 जुलाई के सबेरे हुआ जब सागर में स्थित घुड़सवार सेना ने विद्रोह कर दिया। साथ ही 42वां पैदल सेना के सूबेदार शेख रम$जान ने इस्लाम का झंडा ऊंचा किया और नगाड़े की चोट पर उसका साथ देने के लिए सबको आमंत्रित किया। विद्रोहियों में से कुछ ने दमोह की ओर कूच कर दिया सागर में रह गए। उनने मालधौन में तैनात सेना पहुंचाई तथा शेख रम$जान को अपना सेनापति घोषित कर सेना का वह भाग जो दमोह की ओर गया था वहां 4 जुलाई को पहुंच गया और उसने देखा कि वहां के सभी अफसर महिला के साथ जो उनके साघ्थ थीं, नरसिंहपुर भाग गये। होता है कि सन्ï 1842 में अंगरेजों के विरूद्घ विद्रोह करने वाले बुुंदेला राजपूत, गौंड और लोधियों के पुराने सत्ताधारीवर्ग तथा अफसरों के विरूद्घ उठ खड़े होने वाले देशी सिपाहियों के बीच बहुत निकट संपर्क तथा पारस्परिक विश्वास विद्यमान था। परिणाम यह हुआ कि सागर में विद्रोह प्रारंभ होने के दो मास के भीतर यह समस्त क्षेत्र स्वातंत्र्यसंग्राम के सैनिकों के हाथों में आ गया।
इस बीच जबलपुर में 15 तारीख को जब एक एज्जुटेंट अपनी रेजीमेंट के गार्ड का निरीक्षण कर रहा था, एक सिपाही ने, जो संभवत: झांसी से आने वाले समाचारों को सुनकर असंतुलित और उत्तेजित हो गया था, उस एज्जुटेंट पर अपनी बंदूक से आक्रमण कर दिया और इस आक्रमण से उसके खरोंचमात्र आई थी। सिपाही पर काबू पा लिया गया, उसे गार्डरूम में बंद कर दिया गया। बाद में चिकित्सकों द्वारा जांच करने पर यह सिपाही पागल ज्ञात हुआ और बनारस के पागलखाने में भेज दिया गया। परंतु संभवत: कर्नल नील के अत्याचारों से उत्पन्न उन्माद की मनोवृत्ति से प्रेरित होकर बनारस में उस सिपाही को सही मस्तिष्क का घोषित कर फांसी दे दी गई। परंतु इस घटना ने ही जबलपुर के यूरोपियनों में अत्यधिक भय की स्थिति उत्पन्न कर दी।
दमोह $िजले में परिस्थिति बिल्कुल भिन्न थी। यह जिला तथा सागर दोनों ही पूर्णत: विद्रोही सेनाओं के अधिकार में थे। दमोह के सब लोधी सरदार शाहगढ़ के विद्रोहियों की धन-जन और भोजन से सहायता कर रहे थे। अनेक सप्ताह तक सागर या दमोह में डाक नहीं आई थी। अनेक दिनों तक यातायात ठप्प रहा। उपद्रव के पुराने स्थल चावरपाठा, पट्टïा तथा तेंदूखेड़ा फिर हाथ से निकल गए थे। इस प्रकार सन्ï 1857 के अगस्त माह में नर्मदा के उत्तर के लगभग सभी स्थान, जबलपुर और मंडला को छोड़कर, स्वातंत्र्ययुद्घ की सेना के आधिपत्य में पहुंच गए थे।
