जंगे आजादी के यह मुस्लिम योद्धा

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(२ किश्त)
शाह मोहम्मद इस्हाक़
शाह अब्दुल अज़ीज़ के बाद शाह मोहम्मद इस्हाक़ इस इंक्लाबी तंज़ीम के लीडर चुने गये। उनके वक़्त में अंग्रेज़ों ने हिन्दुस्तान को अपने साम्राजी पंजे में बुरी तरह जकड़ लिया था। अंग्रेज़ पादरी खुलेआम हिन्दू-मुसलमानों के अवतारों, पैगम्बरों पर छींटे कसते थे। शाह साहब इन हालात को देख कर अच्छी तरह समझ गये कि मुल्क के असली दुश्मन अंग्रेज़ हैं और मुल्क की तरक्की उस वक़्त तक नहीं हो सकती जब तक कि अंग्रेजों के पैर हिन्दुस्तान में जमे हुए हैं। इसलिये हमें अपने मुल्क वालों से मिल कर अंग्रेजों को मुल्क से बाहर निकालना चाहिए।
शाह साहब तुर्कीं के सल्तनत की मदद से अंग्रेजों को बाहर निकालने की कोशिश करने लगे। इसकी भनक मिलते ही अंग्रेजी सरकार ने तुर्कीं सल्तनत पर यह दबाव डाला कि वह शाह साहब को देश निकाला दे दे। शाह साहब मुल्क की आज़ादी के लिये जगह-जगह भटकते फिरे और 1846 में उनका इंतकाल हो गया।
हाजी इमदाद उल्ला
शाह मोहम्मद इस्हाक़ के बाद 1846 में इस इंकलाबी तंज़ीम का लीडर हाजी इमदाद उल्ला साहब को मुकर्रंर किया गया। उस ज़माने में मुग़ल बादशाह की हालत और ताक़त कमज़ोर होती चली गई और अंग्रेज़ों के मज़ालिम बढ़ते चले गये। इस इन्कलाबी तंज़ीम को अंग्रेज़ बिल्कुल पसंद नहीं करते थे। हाजी इमदाद उल्ला इन हालात से घबराये नहीं। बल्कि उन्होंने अपनी तन्ज़ीम को फिर से मज़बूत किया। सन् 1857 की जंगें आज़ादी में हाजी इमदाद उल्ला के साथ उनके मदरसे के हज़ारों तलबा ने बहादुरी से अंग्रेज़ों से लड़ाई लड़ी। उसके बाद अंग्रेज़ों ने चुन-चुन कर हाजी इमदाद उल्ला के साथियों तलबा को फांसी पर चढ़ाया। मौलाना रशीद अहमद गंगोही को गिरफ्तार किया गया। हाजी साहब ने हिम्मत नहीं हारी और अंग्रेज़ों के खिलाफ अपनी कोशिशों में लगे रहे। 1897 में उनका इंतकाल हो गया।
मौलाना मोहम्मद क़ासिम
हाजी इमदाद उल्ला के बाद हिन्दुस्तान को अंग्रेजों से आज़ाद कराने के लिए जद्दोजहद करती इंकलाबी तंज़ीम की बागडोर मौलाना मोहम्मद क़ासिम को सौंपी गई। यह बड़ा मुश्किल दौर था। 1857 की बग़ावत की नाकामी से अंग्रेज़ों के हौसले बुलंद हो गये थे। उनके जासूस चप्पे-चप्पे पर फांसी का फंदा लिये इंकलाबियों को तलाश रहे थे। मौलाना मोहम्मद क़ासिम बहुत होशियारी से हालात का जायज़ा लेते रहे। उन्होंने 1867 में सहारनपुर से 22 मील दूर देवबंद जैसे मामूली कस्बे में दारूल उलूम (इल्म का घर) के नाम से एक मज़हबी मदरसा कायम किया।
उस वक्त उनके पास न पैसा था और न कोई मदद करने वाला। मदरसे के पहले तालिब इल्म मौलाना महमूदुल हसन थे। शुरू में दरख्तों के नीचे पढ़ाई शुरू हुई। धूप और बारिश से बचने के लिये कोई तरीका नहीं था। कौन जानता था यह छोटा सा मदरसा मुल्क की आज़ादी के सिपाहियों की एक खास छावनी बनेगा और हिन्दुस्तान ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में इल्म की रोशनी फैलायेगा।
