आजादी की प्राप्ति के लिए हिन्दुस्तान और यहां के नागरिक अंतिम मुगल बादशाह सम्राट बहादुर शाह जफर और उनके परिवार के भी बेहद ऋणी हैं और रहेंगे, जिसने आजादी की शमां को अपने खून से रोशनी दी और दो गज जमीन अपने आजाद भारत में पाने की ख्वाहिश लिए दुनिया से चले गये।
24 अक्तूबर 1775 को दिल्ली में लाल किले में जन्में शहजादे से शंहशाह के पद पर 1837 में तख्तनशीन (सिंहासनरूढ) हुए बहादुर शाह जफर यह अच्छी तरह जानते थे कि अंग्रेज बडे छल-कपट वाले हैं। वह कहते कुछ हैं और करते कुछ हैं। अंग्रेज सम्राट को अपमानित करने के लिए तरह-तरह के बहाने खोजा करते थे।
असल में बात यह थी कि ईस्ट इंडिया कम्पनी को जफर से प्रारंभ से ही खतरा था और यही मुख्य कारण था कि 1844 में गवर्नर जनरल ने एक ऐसा आदेश जारी किया जो आगे चल कर अंग्रेजों के लए खुद कब्र बन गया। आदेश में कहा गया था कि जब दिल्ली के बादशाह की मृत्यु हो जाए तो उसका उत्तराधिकारी बनाने के सिलसिले में हर मामले में उसकी स्वीकृति गवर्नर जनरल से ही ली जाए। जहां तक उत्तराधिकारी की बात थी, उसमें किसी प्रकार के हस्तक्षेप सम्राट के अधिकार का हनन था।
शहजादा दारा बख्त के निधन के बाद अंग्र्रेजों ने शहजादा मिर्जा फखरू को अपनी ओर मिला लिया और उसे युवराज बनवा दिया। उनकी भी मृत्यु हो जाने पर जफर की मर्जी के विरूद्ध मिर्जा को युवराज बनाने का दबाव बनाया, जबकि बादशाह जवांबख्त को युवराज बनाना चाहते थे।
सम्राट को पहले तो कुछ कंपनी की ओर से नजराना स्वरूप दिया जाता था, वह पहले ही बंद किया जा चुका था। कंपनी का जो सिक्का सम्राट के नाम से ढाला जाता था वह भी बंद कर दिया गया। सम्राट के प्रति किया गया यह व्यवहार दिल्ली की जनता हिन्दू और मुसलमान दोनों के लिए असहनीय था और यही कारण है कि 1857 के प्रथम स्वाधीनता संग्राम में हिन्दू और मुसलमान दोनोें ने ही सम्राट बहादुर शाह जफर और बेगम जीनत महल के निर्देश से जो भूमिका निभाई वह भारत वर्ष के इतिहास में एकता और सह अस्तित्व का अद्भुत प्रमाण है।
उधर झांसी की रानी लक्ष्मी बाई, तात्या टोपे, बिहार केसरी बाबू कुंवर सिंह, नाना साहब पेशवा, हरियाणा, राजस्थान, महाराष्ट्र आदि के शासकों के दिलों में भी अंग्रेजों के प्रति नफरत फैल चुकी थी। सभी देश को आजाद कराने की कोशिश में लगे हुए थे। मौलवी अहमदुल्ला शाह, बेगम हजरत महल, बख्त खां, गुलाम गौस खां आदि भी पूरी तैयारी कर चुके थे। बहादुर शाह जफर ने सारे देश के लोगों से संपर्क कर यह निर्णय लिया कि 31 मई 1857 के पुनीत दिन सारे देश की जनता, राजा, नवाब, महाराजा और आजादी के मतवाले एकसाथ अंग्रेजों पर धावा बोल देंगे और अंग्रेजों को भारत से निकाल देंगे।
