सियासी बोलचाल में जब कभी अकलियत का लफ्ज बोला जाता है तो उसका मतलब यह नहीं होता कि गणित के आम कायदे के मुताबिक इन्सानों की हर ऐसी तादाद जो दूसरी तादाद से कम हो लाजमी तौर पर अकलियत होती है और उसे अपने हिफाजत के बारे में परेशान होना चाहिए। बल्कि इसका मतलब एक ऐसी कमजोर जमाअत से होता है जो तादाद और सलाहियत दोनों लिहाज से खुद को इस काबिल नहीं पाती कि एक बडे और ताकतवर गिरोह के साथ रह कर अपनी हिफाजत के लिए खुद अपने ऊपर ऐतमाद कर सके। इस हैसियत के तसव्वुर के लिये सिर्फ यही काम नहीं कि एक गिरोह की तादाद के मुकाबले में कम हो। बल्कि यह भी जरूरी है कि वह खुद अपने आप में कम हो और इतनी कम हो कि उससे अपनी हिफाजत की उम्मीद न की जा सके। साथ ही इसमें तादाद के साथ नोइयत का सवाल भी काम करता है। फर्ज कीजिए एक मुल्क में दो गिरोह हैं एक की तादाद दूसरे से आधी होगी और इसलिए वह कम होगा । मगर सियासी लिहाज से जरूरी न होगा कि सिर्फ इस तादाद के फर्क की बिना पर हम उसे एक अकलियत फर्ज करें। उसकी कमजोर हस्ती का ऐतिराफ कर लें, इस तरह अकलियत होने के लिए तादाद के फर्क साथ दूसरे अवामिल की मौजूदगी भी जरूरी है।
अब जरा गौर कीजिए के इस लिहाज से हिन्दुस्तान में मुसलमानों की असल हैसियत क्या है। क्या आप के ज्यादा देर तक गौर करने की जरूरत न होगी। आप सिर्फ एक ही निगाह में मालूम कर लेंगे कि आपके सामने एक बडा गिरोह अपनी इतनी बडी और फैली हुई तादाद में के साथ सर उठाये खडा है कि उसके बारे में अकलियत की कमजोरियांे का गुमान भी करना अपनी निगाह को खुला धोखा देना है।
इसकी कुल तादाद मुल्क में आठ नौ करोड के करीब है वह मुल्क की दूसरी जमाअतों की तरह समाजी और नसली तकसीमों में बंटी हुई नहीं है। इस्लामी जिंदगी के बराबरी और भाईचारे के रिश्ते ने उसे समाजी फर्क की कमजोरियों से बडी हद तक महफूज रखा है बिला शुबह यह तादाद मुल्क की कुल आबादी में एक चैथाई की भी हैसियत नहीं रखती। लेकिन सवाल तादाद या उसके अनुपात का नहीं, खुद तादाद और उसकी नोइयत का है। क्या इंसानों की इतनी बडी तादाद के लिए उस तरह के अंदेशों की कोई जायज वजह हो सकती है कि वह एक आजाद और जम्हूरी हिन्दुस्तान में अपने हुकूक और फायदों की खुद देखभाल नहीं कर सकती।
मैं मुसलमान हूं और फó के साथ महसूस करता हूं कि मुसलमान हूं। इस्लाम की तेरह सौ बरस की शानदार रिवायतें मुझे विरासत में मिली हैं। मैं इस बात के लिए तैयार नहीं कि इसका कोई छोटे से छोटा हिस्सा भी हाथ से जाने दूं। इस्लाम की तालीम, इस्लाम के उलूम, इस्लाम की तारीख, इस्लाम के उलूम व फुनून, इस्लाम की तहजीब मेरे लिए दौलत व सरमाया है और मेरा फर्ज है कि इसकी हिफाजत करूं। मुसलमान होने की हैसियत से मैं मजहबी और कल्चरल दायरे में अपनी एक खास हस्ती रखता हूं और मैं बर्दाश्त नहीं कर सकता कि उसमें कोई दखल दे। लेकिन इन तमाम एहसासात के साथ एक और अहसास भी रखता हूं जिसे मेरी जिंदगी में की हकीकतों ने पैदा किया है। इस्लाम की रूह मुझे इनसे नहीं रोकती। वह इस राह में रहनुमाई करती है। मैं फó के साथ महसूस करता हूं कि मैं हिन्दोस्तानी हूं। मैं इस अखंड कैफियत का एक ऐसा अहम हिस्सा हूं जिसके बगैर उसकी अजमत का सर्किल अधूरा रह जाता है। मैं इसकी बनावट का एक अटूट अंग हूं कि मैं अपने इस दावे को कभी नहीं छोड सकता।
