मुसलमानों का वर्तमान और भविष्य

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भारत में हिन्दू और मुसलमान हजारों वर्षों से साथ साथ रहते हैं, ये पडोसी की तरह से रह रहे हैं एक ही शहर मंे एक ही मुहल्ले में रह रहे हैं। लेकिन एक दूसरे से इतने न वाकिफ हैं, ये न वाक्फियत कैसे दूर हो अगर दस करोड आदमी एक जमात के जिस मुल्क में हों इन लोगों के संबंध में उनके धर्म के संबंध में उनके रसूल के संबंध में उनके दीन के संबंध में, कुरान के संबंध में, अगर गलत फहमियां हों तो लोगों में ये कोई बहुत खूबी की बात तो नहीं हैं, इस पर किसी को गर्व तो नहीं हो सकता।
इस विचार ने मुझकों बहुत परेशान किया और मुझे बेहद इत्मीनान होता है कि नये-नये हजारों हिन्दुओं के दिलों से इस्लाम के संबंध में रसूलल्लाह सल्ल. के संबंध में जो गलत फहमी थी उसको दूर करने में सफलता प्राप्त की। मुझे खुद आश्चर्य होता है कि जब मैं अपने मुसलमान भाईयों से बात करता हूं तो मुझको ऐसा लगता है कि मुझको कुरान से जो रोशनी मिली वो इनको क्यांे नहीं मिली? मैं कुरान को एक इन्सानियत का मजहब समझता हूं।
किन वाक्यात को लेकर कुरान की कौन सी आयत नाजिल हुई है, अगर इसकी रोशनी में कुरान की इन आयतों को न पढा जाये और न समझा जाये तो गलत फहमी हो सकती है। हमारे हिन्दू भाई जिक्र करते हैं कि कुरान में जिहाद की बात आती है, कहते हैं कि कुरान इस बात को जायज समझता है कि काफिरों को कत्ल करो, जिहाद करो। इनके खिलाफ मैं इनको समझाता हूं और कहता हूं कि जिहाद दो तरह का होता है एक जिहाद जिहादे असगर और दूसरा अकबर। जिहादे अस्गर का मतलब यह है कि इसमें बेशक इजाजत दी गई है कि अगर कोई तुम पर हमला करे अगर कोई तुम्हें तुम्हारी जायदाद से मेहरूम कर दे। और अगर कोई तुम्हारे बाल-बच्चों को नुकसान पहुंचाए, अगर कोई तुम्हारी जिन्दगी पर जवालत लाने की कोशिश करे तो बेशक इसका मुकाबला करना है लेकिन कुरान यह भी कहता है कि जिहादे अस्गर से जिहादे अक्बर ज्यादा सख्त है अपने दिलों को काबू में रखो, अपने नफ्स को काबू में रखो यही जिहादे अक्बर है।
मैं इनको जजिया की बात समझाता हूं मैं इनको और चीज बताता हूं। इनसे नई रोशनी हमारे हिन्दू भाईयों को मिलती है अब सवाल सिर्फ यह है कि अगर आपने वक्त मांगा दीनी तालिमात हासिल करने के लिए और इनका फायदा आपको तो हुआ, लेकिन आपके पडोसी को नहीं हुआ। आदमी जो चीज हासिल करता है इसे अख्लाकी तरीके से और आत्मिक तरीके से अगर दूसरों को भी बांटे तो इससे ज्यादा फायदा हो सकता है। तालीम में भी बडी बात यह है कि जैसा कि इमाम गजाली ने एक मिसाल देकर समझाया है कि दीनी तालीम के लिए क्या चीज जरूरी है? उन्हांेने एक मिसाल दी है कि किसी बादशाह ने चीनी पेंटरों को और इटालियन पेंटरों को बुलाया कि आप आकर एक तस्वीर बनाईये, जिनकी तस्वीर अच्छी होगी उनको इनाम मिलेगा। बीच में इन्होंने एक पर्दा लगा दिया एक तरफ चीनी तस्वीर खींचने वाले दूसरी तरफ इटेलियन तस्वीर खींचने वाले बीच में एक परदा। उनको एक वक्त दिया गया कि महीने भर के अंदर तुम अपनी तस्वीर तैयार कर लो महीना बीता बादशाह पहले इटालियन मुसव्विर (चित्रकार) के यहां गये और पूछा कि आपने क्या किया तो उन्होंने बेहद खूबसूरत रंग बिरंगी कई तस्वीरें दीवार पर बनाई थीं। बादशाह इसे देखकर खुश हुए फिर चीनियों की तरफ गये वहां देखा कि उन्हांेने दीवार में बेहद खूबसूरत पालिश किया है। तस्वीर कहां है तुम्हारी तो उन्होंने बीच में जो परदा पडा हुआ था उस परदे को हटा दिया नतीजा इसका यह हुआ कि इटालियन चित्रकार ने जो तस्वीर बनाई थी इसका अक्स इस पालिश की हुई दीवार पर पडा तो उससे कहीं ज्यादा खूबसूरती इसमें आ गई।
