जंगे आजादी के यह मुस्लिम योद्धा

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(४ किश्त)
मौलाना मज़हरूल हक़
मौलाना मजरूल हक़ बिहार के एक खुशहाल घराने में पैदा होकर भी अपनी हुब्बुल वतनी के सबब सब कुछ छोड़कर फकीरों की तरह रहने लगे थे। मौलाना लन्दन में गांधी जी के साथ पढ़े थे और वहां से बैरिस्टरी पास करके लौटे और स्वराज आन्दोलन में कूद पड़े। उन्होंने 1909 में मारले मिन्टू रिफार्म स्कीम (जो अंगेजों की हिन्दू-मुसलमानों को लड़ाने की चाल थी) के खिलाफ जम कर प्रोपगंडा किया। 1941 में कांग्रेस के मुतालाबात को इंग्लैंड के अवाम के सामने रखने के लिये जो डेलीगेशन इंग्लैंड गया था। उसमें मौलाना मजहरूल हक़ भी थे। 1916 में जब महात्मा गांधी चम्पारन के नलहे गोरों के मज़ालिम की जांच के लिये बिहार गये तब मौलाना ने उनकी पूरी मदद की।
राजेन्द्र प्रसाद ने अपनी सवानेह हयात (आत्म जीवनी) में लिखा है कि असहयोग आंदोलन में हिस्सा लेने के लिए इंजीनियरिंग स्कूल के लड़के कालेज छोड़ कर मौलाना के पास गये। मौलाना ने उन्हें पनाह दी और अपना ऐश व आराम छोड़ कर एक छोटे से मकान में उनके साथ रहने लगे और अपने पैसे से कई दूसरे मकान बनवा दिये। 1929 में अपने गांव फरीदपुर जिला छपरा में उनका इंतकाल हो गया।
मौलाना मोहम्मद मियां मंसूर अंसारी
मौलाना मोहम्मद मियां भी शाह वलीउल्लाह की इंकलाबी तहरीक से ताल्लुक रखते थे। उनके नाना मौलाना मोहम्मद कासिम थे और वालिद मौलाना अब्दुन्नसारा अलीगढ़ मुस्लिम यूनीवर्सिटी में मज़हबी उलूम के शोबे के सदर थे। वह बचपन से ही हुब्बुलवतनी के जज़्बे से सरशार थे। मौलाना महमूदुल हुसैन से तालीम हासिल की और उनके साथ कई बैरूनी मुल्कों का दौरा किया। मुल्क को आज़ाद कराने के लिए उन्होंने जान की परवाह न करते हुए मोहिब्बे वतन के खुफिया राज़ एक जगह से दूसरी जगह पहुंचाये। आप को रूस में गिरफ्तार करके फांसी की सज़ा सुनाई गयी। मगर ताशंकद का एक अफसर उनकी शख्सियत से इन्तेहाई मुतास्सिर था। उसकी कोशिशों से उनको जेल से रिहाई मिली। वह मुल्क की आज़ादी लिये जद्दोजहद करते करते 13 जनवरी 1946 को अपने रब से जा मिले।
बदरूद्दीन तैयब जी
8 अक्टूबर 1844 को बम्बई के मशहूर अरब खानदान में बदरूद्दीन तैयब जी पैदा हुए। उनके वालिद मियां भाई तैयब ली दौलतमंद और मोहज़्ज़ब ताजिर (व्यापारी) थे। आप उर्दू फारसी, अरबी, गुजराती, मराठी और अंग्रेजी जुबान के न सिर्फ अच्छे जानकार थे। बल्कि इन ज़बानों पर पूरी कुदरत रखते थे। 1867 में विलायत से बैरिस्टर बन कर वतन वापस हुए और बम्बई हाईकोर्ट में वकालत शुरू की। हिन्दुस्तानियों को आला ओहदों से महरूम करने के लाडज़् लैटिन के हुक्म के खिलाफ अपनी आवाज़ बुलंद की। उन्होंने हर सियासी मोर्चे पर हिन्दुस्तानियों की आज़ादी के मुतालबे की हिमायत की। उनका कहना था हिन्दुस्तान के सिलसिले में आम सियासी सवालों में हर तालीमयाफ्ता शहरी का यह फजऱ् है कि वह ज़ात रंग या मज़हब की तफरीक से ऊपर उठ कर मिल कर काम करे।
