प्र. आपने शायरी कब से शुरू की?
उ. मुझे बचपन से ही शायरी का शौक था क्योंकि हमारे घर में शायरी का माहौल था। मैंने बाकायदा $गज़ल 16 साल की उम्र में कही थी। मैंने पहला मुशायरा 17 साल की उम्र में पढ़ा था।
प्र. आपने अपना पहला मुशायरा कहां पढ़ा था?
उ. मैंने अपना पहला मुशायरा दूरदर्शन में पढ़ा था। जनता के बीच बाकायदा पहला मुशायरा देवा मेला में पढ़ा था। देवा मेला का मुशायरा बहुत बड़ा मुशायरा होता है यहां काफी लोग आते हैं।
प्र. पहले मुशायरे का अपका तर्जुबा कैसा रहा?
उ. पहले मुशायरे में चूंकि हमको बहुत ज्यादा तर्जुबा नहीं था इसलिये बहुत हूट हुए लेकिन इसके बाद जब अगले साल हमने जब दूसरा मुशायरा पढ़ा तो लोगों ने हमको बहुत दाद दी और बहुत पसंद किया गया। इस एक साल में हमने सीख लिया था कि मुशायरे में क्या और कैसे पढ़ा जाता है।
प्र. आपके परिवार में और कौन-कौन शायरी करता है?
उ. मशहूर शायर फकीर मोहम्मद खां ‘गोया’ मेरी नानी के मामू थे। मेरी फुफी भी शेर कहा करती थीं लेकिन पर्दे की हद तक। घर में बैत ब$जी होती थी। शाम को घर में कुछ शोहरा हजरात इक_ïा होते थे बीच में एक चिलमन पड़ जाती थी और फिर बेत बाजी हुआ करती थी।
प्र. आपका बचपन कहां बीता?
उ. मैं अपने माँ-बाप की इकलौती बेटी थी लेकिन मेरे वालदेन ने मुझे मेरी फुफी को दे दिया था। मैं उन्हीं के पास पली-बढ़ी, मेरी फुफी को शेर कहने का बहुत शौक था।
प्र. आपकी शादी कब हुई और सुसराल में आपको कैसा माहौल मिला?
उ. मेरी शादी 15 साल की उम्र में कर दी गई थी सुसराल में बहुत ज्यादा कै़ द नहीं थी वो लोग शेर और शायरी पसंद करते थे वहां किसी ने मुझे शेर शायरी करने से कभी नहीं रोका टोका।
प्र. शायरी में आपके उस्ताद कौन हैं?
उ. मेरे सुसर के उस्ताद थे मरहूम सालिक लखऩवी उनके भाई थे माहिर लखनवी। तकरीबन 6 महीने तक शेरोशायरी की बारीकियां सीखीं। वो एक रिवायती शायर थे। मैं परवीन शाकिर की शायरी से बहुत मुतास्सिर थी, और मैं नये अन्दाज की शायरी करना चाहती थी इसलिये मैंने वहां जाना बन्द कर दिया और अपने अंदाज में शेर कहने लगी।
सफर के दौरान बुर्जुग शायरों से बातचीत करके और उनकी बातचीत सुनकर मैंने बहुत कुछ सीखा। इनमें साहिर लखनवी, बशीर फारूकी, बशीर बद्र, खुमार सा., कैफी आजमी, कैफ भोपाली आदि बड़े शायरों से बहुत कुछ सीखने को मिला।
प्र. आपको मुशायरा पढ़ते हुए कितना समय हो गया?
उ. मैं सन्ï 1979 से मुशायरा पढऩा शुरू किया था मुझे लगभग 30 साल हो गये हैं।
प्र. आपने मुशायरा कहां-कहां पढ़ा है?
उ. मैंने हिन्दुस्तान के तकरीबन सभी शहरों में मुशायरे पढ़े हैं इसके अलावा विदेशों में अमेरिका, कनाडा, दुबई, दोहा, क़तर, मस्$कत, बहरैन, शारजा, जद्दा रियाद, पाकिस्तान में लाहौर करांची आदि।
प्र. आपके पसंदीदा शायर कौन हैं?
उ. वर्तमान दौर में वसीम बरेलवी, मुनव्वर राना, राहत इन्दौरी, निदा फाजली, वगैरह अच्छे कलाम कहते हैं। पुराने शायरों में शुरू में मैं ग़ालिब से बहुत प्रभावित थी। बाद में जब मैंने अपनी पढ़ाई आगे की और एमए किया तो मैं मीर तकी मीर से बहुत प्रभावित हुई मुझे यह महसूस हुआ आज जिस लहजे में शायरी हो रही है वो उस दौर में मीर साहब ने इस्तेमाल की थी। मीर तकी मीर की शायरी बहुत अच्छी है।
प्र. मुशायरा पढऩे के लिए आप अक्सर सफर में रहती हैं इससे आपको कोई कठिनाई तो नहीं होती?
उ. जब मेरे बच्चे छोटे थे, तब मुझे थोड़ा परेशानियों का सामना करना पड़ता था। उस वक़्त बड़ी दिक्कत उठाई है लेकिन अब बच्चे बड़े हो गये हैं तो ऐसी कोई परेशानी नहीं होती।
प्र. आपके बच्चों में से किसी को शायरी को लगाव है?
उ. मेरे तीन बच्चे हैं और तीनों को शायरी का शौक भी है और उनकी आवाज भी बहुत अच्छी है और शेरो शायरी की समझ भी बहुत अच्छी है लेकिन वो प्रोफेशन के तौर पर इसे अपनाना नहीं चाहते।
प्र. कोई एक ऐसा हादसा जिसे आप भुला न पाई हों?