परंतु शीघ्र ही जबलपुर में घटनाएं द्रुतगति से घटित होने लगीं। गढ़ा मण्डला गौडऱाजवंश के प्रतिनिधि राजा शंकर शाह के नेतृत्व में मुहर्रम के पहले दिन छावनी पर आक्रमण करने का निश्चय किया गया। परंतु निश्चित दिन के पहले ही इस अभिसंधि की सूचना डिप्टी कमिश्नर कप्तान क्लर्क को मिल गई। अपने सहायक, बीस सवार तथा चालीस पुलिस के सिपाही लेकर उसने 14 सितंबर को राजा शंकरशाह के घर पर आक्रमण कर दिया तथा राजा और उसके पुत्र रघुनाथशाह तथा उस घर में प्राप्त कुछ अन्य व्यक्तियों को बंदी कर लिया। दूसरे दिन 52वीं रेजीमेंट के कुछ सिपाहियों ने बंदियों को छुड़ाने का प्रयत्न किया। किन्तु वे सफल नहीं हो सके। इसके दूसरे दिन कमिश्रर ने इन दोनों राजकुमारों पर राजद्रोह का मुकदमा चलाने का नाटक किया और तोपों के मुंह से बांधकर उड़ा दिया।
राजा शंकर शाह की निर्मिम हत्या ने जनता तथा उसके अनुयायी सैनिकों को स्तब्ध कर दिया। मृत्युदण्ड की रात में समस्त 52वीं रेजिमेंट उठ खड़ी हुई और अपने हथियार एवं गोलाबारूद लेकर चल पड़ी। वह नगर के बाहर एवं चक्करदार मार्ग से पाटन की ओर गई जहां इसी रेजिमेंट का एक दस्ता नियुक्त था। इस रेजिमेंट का एक अन्य दल स्लामाबाद में भी था। 52वीं रेजिमेंट के विद्रोह का समाचार इन दोनों स्थानों पर पहुंच गयसा और वहां की सैनिक टुकडिय़ां भी अपने अफसरों के विरूद्घ उठ खड़ी हुईं तथा जबलपुर से आने वाले अपने साथियों से मिलने के लिए चल दीं। सैनिकों ने अंग्रेज अफसरों के साथ अच्छा व्यवहार किया और अगले मास, अर्थात्ï अक्टूबर 1857 में विद्रोह का विस्तार होशंगाबाद, मण्डला तथा नर्मदा के कुछ दक्षिण तक हो गया। इसी बीच विजया राघवगढ़ के 7 राजा सरजू सल्लू सिंह ने भी विद्रोह कर दिया।
अन्तत: सरजूप्रसाद सिंह पकड़ा गया। उस पर फर्जी मुकदमा चलाया और उसे आजीवन देशनिकाला तथा समस्त संपत्ति के राजसात्ï किए जाने का दंड दिया गया। इस दंडाज्ञा को ग्रहण करने के स्थान पर सरजूप्रसाद ने आत्महत्या कर ली। नवंबर 1857 में मंडला जिला अंगरेजों के हाथों से लगभग निकल चुका था। स्वतंत्रता संग्राम सेनानियों के एक अंग का नेतृत्व रामगढ़ की रानी कर रही थी। उसने बड़ी वीरता दिखाई। लेकिन 1 अप्रैल, 1858 को लेफ्टिनेंट वार्टन ने दो ओर से आक्रमण किया। रानी और उसकी सेनाएं जमी न रह सकीं और उन्हें खाली करना पड़ा। वे पास के जंगल में चले गए और वहां से रानी अंगरेजों के शिविर पर निरंतर आक्रमण करती रही। परंतु इनमें से एक आक्रमण घातक सिद्घ हुआ। उसने देखा कि वह घिर गई है और उसका पकड़ा जाना सुनिश्चित है। वीरांगनाओं की गौरवशाली परंपरा के अनुरूप उसने बंदी होने की अपेक्षा मृत्यु को श्रेष्ठïतर समझा और क्षणमात्र में अपने घोड़े से उतरकर अपने परिचायक के हाथ से तलवार छीनकर उसने अपनी छाती में घुसेड़ ली।
मंडला जिले के प्रतिरोधकों में रामगढ़ का पतन सबसे अंत में हुआ था। वर्ष के प्रारंभ में मंडला का डिप्टी कमिश्रर, जो सिवनी चला गया था, वहां के अपने साथी को उस स्थान के विद्रोह के दमन में सहायता पहुंचाकर इस जिले में और अधिक सेना लेकर लौट आया था। दोनों नेता, बहादुर सिंह और देवीसिंह पकड़लिए गए थे तथा उन्हें फांसी दे दी गई थी। सन्ï 1857 के अंत तक सिवनी और बर्गी के आसपास का नर्मदा के दक्षिण का विद्रोह दबा दिया गया था। सुहागपुर भी पुन: ले लिया गया और उसकी रक्षा करने वाले विद्रोही रीवा भाग गए।