1887 में तैयब जी को मद्रास के तीसरे कांग्रेस इजलास में सदर चुना गया। 1895 में आपको बम्बई हाईकोर्ट को जज बनाया गया। आप तालीमे निस्वां (महिला शिक्षा) के जबरदस्त हामी थे। 19 अगस्त 1906 को आप का इंतेकाल हो गया।
रहमतुल्लाह मोहम्मद सयानी
रहमतुल्लाह मोहम्मद सयानी 19 वीं सदी के उन मोहिब्बाने वतन में थे जिन्होंने अपने वतन हिन्दुस्तान की इज़्ज़त और शान बढ़ाने में हर तरह की आफतों और परेशानियों से लोहा लिया। आप 5 अप्रैल 1847 को बम्बई में पैदा हुए। आपने 1870 में बम्बई हाईकोर्ट में वकालत शुरू की। आप ब्रिटिश हुकूमत से हिन्दुस्तान को आज़ाद कराने की भरपूर कोशिशों में लगे रहे। इंडियन नेशनल कांग्रेस के पहले इजलास 1885 में कई मुसलमानों के साथ आप शामिल हुए और बहस में हिस्सा लिया। आप 1888 में बम्बई कानूनसाज़ कौन्सिल के मेम्बर बने।
बदरूद्दीन तैयब जी के साथ आप मरते दम तक कांग्रेस के मज़बूत सुतून (स्तम्भ) बने रहे और अपनी अमली जिन्दगी से मोहब्बत अख़लाके वतन परस्ती ख़ैरसगाली और इंसान दोस्ती से मुल्क के चमन को सरसब्ज़ व शादाब करते रहे। 1896 में पूरे मुल्क ने इत्तेफाक़ राय से आप को कलकत्ता कांग्रेस के बारहवें इजलास (अधिवेशन) का सदर चुना गया। 4 जून 1902 को आपका इंतकाल हुआ।
सैयद मोहम्मद बहादुर
पैगम्बरे इस्लाम (सल्ल.) से 59 वीं पुश्त में एक कदीम अरब खानदान में जो जुनूबी हिन्द में आकर बस गया था। सैदीपार उडयार मद्रास में 1869 में सैयद मोहम्मद बहादुर का जन्म हुआ। आपके दादा नवाब पीर असद उल्लाह खां छीतपुर के जागीरदार थे। आपकी दादी शहज़ादी शाहरूख बेगम टीपू सुल्तान के चौथे बेटे सुलतान यासमीन की बेटी थीं। आपके वालिद मीर हुमायूं जाह बहादुर मद्रास के मोअजिज़़ लोगों में थे।
आपको अंग्रेजों से सख्त नफरत थी। आप मुल्क को उनके चंगुल से आज़ाद करने के लिए सरगर्मी से अवाम में प्रचार कर रहे थे। 1903 में मद्रास कांग्रेस इजलास में आपको स्वागत कमेटी का सदर चुना गया। आपने अपने स्वागत भाषण में कहा था कि हिन्दुस्तान के बाशिन्दे गैर मुल्की सरकार से उस वक्त तक अपने हुकूक वापस हासिल नहीं कर सकते, जब तक की इस अज़ीम मुल्क के रहने वाले हिन्दू और मुसलमान दोनों मज़हब के लोग अपने हुकूक के लिये मिल कर काम नहीं करेंगे। दोनों के मज़हब इंसानियत का पैग़ाम देते हैं। दोनों के बुनियादी मज़हबी उसूल एक है तब दोनों मिल कर अपने हुकूक के लिये जद्दोजहद क्यों नहीं कर सकते।
आप कांग्रेस पार्टी के मुखतलिफ ओहदों पर मुकर्रर होते रहे और 1913 में कांग्रेस के कराची अधिवेशन के अध्यक्ष चुने गये। आप मुल्क में में भाईचारे का माहोल बनाने में हमेशा कोशां रहे। एक मौक़े पर आपने कहा कि हम सब हिन्दू, मुसलमान, पारसी, इसाई, सिख और जैन भाई-भाई की तरह कांधे से कांधा मिला कर अपने मकसद पर यकीन रखते हुए आगे बढ़े। हमारा रास्ता कांटो का रास्ता है, हमें ठोकरें भी खाना पड़ेंगी। इसी से हमारा मुल्क आगे बढ़ सकेगा। 12 फरवरी 1916 को आपका 47 की उम्र में इंतकाल हो गया।