उ. हां एक हादसा शुरू में हुआ था। एक मुशायरे में। एक मुशायरे के कन्वीनर थे उन्हें कुछ गलत फहमी थी और उन्होंने देवबंद के मुशायरे में कुछ ऐसी ह$कत की जिससे की बहुत ज्य़ादा हंगामा हुआ। और बाद में उनका कैरियर भी चौपट हो गया। वो मुझे गोली मारने की बात भी करते थे। लेकिन मैं डरी नहीं।
प्र. आपके कितने काव्य संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं?
उ. मेरी चार पांच किताबें छप चुकी हैं। पहली 1980 में धुआंधुआं के नाम से एक किताब छपी। उसके बाद 1984 में भीगी आंखें, 1990 के दशक में फूलों का बोझ, 1995 में ख़्वाब देखने वालो, इस वक्त मेरी थीसेज उर्दू शायरी में वा$कयाते करबला फख़्रूद्दीन सोसायटी लखनऊ में जमा है, छपने के लिये।
प्र. शायरी के अलावा और आपकी अन्य उपलब्धियां क्या हैं?
उ. मैं शायरी के अलावा मैंने पत्रकारिता भी की और राष्टï्रीय सहारा अखबार में मैंने 10 साल तक बतौर पत्रकार काम किया। लेकिन अपनी व्यस्तता के कारण इसी साल जून में मैंने उसको छोड़ दिया। क्योंकि मुझे दो हाटअटैक पड़ चुके थे इसलिये मैंने शायरी को पत्रकारिता पर तरजीह देते हुए पत्रकारिता को छोड़ दिया।
प्र. राष्टï्रीय सहारा में आप कौन सा काम देखती थीं?
उ. पहले मैं मैंग्जीन के 12 पेजेज देखती थी उसमें जो अदब का हिस्सा था वो मैं ही देखती थी। जब मेरा तबादला लखनऊ हो गया तो वहां अखबार छपता था वहां सब एडीटर की हैसियत से काम किया।
प्र. आपके खुद के पसंदीदा अशआर कौन से हैं?
उ. मेरा एक शेर गोविन्दा की फिल्म में लिया गया था-
हर मोड़ पे मिल जाते हैं हमदर्द हजारों,
शायद मेरी बस्ती में अदाकार बहुत हैं।
हर गजल में एक से एक अशआर होते हैं जो बहुत अच्छे लगते हैं और शायर को अपना हर शेर उसी तरह प्यारा होता है जैसे माँ को अपने हर बच्चे से बराबर का लगाव होता है।
मेरी एक गजल है जिसको कई गायकों ने गाया है-
बंजारे हैं रिश्तों की तिजारत नहीं करते,
हम लोग दिखावे की मोहब्बत नहीं करते।
मिलना है तो आ जीत ले मैदान में हमको,
हम अपने कबीले से बगावत नहीं करते।
पलकों पे सितारे हैं न शबनम है न जुगनू,
इस तरह से दुश्मन को भी रूख्सत नहीं करते।
एक $ग$जल का और शेर मुझे बहुत पसंद है-
मुझको चराग़े शाम की सूरत जला के देख,
आ ऐ अंधेरी रात मुझे आजमा के देख।
टूटी हुई मुंडेर पे छोटा सा इक चराग,
मौसम से कह रहा है कि आंधी चला के देख।
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कहां ये खाऱे मुग़ीला कहां गुलाब के फूल ,
लहू से सींचें तो खिलते हैं इंक़लाब के फूल।
शहीदे करबो बला तेरी आबयारी से,
खिले हैं दामने मज़हब मैं इंकलाब के फूल।
हिसारे जात में क्या चांदनी उतरती है,
महकने लगते हैं जब चेहरे पे हिजाब के फूल।
चराग शाम की चौखट पे क्यों नहीं रौशन,
खिले हैं लहजों़ की शाखों में इश्तराब के फूल।
एक गज़ल मेरी अमरीका में बहुत पसंद की गयी थी। सन्ï 2005 में-
था जो आंखों का काजल कभी आंसुओं का सबब हो गया,
आइना टुकड़े-टुकड़े हुआ दिल लगाना गज़ब हो गया।
मैं उसे $िजन्दगी सौंप कर उसके आंगन की बांदी रही।
मुझको दो रोटियां देके वो ये समझता है रब हो गया॥
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जिस घर पे मेरे नाम की तख़्ती भी नहीं है।
इक उम्र उसी घर को सजाने में गुजर जाये॥
आंखें किसी मासूम शरारत को तरस जायें,
बचपन भी गरीबों का कमाने में गुजर जाये।
प्र. नये शायरों के लिये आप कोई संदेश देना चाहेंगी?
उ. आज के दौर में बहुत तेजी से नये शायरों की भीड़ आई है। इस भीड़ में वाकई में कितने शायर हैं पहले ये समझ लिया जाये। अल्लाह से मेरी दुआ है जो लोग नये आ रहे हैं उनमें कुछ ऐसे सच्चे शायर हों कि आने वाले वक्त के दामन में कुछ तो रह जाये। वरना मुझे तो लगता है कि बिल्कुल खाली हो गया है। मैं चाहती हूँ कि कुछ असली शायर-शायरा जो हैं वो निकल कर आयें। मेरा यह पैगाम है कि जो शायर हैं उन्हें मेहनत करनी चाहिये। उन्हें सीखना चाहिये।
– रईसा मलिक