हिन्दुस्तान के लिए कुदरत का यह फैसला हो चुका था कि इसकी जमीन इन्सान की मुखतलिफ नस्लों, मुखतलिफ तहजीबों और मुखतलिफ मजहबों की फासलों की मंजिल बने। अभी तारीख की सुबह भी नहीं हुई थी ¢कि इन काफलों का आना शुरू हो गया और फिर एक के बाद एक सिलसिला जारी रहा। इसकी लम्बी चैडी जमीन सबका इस्तकबाल करती रही और इसकी गोद सब के लिए फैली रही। इन्हीं काफिलों में एक आखिरी काफिला हम इस्लाम के मानने वालों का भी था। यह पिछले काफिलों के निशानों पर चलता हुआ यहां पहुंचा और हमेशा के लिए यह बस गया। यह दुनिया की मुखतलिफ कौमों और तहजीबों की धारों का मिलन था। यह गंगा और जमुना के धारों की तरह एक दूसरे से अलग-अलग रहते थे। लेकिन फिर जैसा के कुदरत का अटल कानून है कि दोनों को एक समय में मिल जाना पडा। इन दोनों का मेल तारीख का एक अजीम वाक्या था जिस दिन यह वाक्या हुआ इस दिन से कुदरत के खुफिया हाथोें ने पुराने हिन्दुस्तान की जगह एक नया हिन्दुस्तान ढालने का काम शुरू कर दिया।
हम अपने साथ अपना नजरिया लाये थे। यह सरजमीन अपने जखीरों से मालामाल थी। हमने अपनी दौलत इसके हवाले कर दी और इसने अपने घर के दरवाजे हमारे लिए खोल दिये। हम ने उसे इस्लाम के जखीरे की एवज सब से कीमती चीज दी जिस की उसे सब से ज्यादा जरूरत थी। हमने इसे जम्हूरियत और इस्लामी बराबरी का पैगाम पहुॅंचाया।
तारीख की पूरी 11 सदियां इस वाक्ये पर गुजर चुकी हैं। अब इस्लाम भी इस जमीन पर वैसा ही दावा रखता है जैसा दावा हिन्दू धर्म का है। अगर हिन्दू धर्म कई हजार बरस से इस जमीन पर रहने वालांे का धर्म रहा है, तो इस्लाम भी एक हजार बरस से इसके बाशिन्दों का मजहब चला आता है।
हमारी 11 सदियों की मिली जुली तारीख ने हमारी हिन्दुस्तानी जिंदगी के तमाम पहलुओं को अपने तामीरी सामानों से भर दिया है। हमारी जबाने, हमारी शायरी, हमारा अदब, हमारा रहन-सहन, हमारा लिबास, हमारे रस्म व रिवाज, हमारी रोजाना की जिंदगी की बेशुमार हकीकतें, कोई पहलू भी ऐसा नहीं है जिस पर इस मिली जुली ंिजन्दगी की छाप न लग गई हो। हमारी बोलियां अलग-अलग थीं, मगर हम एक जबान बोलने लग गये। हमारे रस्म व रिवाज एक दूसरे से जुदा थे मगर उन्होंने मिल जुल कर एक नया सोच पैदा कर लिया। हमारा पुराना लिबास हमारी पुरानी तारीखों में देखा जा सकता है, मगर अब वह हमारे जिस्मों पर नहीं मिल सकता। यह तमाम मिला जुला सरमाया हमारी अखंड कौमियत की एक दौलत है और हम इसे छोड कर उस जमाने की तरफ नहीं लौटना चाहते, जब हमारी यह मिली जुली जिंदगी शुरू नहीं हुई थी। हमारे दरमियान अगर ऐसे हिन्दू दिमाग हैं जो चाहते हैं कि एक हजार बरस पहले की हिन्दू जिंदगी वापस लायें तो उन्हें मालूम होना चाहिए कि वे एक ख्वाब देख रहे हैं जो कभी पूरा होने वाला नहीं है। (साभार)