जंगे आजादी के यह मुस्लिम योद्धा

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आजादी” वो नेमत है जो हिन्दुस्तानियों को काफी जद्दोजहद एवं खून पसीना बहाकर सैकड़ों वीर सपूतों को गंवा कर प्राप्त हुई और इस सच्चाई से कोई भी मुंह नहीं मोड़ सकता कि आजादी के लिए शुरू पहले आंदोलन से लेकर आज़ादी की प्राप्ति तक और आज़ादी के बाद से आज तक अपनी कुर्बानियां सिक्ख ईसाई पारसी सभी ने अपनी’-अपनी शहादत सुनहरे अक्षरों में दर्ज करायी हैं। लेकिन अफसोस कि आज हम अपने शहीदों की कुर्बानियों को भुला बैठे हैं। देश में कुछ लोगों ने जो सत्ता के शीर्ष पर बैठे है। उन्होनें एक सोची समझी साजिश के तहत सिर्फ गिने चुने शहीदों के नाम को लेना तथा उनकी याद और कुर्बानियों को गिनाकर चंद समारोहों सम्पन्न करा लेना ही अपना कर्तव्य मान रखा है। हालत ये हो गयी है कि पहले तो जश्ने आज़ादी के वक्त विभिन्न जंगे आजादी के सपूतों के साथ बहादुर शाह जफ़र एवं मौलाना अबुल कलाम आज़ाद का नाम ले भी लिया जाता था अब तो उसमें भी कोताही बरती जाने लगी है। इसके अलावा सैकड़ों अन्य मुस्लिम मुहब्बे वतन आज़ादी के दीवानों को आज ऐसा बिसरा दिया गया है। जैसा कि हिन्दुस्तान से उनका कोई वास्ता ही नहीं हो। जबकि उन्होने अपनी जान माल की परवाह न करते हुए आज़ाद हिन्दुस्तान के लिये अपना सब कुछ न्यौछावर किया और इनमें बहुत से अंग्रेजों के अत्याचारों एवं गोलियों के शिकार बने। ऐसे में हर भारतवासी का फर्ज है कि वो हर शहीद को हर मुहब्बे वतन को उसका हक दे चाहे, वो किसी भी धर्म जाति का हो। ऐसे ही तमाम मुस्लिम विद्वानों, स्वतंत्रता सेनानियों तथा हिन्दुस्तान की आज़ादी के लिये जीवन भर संघर्ष करने वालों में से कुछ एक के बारे में यहां पेश किया जा रहा है जिसको हिन्दुस्तान का इतिहास कभी न भुला सकेगा। ये और बात है कि चंद लोगों की करतूतों से उनके नाम और काम के पन्नों पर धूल जम जाएगी, बल्कि वो अपनी पूरी चमक के साथ दिखायी पड़ेंगे और यह सिर्फ मैं ही नहीं कहता बल्कि हिन्दुस्तान के अनेक ऐतिहासिक दस्तावेज़ एवं इतिहासकार कहते है। इनमें से ही एक मुमताज तारीखदां विशम्भरनाथ पांडेय ने आज़ादी के मतवाले से जि़क्र करके मुल्क के तमाम लोगों को यह समझाने की कोशिश की है कि मुसलमान उलेमा और दानिश्वर लोग कुरआन मजीद का तजुर्मा करने, मजहबी तालीम देने, मदरसे-दारूल उलूम चलाने के साथ-साथ अपने अज़ीम मुल्क की आज़ादी के लिये हर किस्म की कुर्बानी देने मे हमेशा आगे रहे। आज की पीड़ी के सामने यह मुस्लिम दानिश्वर लोग कुरआन मजीद का तजुमज़ करने, मजहबी पेशवा के तौर पर ही सामने आये हैं। मगर यहां दिए जा रहे नामों से उन्हें यह पता चलेगा कि मज़हब के उसूलों पर कारबन्द रहते हुए उन्होंने मैदाने जंग में भी अपनी बहादुरी के नाकाबिले फरामोश और यादगार जौहर दिखाये हैं। जिसे हर हिन्दुस्तानवासी सदियों तक न भूल सकेगा और न ही उसे भूलना चाहिए।
शाह वलीउल्लाह
हमारे मुल्क के हिन्दू और मुसलमानों के आपसी मन मुटाव को बहुत से ऐसे संत महात्मा और अल्लाह के वली जिन्होंने बगैर किसी तफरीक के पूरे हिन्दुस्तान को ऊंचा उठाने और तरक्की देने की कोशिश की सिर्फ इसलिए भुला दिये गये कि वह इस या उस मज़हब के थे।
18वीं सदी के मुसलमान दरवेश शाह वली उल्लाह भी हमारे मुल्क की ऐसी ही ज़बददस्त हस्ती थे। जिन्होंने अपने ज़माने के गिरते हुए अखनलाक और बिगड़ते हुए चलन को ऊंचा उठाने की कोशिश की। बल्कि उस जमाने की सियासत में भी सरगर्म हिस्सा लिया। गैर मुल्की कौमों के बढ़ते हुए खौफनाक पंजों से हिन्दुस्तान को बचाने के लिए वह जिन्दगी भर लड़ते रहे और अपने वारिसों, बेटों, नातियों और हजारों शार्गिदों के दिलों में ऐसी आग छोड़ गये कि उन्होंने मर जाना पसंद किया मगर हिन्दुस्तान की गुलामी को खामोशी से बर्दाश्त नहीं किया। वह 1702 हिजरी में दिल्ली में पैदा हुए आपके वालिद का नाम शाह अब्दुर्रहीम था जो बहुत बड़े आलिम व सूफी थे।