सन्ï 1857 के अंत तक नरसिंहपुर और होशंगाबाद की घटनाएं भी विद्रोहियों के बहुत अनुकूल रहीं। नरसिंहपुर जिले पर तीन ओर से आक्रमण हुआ। उत्तर में अपने पठान बंदूकचियों तथा अन्य अनुयायियों के साथ भूपाल का नवाब अलीखां अंगरेजों के विरूद्घ उठ खड़ा हुआ। और उसने तेंदूखेड़ा तथा बिलकारी पर आक्रमण कर दिया। पूर्व में प्रतिरोध का प्रसिद्घ नेता मेहरबानसिंह नरसिंहपुर से केवल पन्द्रह मील की दूरी पर स्थित हीरापुर की ओर बढ़ा। पश्चिम में जिले के दक्षिण-पश्चिम भाग को उन सेनाओं ने दबाया जो जबलपुर के वर्गों परगने में इक_ïी हो गई थी। डिप्टी कमिश्रर कप्तान टेनर्न, हीरापुर में स्थित मेहरबान सिंह की सेना पर आक्रमण कर दिया और उसे हरा दिया तथा इसी समय उसके सहायक कप्तान वुली ने सोनार नदी पार कर ली और वहां पर एकत्रित सेनाओं को पराजित करने में यह सफल हुआ। ये दोनों अफसर नरसिंहपुर जिले के नर्मदा के उत्तर के क्षेत्र में बढ़ते गए और सन्ï 1857 के नवम्बर मास के अंत तक उनने इस क्षेत्र के समस्त प्रतिरोध को उद्ïध्वस्त कर दिया।
नानासाहेब की सेना के तीन सेनापतियों ने झांसी, कालपी, ग्वालियर तथा उत्तरी बुंदेलखण्ड तथा मध्यभारत के युद्घों में जो महान कार्य किए थे वे स्वतंत्रताप्राप्ति के लिए मध्यप्रदेश के बाहर किए गए संघर्ष के जाज्वल्यमान के लिए मध्यप्रदेश के बाहर किए गए संघर्ष के जाज्वल्यमान तथा अविस्मरणीय अध्याय है। ग्वालियर के पास कोटे की सराय के रणक्षेत्र में जून 1858 में झांसी की रानी के शरीरांत के पश्चात्ï तात्या टोपे ने अविश्रांत गुरल्लिा युद्घ जारी रखा। बांदा के नवाब द्वारा आत्म समपर्ण करने से तात्याटोपे को बड़ी निराशा हुई। मानसिंह द्वारा विश्वासघात किये जाने के कारण वह पकड़ा गया। और उसे फांसी दे दी गई।
होशंगाबाद में उत्क्रांति का सूत्रपात सन्ï 1857 के अक्टूबर मास के प्रारंभ में हुआ जब ठाकुर दौलतसिंह के नेतृत्व में एक विशाल जनसमूह ने नेमावर तहसील में विद्रोह का झंडा ऊंचा किया और वह सतवास में दृढ़ता से जम गया। यद्यपि अंग्रेजी सेनाएं, उन्हें कुछ समय के लिए किले से बाहर निकाल देने में सफल हो गई थीं तथापि वे पुन: उस पर अधिकार प्राप्त कर सके। अगले वर्ष के जनवरी मास के अंत में ही होशंगाबाद जिले की विद्रोहियों से मुक्त किया जा सका।
यह उल्लेखनीय है कि सागर-नर्मदा क्षेत्रों के प्रतिरोध के केंद्र ठीक वही स्थान थे जो सन्ï 1842 के प्रारंभिक प्रयाग में अंग्रेेजों के विरूद्घ उठ खड़े हुए थे। स्वयं सागर और दमोह, नरसिंहपुर, चावरपाठा, तेंदूखेड़ा, हीरापुर ये सब वे प्रसिद्घ स्थान थे जहां के ठाकुरों और मालगुजारों ने पंद्रह वर्ष पूर्व परतंत्रता और अधीनता की स्थिति स्वीकार करने से इन्कार कर दिया था। अब वे पुन: अपनी स्वतंत्रताप्राप्ति के प्रयास में विद्रोह की अगली पंक्ति में आ खड़े हुए थे। पर वे सफल नहीं हो सके।