वास्तव में यह योजना बडे ही गुप्त ढंग से रची गयी थी। कमल का फूल और चपाती क्रांति के चिन्ह घोषित किये गये और हरा व सुनहरा झंडा क्रांति का प्रतीक चुना गया। लोगों का कहना है कि यदि इसी के अनुसार कार्य हुआ होता तो आज भारत का इतिहास कुछ और होता और अंग्रेज 31 मई 1857 को ही भारत छोड कर भाग गये होते। किंतु मंगल पाण्डे नामक एक सैनिक 31 मई तक प्रतीक्षा न कर सका। कारण यह था कि जब उसे यह पता चला कि सैनिक जो कारतूस प्रयोग कर रहे हैं तथा जिसे अपने मंुह से खींचते हैं, अंग्रेजों ने हिन्दुओं और मुसलमानों का धर्म भ्रष्ट करने के लिए उसमें गाय और सुअर की चर्बी मिला दी है। तो उस सैनिक से बर्दाश्त नहीं हुआ और उसने क्रांति कर अंग्रेज अफसरों को मौत के घाट उतार दिया। अंग्रेजों ने इस सैनिक को फांसी पर लटका दिया।
मंगल पाण्डे के फांसी पर लटकते ही सारे देश की सैनिक छावनियों में भारतीय सैनिकों ने क्रांति कर दी। हर जगह अंग्रेज चुन-चुन कर मारे जाने लगे। अंततः 31 मई के पूर्व ही 10 मई को मेरठ से क्रांतिकारियों की एक भारी फौज अंग्रेजों की हाय और बहादुर शाह जफर की जय बोलती हुई दिल्ली पहुंची और वहां जाकर क्रांतिकारियों ने बहादुर शाह जफर को 21 तोपों की सलामी दी और लाल किले पर हरा और सुनहरा झंडा फहरा कर बहादुर शाह जफर को देश का सम्राट घोषित कर दिया। यह जनता की लडाई थी, बहादुर शाह जफर के झंडे तले भारत के सारे हिन्दू मुसलमान एकत्र हुए। राष्ट्रीय एकता की इससे बडी कोई मिसाल इतिहास में मिल ही नहीं सकती।
अंग्रेज सोच नहीं पा रहे थे कि अब उन्हें क्या करना है और कैसे बचना है। उसी समय अंग्रेजों को ऊपर से यह आदेश मिला कि इस समय हिन्दुस्तान पर हुकूमत की बात भूल जाओ और जिस कीमत पर हो सके वहां हिन्दुओं और मुसलमानों को आपस में लडा दो। बहादुर शाह जफर ने जो एकता कायम की है, उसे आपसी मतभेद में बदल दो। भारतवासी पुनः अंग्रेेजों के झांसे में आ गये और उनकी चाल कामयाब हो गई, यहां भाई से भाई लड गया। आजाद दिल्ली फिर से गुलाम हो गई। सारी जनता पर अंग्रेजों ने बडा जुल्म ढाया, दिल्ली को खूब लूटा। बहादुर शाह जफर को गिरफ्तार करने के बाद अंग्रेजों ने उनकी बेगमात के साथ बडी बेरहमी से बेइज्जती की। मेजर हडसन ने बूढे बादशाह को बहुत सताया और कई दिनांे के भूखे प्यासे जफर के सामने उसके एक जवान बेटे और दो पोतों के सिर काट कर पेश किये।
बहादुर शाह जफर ने कहाकि अल्हम्दुलिल्लाह तैमूर की औलादें ऐसे ही सुर्खरू होकर बाप के सामने आया करती हैं। हडसन ने देखा कि जफर की आंखों में आंसुओं का नामो निशान तक नहीं और चेहरे पर जरा सा शिकन तक नहीं है।
अंत में अंग्रेज अपनी चाल में पूरी तरह कामयाब हो गये। बहादुर शाह जफर कैद करके दिल्ली से दूर रंगून भेज दिये गये। जहां तंग कैदखाने में उन्होंने बडी दयनीय स्थिति में अपने दिन काटे। अंग्रेजों ने उन पर बडे जुल्म ढाए, भूख और प्यास से तडपाया। अंत में भारत की ्रप्रथम क्रांति का नायक सिराजुद्दीन मुहम्मद अबु जफर 7 नवम्बर 1862 को सदा के लिए अपने दिल में दो गज जमीन की आरजू लिए हुए मुल्के अदम सिधार गये। मरते वक्त भी जफर ने यही कहा था कि गम मरने का नहीं, अगर कोई गम है तो अपने मुल्क में दो गज जमीन न मिलने का है।
0 अनवार अहमद ’’नूर‘‘