तो इमाम गजाली में समझाया कि पहले अपने दिलो को अपनी नब्ज को मांज घिस के ऐसा पालिश कर लो जो भी तालीम तुमको मिलती है वो और भी ज्यादा उजागर होकर करके तुम्हारे कल्ब में दाखिल हो। अगर वो नहीं है, अगर इसके साथ-साथ वो साधना नहीं है तो फिर कितनी ही दीनी तालीम आप हासिल कीजिये लेकिन इससे जो रूह को सुकून होता है वो सुकून हासिल नहीं हो सकता यह कैसे होगा जिन्दगी भरी हुई है हजारों सूफियों की, फकीरों की, संतों की, जिन्होंने बेहद तकलीफें उठाकर और बडी तपस्या करके वो खूबियां हासिल कीं दीनी तालीम के साथ-साथ दिल में जो रूहानियत न पैदा करे तो फिर वो दीनी तालीम ही क्या।
दूसरी बात में आपको यह कहना चाहता हूं कि दुनिया बदल रही है अगर इसके साथ-साथ कभी-कभी जरूरी हो जाता है कि हम भी बदलें। आप आज अगर बैल गाडी लेंगे अगर रेल से सफर नहीं करेंगे, आप हज को जाने के लिये हवाई जहाज से सफर नहीं करेंगे तो आप बहुत पीछे रह जायेंगे। करना पडता है, मजबूर हैं तो इस दौर में जबकि बहुत सी चीजें हमारी जिन्दगी में दाखिल हो गई हैं तो हम इससे शिरकत न करें और इससे हम अपने बच्चों को दूर रखें तो कैसे काम चलेगा। मेरी तबियत को बहुत तकलीफ पहुंचती है जब मैं सूची देखता हूं, आईएएस की, आईपीएस की तो उस सूची में सबसे पहले नाम ढूंढता हूं कि इनमें मुसलमान कितने हैं और जब में देखता हूं कि इसमें मुसलमान के एक या दो नाम हैं तो मुझे बेहद तकलीफ होती है ऐसा क्यों?
एक ऐसी बडी कौम, एक इतनी बडी तहजीब और तमद्दुन सभ्यता और संस्कृति के अलमबरदार थे। हिन्दुस्तान में आकर इनको क्या हो गया? हिन्दुस्तान में ऐसे इदारे थे कि जहां बाहर से चलकर लोग आते थे तालीम हासिल करने के लिए ऐसे लोग थे जिनको अब्बासी खलीफाओं के दरबार में बइज्जत बुलाया जाता था। और इनकी चीजों के तर्जुमें होते थे अरबी जबान में तो कहां चले गये वो लोग? तकलीफ होती है इसलिये तकलीफ होती है कि मैं जो चाहता हूं कि मुसलमानों का हाल वर्तमान और मुस्तक्बिल (भविष्य) दोनों इस तरह से चमके जिस तरह से इनको माजी (भूतकाल) इसी वजह से मैं चाहता हूं कि ज्यादा से ज्यादा जो डाॅक्टर हैं इनमें आपकी गिनती हो, जो इन्जीनियर हैं उनमें आपकी गिनती हो, जो साइंस वाले हैं उनमें आपकी गिनती हो। आखरी दीनी तालीम उस वक्त भी मिलती थी जब खिलाफत थी जब अब्बासी थे जब मुआबिया के खानदान के लोग थे उस वक्त भी दीनी तालीम होती थी। लेकिन उन्होंने तो उन्होंने समन्दर को नामा दुनिया को मापने की कोशिश की उन्होंने तरह-तरह की इजादें कीं। अल्जिबरा की बात आप करते हैं अल कुनैन ने तो आजकल की जो मार्डन मेडीकल साइंस है इसकी बुनियाद उन्होंने ही रखी तरह-तरह की उन्होंने इजादे कीं। मेथामेटिक्स की दूसरी चीजों की इन साइंसों से उन्होंने अपने आप को अलग नहीं रखा। जितनी तरक्की उस वक्त दुनिया हासिल कर सकती थी उतनी तरक्की उन्होंने हासिल की और आज हम दीनी लिहाज से अगर आज कल की साइंस और तकनीक से अपने को बिल्कुल अलग कर लें तो कैसे काम चलेगा। कौम पिछडी रह जायेगी बहुत पीछे रह जायेगी और फिर आगे आने वाली जो नस्लें हैं वो आपको माफ नहीं करेंगी वो आपसे जवाब तलब करेंगी कि हमें इस दौड मंे पीछे रखा गया, क्यों हमें शामिल नहीं करा गया वो यह सवाल आप से करेंगी तो जरूरत इस बात की है कि दोनों में एक तालमेल बिठाया जाये, तालमेल बिठा करके एक ऐसी शक्ल निकाली जाये कि जिससे दीन और दुनिया दोनों ही हासिल हों। 0 स्व. विशम्भरनाथ पाण्डे, पूर्व राज्यपाल
नोटः- यह लेख कई वर्ष पूर्व लिखा गया था, परंतु आज भी हमको सोचने पर मजबूर करता है।