अंग्रेजों द्वारा सागर-नर्मदा क्षेत्रों के विद्रोह को दबाने का सिलसिला उस समय तेज हुआ जब द्वर ह्यïूरो$ज राहतगढ़ के किले को जीतने के पश्चात्ï 3 फरवरी 1858 को सागर में आया। सागर ने कोई प्रतिरोध नहीं किया और इसके बाद सागर और दमोह के बीच स्थित गढ़ाकोटा पर अधिकार कर लिया गया। इसके पहले कि रो$ज ने झांसी जाने के लिए सागर जिले को छोड़ा, तब तक केवल मालथोन को छोड़कर, जिस पर बानपुर के राजा का अधिकार था, अधिकांश पुलिस चौकियों पर पुन: कब्जा किया जा चुका था। यह भी एक मास बाद हाथ से निकल गया जब कि सागर तथा जनरल रोज की संयुक्त सेनाओं ने गढ़ कर आक्रमण किया और भीषण नरहत्या करते हुए मदनपुर की गढ़ी को ले लिया। जैसा पहले उल्लेख किया जा चुका है, रानी की मृ़त्यु के पश्चात्ï रामगढ़ के पतन के साथ मंडला का प्रतिरोध समाप्त होने लगा था। अकेला सुहागपुर कुछ अधिक समय तक डटा रहा जबकि जून 1858 में मंडला की सेना ने, एक रायपुर की ओर दूसरी रीवा की, दो टुकडिय़ों की सहायता से उस पर अधिकार कर लिया। 16 मई को प्रतिरोध के प्रमुखतन नेताओं में से एक, नरसिंहपुर जिले के मद्दनपुर का द्विल्लनशाह (जो सन्ï 1842 के आंदोलन का भी नेता रह चुका था) उस समय पकड़ लिया गया जब वह अपने खोए हुए मद्दनपुर को पुन: प्राप्त करने का प्रयास कर रहा था। द्विल्लनशाह पर अभियोग चलाया गया और उसे फांसी दे दी गई। नरसिंहपुर के आंदोलन को इससे धक्का पहुंचा और इसके बाद वहां का विद्रोह दब गया। गवर्नरजनरल द्वारा क्षमादान की उदïघोषणा इन क्षेत्रों में मई 1858 में प्रसारित की गई, और प्रतिरोध करने वाले अनेक व्यक्तियों ने जो अस्थिर थे अथवा साहस खो बैठे थे इस अवसर का लाभ उठाकर आत्मसमर्पण कर दिया। नीमखेड़ा के हिम्मतसिंह तथा नरसिंहपुर के मेहरबानसिंह जैसे कुछ अन्य अधिक दृढ़प्रतिज्ञ व्यक्ति भागे ही रहे, परंतु वे अधिकांश में पहाडिय़ों और जंगलों में ही सीमित हो गए।
इतिहास के घटनाक्रम में सन्ï 1857 का महान विप्लव सामंतवादीवर्ग द्वारा विदेशी शासन को उखाड़ फेंकने और देश की स्वतंत्रता स्थापित करने के अंतिम प्रयास की सीमारेखा है। भूस्वामी और राजन्यवर्ग की ओर से राष्टï्र के सम्मान तथा गौरव को स्थापित करने का यह एक साहसपूर्ण प्रयास था। यद्यपि इसका नेतृत्व और निर्देशन स्वत्वापहरित वर्गों द्वारा किया गया था तथापि यह राष्टï्रीय स्वतंत्रता प्राप्ति का संघर्ष था। यह संघर्ष सफल न हो सका इसका कारण वे तत्व थे जो स्वयं इस संघर्ष की प्रकृति में ही निहित थे। जनता और जननेताओं को इसके लिए कुछ समय लगा जब वे इस असफलता द्वारा सिखाए गए पाठ से लाभ उठा सके।