शाह साहब ने अपने मुल्क के हालात पर नजऱ डाली उन्होंने देखा कि हिन्दू या मुसलमान दोनों मज़हब के लोगों में वह सच्चा मज़हबी जज़बा नहीं रह गया था जो इंसान को इंसान बनाये रखता है। उल्टे उनमें एक तरह की मज़हब से दूरी या अपने घराने के ज़ाती फायदे नुकसान को ही देख सकते थेे और समाज या मुल्क का फायदा अपने ज़ाती मफाद के ऊपर कुर्बान कर सकते थे। ऊपर के अमीर-उमरा, रईस और सरदारों ने नीचे के लोगों पर अपने ऐश व आराम की जिन्दगी के लिए इतना बड़ा बोझ लाद दिया था कि वह लोग मजबूर हो गये थे।
शाह साहब हिन्दुस्तान को एशिया का एक ताकतवर मुल्क देखना चाहते थे। उनकी राय में यह तभी हो सकता था जब वह पूरा मुल्क एक मरकज़ी हुकूमत के मातहत हो। उन्होंने अपनी किताब बदौरे बाज़शाह में लिखा है कि मुल्क में छोटे-छोटे खुदमुख्तार राजा भले ही हों। लेकिन जिससे किसी भी मसले पर पूरे हिन्दुस्तान का फायदा नुकसान निगाह में रखकर गौर किया जा सके।
शाह साहब ने मई 1731 में एक जमाअत बनायी जिसका मकसद हिन्दुस्तान में एक सियासी इंकलाब बरपा करना था उसके चार उसूल थे। 1. अल्लाह की इबादत 2.इंसाफ 3 चाल-चलन ठीक करना 4. सब्र व तहम्मुल।
मुल्क के सब हिस्सों में इसकी बहुत सी शाखें कायम की गयीं धीरे-धीरे यह तंजीम इतनी मज़बूत होती गयी कि मौलाना उबैद उल्लाह सिंधी के लफ्ज़ों में शाह साहब की जमाअत ने बाकायदा एक काम चलाऊ सरकार कायम कर ली। शाह साहब ने हुकूमत के खिलाफ तलवार उठाने से अपने शार्गिदों को मना कर दिया और समझाया कि जिस तरह हुजूर (सल्ल.) ने तेरह साल तक अहिंसा के सहारे दावत दी यहां तक कि खुद हिजरत कर गये और तलवार हाथ में न ली उसी तरह हमें भी अपने नज़रियात को फैलाने का काम करते रहना चाहिए। जब तक कि उस इंकलाब की हम पूरी तरह तैयारी न कर लें कुछ दिन बाद दिल्ली के हुक्मरां नजफ़ अली खां ने शाह साहब के हाथों के पंजे उतरवा लिये ताकि वह लिखकर अपनी तबलीग न कर सकें उनके दोनों बेटों शाह अब्दुल अज़ीज़ और शाह रफीउद्दीन को देश निकाला दे दिया। 1762 में शाह साहब इस दुनिया से रूखसत हुए।
शाह अब्दुल अज़ीज़
1762 में जब शाह वली उल्लाह साहब की इंकलाबी तहरीक जो आज कल की आम जबान में आम लोगों का राज सोशलिस्ट डेमोक्रेटिक हुकूमत कायम करने की तहरीक कही जा सकती है। अपना बचपन पार करके जवानी की दहलीज़ छू रही थी कि शाह साहब दुनिया से चल बसे। उनके बेटे शाह अब्दुल अज़ीज़ इस तहरीक के लीडर चुने गये। उस वक़्त वह सिर्फ 17 साल के थे। चूंकि वह पिछले दो साल से इस तहरीक में पूरी जि़म्मेदारी के साथ अपने वालिद का हाथ बंटा रहे थे इसलिये शाह साहब के करीबी साथियों ने उनके सर पर यह कांटों का ताज रखा।
शाह साहब बड़ी क़ाबिलियत से मदरसा चला रहे थे और हर तालिबे इल्म उनका इन्तेहाई एहतराम करता था। मज़हबी तफरीक उनमें नहीं थी। उनके एक ब्राह्मण दोस्त कभी-कभी हफ्तों उनके साथ रहते और उनके घर पर ही पूजा पाठ करते। मगर शाह साहब के घर उनको कोई दिक्कत नहीं होती।
शाह साहब को जिन्दगी भर अंगे्रजी सरकार की मुखालिफत झेलना पड़ी। उन्हें दो बार ज़हर दिया गया। एक बार ज़हरीली छिपकली का उबटन मलवा दिया गया जिससे उन्हें कोढ़ हो गया और उनके आंखों की रोशनी जाती रही। उन्हें देश निकाला दिया गया। मगर यह तमाम सख्तियां शाह अब्दुल अज़ीज़ हंसते-हंसते झेल गये। वह जानते थे कि इन्कलाब का रास्ता इन तकलीफों और ख़ारदार झाडिय़ों से ही होकर जाता है। सब्र के साथ उन्होंने उनको बर्दाश्त करने में कामयाबी है।
शाह साहब ने अंग्रेजों के बढ़ते असर को देखते हुए जहां अंग्रेजी हुकूमत थी वहां मुसलमानों को हुकूमत के खिलाफ तलवार उठाने या वहां से हिजरत करने का हुक्म दिया। उन्होंने इंकलाब के लिये फौजी तैयारियां की। वह किसी भी तरह अंग्रेजों को हिन्दुस्तान में टिकने नहीं देना चाहते थे। 1824 में उनका इतंकाल हो गया।