अंग्रेज़ों ने मौलाना मोहम्मद क़ासिम के खिलाफ गुमराहकुन प्रोपगण्डा किया ताकि हिन्दू मुसलमान के नज़रियात से दूर हट जायें। मौलाना क़ासिम के लिए यह सख़त इम्तेहान की घड़ी थी। मगर वह साबित कदम रहे और मुसलसल आज़ादी की रूह हिन्दुस्तानियों में फूंकते रहे। 1878 में उनका इंतेकाल हुआ।

हाजी रशीद अहमद गंगोही
मौलाना मोहम्मद कासिम नानौतवी के बाद मुहब्बेवतन मुस्लिम उलेमा की इस तंज़ीम का बार जि़ला सहारनपुर के कस्बा गंगोह के रहने वाले हाजी रशीद अहमद गंगोही के कांधों पर डाला गया। यह तंज़ीम के इंक़लबी लीडर हाजी इमदाद उल्लाह के शार्गिंद रह चुके थे। इसलिए यह अंग्रेजों की चालबाजिय़ों और मुल्क के हिन्दू-मुसलमानों की ज़ेहनी सोच को अच्छी तरह जानते थे।
1857 की बग़ावत में उन्होंने सरगर्मीं से हिस्सा लिया और शामली के मोर्चें पर अंग्रेजों के दांत खट्टे कर दिए। उनको कै़द कर लिया गया और सख्त सज़ाए दी गईं। हाजी रशीद अहमद गंगोही की यह दिली ख्वाहिश थी कि भारत को अंग्रेजों के ज़ुल्म व सितम से आज़ाद कराएं।
उन्हें उन लोगों से सख्त चिढ़ थी जो अंग्रेजी हुकूमत की वफादारी का प्रोपगंडा करते थे। जब सर सैयद अहमद खान ने अंजुमन इस्लामिया कायम की और मुसलमानों को कांग्रेस से निकाल कर उसमें शामिल होने की अपील की, तब हाजी रशीद अहमद गंगोही साहब ने एक फतवा देकर मुसलमानों को कांग्रेस में शामिल हो जाने का ऐलान किया। उनकी आखिरी तमन्ना यही थी कि मुल्क के लिये लड़ते-लड़ते शहीद हो जाएं। उनका इंतकाल 1 अगस्त 1905 में 89 बरस की उम्र में हुआ।
मौलाना महमूदुल हसन
हाजी साहब के इंतेकाल के बाद 1905 में मुल्क को आजाद कराने की मुहिम का जि़म्मा मौलाना महमूदुल हसन के कांधों पर पड़ा। वह 1267 हिजरी में देवबंद में पैदा हुए उनके वालिद मौलाना जुल्फेकार अली खां और चचा मौलाना महताब अली उस इंकलाबी तहरीक के पुराने मददगार थे। मौलाना महमूदुल हसन को तालिब इल्मी की जिन्दगी से ही आज़ादी के मतवालों सरगर्मीं देखने का मौका मिला था क्योंकि यह मौलाना मोहम्मद कासिम के चहेते शागिज़्द थे इसलिए उनकी रग-रग में हुब्बुलवतनी की लहरें उठा करती थीं उस वक्त अंग्रेजों को नई हलचल नजर आयी। अंग्रेजों को घबराहट होने लगी कि आज़ादी की जो लगन अब तक मुसलमानों में ज़ोर पर थी वह अब हिन्दुओं मे भी फैलती जा रही थी। अंग्रेजों ने प्रेस एक्ट और हथियार छीनने का कानून बनाकर हिन्दुस्तानियों को निहत्था करने की कोशिश की। मौलाना महमूदुल हसन ने अब काबुल के आज़ाद कबीलों से मदद लेने के लिए उनसे राब्ता कायम किया। उनका प्लान था कि काबुल से लेकर हिन्दुस्तान के कोने-कोने तक मुनज़्जम तौर से आज़ादी के सिपाहियों को तैयार किया जाये और अब यह काम हो जाये तब काबुल और आज़ाद कबीलों की फौज बाहर से और यह तंजीम अंदर से अंग्रेजों पर ज़बरदस्त हमला करे। मौलाना को अंग्रेजों ने माल्टा की जेल में चार साल तक नजऱबंद रखा वहां की तकलीफें बर्दांश्त करते हुए वह बहुत कमजोर हो गये उनको गठिया का रोग हो गया। फिर भी जि़न्दगी की आखिरी घड़ी तक अंग्रेजों के खिलाफ मोर्चां संभाले रहे और 30 नवम्बर 1920 को दिल्ली में उनका इंतेकाल हो गया।